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घर-बार, बार और बार

♦️ घर-बार का 'बार' संस्कृत द्वार अथवा वारक (रोकने वाला, रुकावट) से है, अर्थ है दरवाज़ा।  बरोठा, बारजा इसी से हैं। विवाह में 'बार रोकाई' नाम से एक लोकाचार प्रचलित है जिसमें नव विवाहित वर-वधू को दरवाज़े के पास रोककर कुछ कर्मकांड किया जाता है। बहन अपने भाई-भाभी को विवाह के बाद घर में प्रवेश करने से पहले दरवाज़े पर रोक कर नेग माँगती है। उन मित्रों के लिए यह बात और भी महत्त्वपूर्ण है जो शाम होते-होते घर को अंग्रेजी वाला 'बार' समझ लेते हैं, और ईश्वर न करें, कुछ ऐसा-वैसा या ऊँच-नीच हो जाए तो बात विधि विशेषज्ञों के बार तक पहुँच जाती है। हमारा काम था आपको बताना, अब हम बार-बार तो समझाने से रहे!  ♦️
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भड़कना (بَھڑَکْنَا)

भड़कना (بَھڑَکْنَا) ••••••••• "जितना अच्छा आप हिंदी/उर्दू में भड़कते हैं उतना अंग्रेजी में 'एंग्री' हो ही नहीं सकते!" (डॉ आरिफ़ा सैयदा ज़हरा) 'भड़कना' क्रिया सौरसेनी प्राकृत *भड़क्कदि (अचानक हिलना, शोर करना) से व्युत्पन्न है। समय के साथ-साथ अर्थ विस्तार से अब हिंदी में भड़कना का अर्थ है तेज़ी से जलना, गर्म होना; तमतमाना, आवेश में आना; उत्तेजित होना।  आग ही नहीं, इंसान भी भड़कते हैं, पड़ोसी भी और देश भी। दिखावे के लिए ही सही, नेता भी भड़कते हैं। ये बात और है कि जनता को भड़कने का अधिकार नहीं है। भड़क भी गई तो क्या कर लेगी। खरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर, कटना खरबूजे को ही होता है। कुमाउँनी में भड़कना का प्राकृत वाला मूल अर्थ भी जीवित है; भड़कण अर्थात अकारण हिलना-डुलना। 

भिडू और फट्टू

अथातो मुंबइया हिंदी ...१ भ‍िडू और फट्टू •••••• 'भ‍िडू' और 'फट्टू' मुंबइया हिंदी में बोलचाल के (स्लैंग) शब्‍द हैं। इन्हें मराठी शब्द माना जाता है, किंतु इनका मूल हिंदी में है। हिंदी में क्रिया के साथ /-ऊ/ प्रत्यय जोड़कर अनेक विशेषण बनते हैं जैसे खाना से खाऊ, घोंटना से घोटू। इसी प्रकार भिड़ना + ऊ से बना विशेषण है भिड़ू, दोस्त के लिए भिड़ जाने वाला। जोड़ीदार, पार्टनर, साथी, बहुत करीबी दोस्त। कुछ-कुछ अंग्रेजी में Buddy, dude जैसा। इसी प्रकार फटना क्रिया का अशिष्ट लाक्षणिक अर्थ लेकर बनाया गया विशेषण है फट्टू (फटना+ऊ) अर्थात कायर, डरपोक।

नैन, ऐन और आईन

उपनयन का कोशीय अर्थ है- पास ले जाना, यज्ञोपवीत संस्कार, जनेऊ । हमें लगता है इसकी कोशीय परिभाषा में बदलाव किया जाना चाहिए। मनु ने वर्णानुसार उपनयन संस्कार की आयु, विधि तय की थी। आज के ज़माने में उपनयन का स्वरूप और विधि-विधान सब बदल गया। नये उपनयन संस्कार के लिए कोई पंडित-पुरोहित नहीं, नेत्रचिकित्सक आवश्यक है। और यह भी आवश्यक नहीं की वह मनुवादी ही हो। किसी भी वर्ग से हो सकता है, बस आँखों वाला चार्ट पहचानता हो और पढ़ा लेता हो। जब 50+ होते-होते अँखियाँ हरिदर्शन से अधिक जगदर्शन को तरसने लगती हैं तो एक अदद उपनयन आवश्यक हो जाता है। हमारे मित्र राहुल देव जी अच्छे विचारक हैं और भाषा पर उनको अधिकार है‌। वे कहने लगे कि इसे उपनयन के स्थान पर 'अतिनयन' क्यों न कहें। हमें क्या आपत्ति हो सकती थी लेकिन फिर सोचा अति उपसर्ग प्रकर्ष, उल्लंघन, अतिशय आदि के अर्थ में आता है। अतिनयन का अर्थ तो नयनों की सीमा से भी आगे देखने वाली चीज़ हो जाएगी। इसके विपरीत 'उप-' ‌उपसर्ग प्रायः सहायक या किसी के बदले में होने का अर्थ देता है और 'अति-' आधिक्य, बाहुल्य, प्रचुरता का।  कहते हैं सावरकर जी ने इस

गोबर

गोबर (cowdung) की एक नई व्युत्पत्ति देखी- "गो-वरदान"। यह आकर्षक तो है पर काल्पनिक लगती है। गोबर के लिए संस्कृत में प्रचलित है: गोमय [गोः पुरीषं गूथं वा ('गू' इति लोके) ]। इसके अनेक पर्यायों में हैं गोमल, गोविष्ठा आदि। भावप्रकाश में गोठ के भीतर गायों के खुरों से कुचले, धूल-से सूखे गोमय को गोवर/गोर्वर कहा है। यह गोर्वर ही प्राकृत में गोव्वर, 𑀕𑁄𑀯𑁆𑀯𑀭 (govvara), गोवर 𑀕𑁄𑀯𑀭 (govara) है, और संस्कृत में गोर्वर, हिंदी में गोबर जो गोवंश के सभी पशुओं गाय, बैल, बछड़ा आदि के मल के लिए और अर्थविस्तार से भैंस के मल के लिए भी है। गोबर का सबसे लाभप्रद उपयोग खाद के रूप में सदियों से होता रहा है, किंतु भारत में जलाने की लकड़ियों का अभाव होने से इसका अधिक उपयोग ईंधन के रूप में होता है। ईंधन के लिये इसके गोहरे या कंडे बनाकर सुखा लिए जाते हैं। सूखे गोहरे अच्छे जलते हैं और उनपर बना भोजन, मधुर आँच पर पकने के कारण, स्वादिष्ट होता है। गोबर से बायोगैस, अगरबत्ती, दीपक, कागज़, गमला जैसे कई तरह के उत्पाद बनाए जा सकते हैं। प्राचीन काल से ही गोबर का उपयोग आंगन आदि को लीपने तथा कुछ धार्मि

नयी, नई

नयी, नई संस्कृत √नु से निर्मित नव, नवल, नवीन तत्सम शब्द हैं। नव से हिंदी में दो विशेषण मिलते हैं- नवा और नया। नवा का प्रयोग लोक में था किंतु अब धीरे-धीरे कम हो रहा है। इस प्रकार नया मूल शब्द है और इससे लिंग, वचन द्योतक निम्नलिखित प्रत्यय सहज ही जुड़ सकते हैं - प्रत्यय '-आ' - पुल्लिंग, एकवचन; '-ई' - स्त्रीलिंग, एकवचन; '-ए' पुल्लिंग बहुवचन। नव > नवा/नया > नयी, नये। यहाँ यह/व श्रुति नहीं, शब्द की वर्तनी के घटक हैं। इसलिए नयी, नये को व्याकरण सम्मत माना जाना चाहिए। केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा हाल ही में जारी की गई  "देवनागरी लिपि एवं हिंदी वर्तनी का मानकीकरण" में इन्हीं रूपों की संस्तुति की गई है। किंतु (यह "किंतु" विशेष है!), खड़ी बोली हिंदी में स्वरांतता (शब्द के अंत में स्वर को वरीयता देने) की प्रवृत्ति रही है, यह पंडित किशोरीदास वाजपेयी सहित आज के कुभाषा शास्त्री भी मानते हैं। यही कारण है कि लोक में भी नया, नई, नए का प्रयोग अधिक चल रहा है। नयी, नये उच्चारण करते हुए भी नई, नए ही सुनाई पडते हैं। इसलिए नई, ने को त्याज्य नहीं कह सकत

बहुत-बहुतों

कई-कईयों, बहुत-बहुतों, सब-सबों, अनेक-अनेकों अर्थ के स्तर पर एक से हैं। 'अनेक' शिष्ट प्रयोग में अधिक मिलता है, आम जन इसके स्थान पर 'कई' का चुनाव करते हैं। व्याकरण की दृष्टि से इन्हें कुछ लोग विकृत/अशुद्ध रूमानते हैं क्योंकि ये स्वयं में बहुवाची शब्द हैं तो बहुवचन का अतिरिक्त प्रत्यय '-ओं' क्यों? यह भी तर्क है कि '-ओं' प्रत्यय न केवल बहुवचन का संकेत करता है, वरन उस कथन पर कुछ बल भी देता है। जैसे: दस बुलाए, दसों आए। इसी आधार पर कहा जाता है कि जब दस का दसों, सौ का सैकड़ों, लाख का लाखों आदि हो सकते हैं तो अनेक का अनेकों क्यों नहीं हो सकता! "अनेक" शब्द प्रयोग की दृष्टि से परिमाणवाचक विशेषण के समकक्ष है। संज्ञा के साथ अन्वित होकर तिर्यक रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है, जैसे:  मैंने अनेकों मतदाताओं से बात की। और बिना तिर्यक रूप के भी, जैसे:  अनेक डॉक्टरों से परामर्श किया। कुछ लोग "कई लोगों का कहना है" कहने के बदले "कइयों का कहना है" कहते हैं। यही बात बहुतों के साथ भी है। हाँ, "सबों" का प्रयोग कम देखा गया है। बहुतों, कइ