कल पत्रकार दीपक मन राल ने एक मित्र धीरज भट्ट की वॉल से एक संस्मरण उद्धरित किया कि कैसे कुछ शिक्षित-नवधनिक , कथित संभ्रांत उत्तराखंडियों की हीनताग्रंथि उन्हें पीड़ित करती है और वे अपने बच्चों को भी मातृभाषा में बात करने से निरुत्साहित करते हैं। पढ़कर बुरा तो लगा लेकिन ये सचाई भी है और अनेक अवसरों पर मैंने भी अनुभव किया है। पहाड़ का आमजन भी नितांत घरेलू स्थितियो में तक हिंदी का उपयोग करने लगा है। हिंदी बिरानी भाषा नहीं है किंतु उसकी स्थिति इस मिट्टी की आंचलिक या पारंपरिक भाषा की नहीं है जो यहाँ की संस्कृति की वाहिका हो। जगजाहिर है कि विश्व की सैकड़ों भाषाएँ विलुप्ति के कगार पर हैं और गढ़वाली कुमाउँनी भी उन संकटग्रस्त भाषाओं में हैं। भाषा विलुप्त तभी होती है जब उसे बोलने-बरतने वाले लुप्त होने लगें। यह चिंता का विषय है , क्योंकि जब कोई भाषा मरती है तो उसके साथ एक समुदाय की संस्कृति भी मरती है। समाधान की दिशा में कोई प्रयास होता नहीं दिखाई देता। राज्य सरकार के लिए यह कोई मुद्दा नहीं रहा कभी , न कभै मतदाताओं ने सोचा कि उसे चुनें जो उनकी पहचान न छिपाए। प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम मात
कुल व्यू
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