समाचार पत्रों की भाषा विशुद्ध साहित्यिक नहीं, सामान्य जन की आम-फ़हम भाषा होती है, किंतु वह गली- चौराहे की आमफ़हम भाषा भी नहीं होती। इन दोनों के बीच में ही कहीं मीडिया की भाषा की स्थिति होनी चाहिए। मीडिया साहित्य, आलोचना और सृजनशील साहित्यकारों के संसार से अलग तरह का क्षेत्र है। उसे अपनी अलग भाषा चाहिए किंतु इसका आशय यह नहीं है कि जो सृजनशील साहित्य नहीं है उसमें अंग्रेजी को खुली छूट मिले। एक सीमा तक उसमें अंग्रेजी के ऐसे आम शब्द आना स्वाभाविक है जो हमारे दैनिक व्यवहार में अपरिहार्य हो गए हैं क्योंकि देश में अंग्रेजी का वर्चस्व है। शिक्षा में, चिकित्सा में, न्यायालयों में और संसद में भी, हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला है। जिसका बोलबाला होता है लोग उसकी नकल करते हैं। किंतु ऐसी भी क्या नकल कि केवल क्रियापद के अतिरिक्त कथित हिंदी वाक्य में सारे शब्द अंग्रेजी के ठूँसे हुए हों। स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त अंग्रेजी और ठूँस-ठूँस कर डाली हुई अंग्रेजी में यही अंतर है और इस प्रवृत्ति से बचा जाना चाहिए। मीडिया शायद यह भूल जाता है कि ऐसी हिंदी से लपेटकर परोसी जाने वाली सामग्री के प्रति पाठक के मन
कुल व्यू
||वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये ||
॥स्वीकरण: आलेखों में कहीं-कहीं सोशल मीडिया पर प्राप्त सामग्री का साभार मधुसंचय॥