समाचार पत्रों की भाषा विशुद्ध साहित्यिक नहीं, सामान्य जन की आम-फ़हम भाषा होती है, किंतु वह गली- चौराहे की आमफ़हम भाषा भी नहीं होती। इन दोनों के बीच में ही कहीं मीडिया की भाषा की स्थिति होनी चाहिए। मीडिया साहित्य, आलोचना और सृजनशील साहित्यकारों के संसार से अलग तरह का क्षेत्र है। उसे अपनी अलग भाषा चाहिए किंतु इसका आशय यह नहीं है कि जो सृजनशील साहित्य नहीं है उसमें अंग्रेजी को खुली छूट मिले। एक सीमा तक उसमें अंग्रेजी के ऐसे आम शब्द आना स्वाभाविक है जो हमारे दैनिक व्यवहार में अपरिहार्य हो गए हैं क्योंकि देश में अंग्रेजी का वर्चस्व है। शिक्षा में, चिकित्सा में, न्यायालयों में और संसद में भी, हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला है। जिसका बोलबाला होता है लोग उसकी नकल करते हैं। किंतु ऐसी भी क्या नकल कि केवल क्रियापद के अतिरिक्त कथित हिंदी वाक्य में सारे शब्द अंग्रेजी के ठूँसे हुए हों। स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त अंग्रेजी और ठूँस-ठूँस कर डाली हुई अंग्रेजी में यही अंतर है और इस प्रवृत्ति से बचा जाना चाहिए। मीडिया शायद यह भूल जाता है कि ऐसी हिंदी से लपेटकर परोसी जाने वाली सामग्री के प्रति पाठक के मन में भी अरुचि पैदा होती है।
अच्छी भाषा अच्छे पत्रकार की सबसे बड़ी विशेषता है। यह बात जितनी महावीर प्रसाद द्विवेदी के युग में सच और प्रासंगिक थी, उतनी ही आज भी है। आज पत्रकार के सामने विषय विविध हैं, पाठकों की रुचि और बौद्धिक क्षमता भी विविध है किंतु पत्रकार इनके बीच सहज भाषा का पुल बनाने की चुनौती को निभा नहीं पा रहे हैं।
परंपरागत मीडिया में सेवारत पत्रकार एवं लेखक व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन में गंभीर अध्ययन करते थे ताकि भाषा को लेकर स्थापित मानकों के साथ कोई समझौता न हो। द्विवेदी युग में पत्रकारिता में सहज, बोलचाल की हिंदी का ही रास्ता था। उस हिंदी की बुनावट में अरबी, फ़ारसी, तुर्की, अंग्रेजी, पश्तो आदि से भी ऐसे शब्दों को लिया गया जो आम लोगों के सहज दैनिक व्यवहार का हिस्सा थे। पिछली सदी के सातवें - आठवें दशक तक भी आमफ़हम भाषा से आशय यही था कि जो भाषा चाय के ढाबे में, मजदूरों की टोली में, बाज़ार में ख़रीद-बिक्री कर रहे लोगों की समझ में आए और साथ ही साथ पढ़े-लिखे मध्यमवर्ग को भी उससे जुड़ाव महसूस हो । आज स्थितियाँ बदल गई हैं, पाठकों की सामाजिक बौद्धिक स्थितियां बदली हैं। हिंदी का क्षेत्र ,दूसरे शब्दों में मीडिया के उपभोक्ता पाठक-दर्शकों का क्षेत्र व्यापक हुआ है। यदि हिंदी को आम लोगों के करीब लाना है तो वह परिष्कृत हिंदी या किताबी हिंदी नहीं हो सकती, जो बोलचाल की हिंदी से अपने को दूर रखती आई है। मीडिया की बढ़ी ताकत ने उसे एक जिम्मेदारी भी दी है कि नई पीढ़ी को भाषा के संस्कार भी दे। कुछ अखबार अपनी श्रेष्ठता दिखाने अथवा युवा पाठकों का ख्याल रखने के नाम पर हिंग्लिश परोस रहे हैं और इससे एक नई किस्म की भाषा जनम रही है जो न तो हिंदी है और न इंग्लिश। ये सभी हिंग्लिश प्रेमी अख़बार हिंदी के नाम पर पंजीकृत हैं, द्विभाषी के नाम पर नहीं। फिर भाषाओं में घालमेल का छल क्यों ?
समाचार पत्रों, अन्य माध्यमों में दोषपूर्ण अनुवाद के अनेक उदाहरण आसानी से मिल जाते हैं। अनुवाद में सरल, तद्भव और प्रचलित देशज शब्दों के स्थान पर तत्सम शब्दावली के प्रति आग्रह के कारण अख़बारों की भाषा कठिन और बोझिल हो जाती है। वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली के कोशीय अनुवाद ही लेना आवश्यक नहीं है । यदि पारिभाषिक शब्द अंग्रेजी या अन्य भारतीय भाषा का अधिक प्रचलित है तो उसे कोशीय अनुवाद से बदला जाना चाहिए।
हिंदी व्याकरण के मनमाने प्रयोग भी देखे जा सकते हैं कुछ तो संस्कृत से आए हुए शब्दों की बनावट को न समझने से होते हैं। इन्हें क्षम्य माना जा सकता है किंतु कुछ रिपोर्ट या टिप्पणी लिखने वालों की अपनी नासमझी से भी। कभी अच्छे शब्द भी चल पड़ते हैं तो उन्हें शुद्धता की चासनी में लपेटने के लालच में भ्रष्ट कर दिया जाता है: जैसे डिमॉनेटाइजेशन के लिए नोटबंदी अच्छा शब्द बना था। शुद्धतावादियों ने इसे विमौद्रीकरण, विमुद्रीकरण, विमुद्रिकीकरण आदि बना दिया। अब मॉनेटाइजेशन के लिए भी मौद्रिककरण, मुद्रिकीकरण, मौद्रिकिकरण, मुद्रीकरण आदि चल रहे हैं। इसी प्रकार समाजीकरण- सामाजिकीकरण, सशक्तिकरण- सशक्तीकरण आदि का भ्रम भी देखा जाता है। ये उदाहरण तो केवल एक प्रत्यय '-ईकरण' के प्रयोग को न समझने के हैं। प्रत्यय और भी अनेक हैं और उनसे बनने वाले शब्द भी। परिणामस्वरूप ऐसी भूलें भी अनेक हैं।
एक अन्य समस्या है दूसरी भाषा के शब्दों (प्रायः नामों) को हिंदी की नागरी लिपि में रूपांतरित करके बोलना या लिखना। इसमें मनमाने प्रयोग देखे जाते हैं। असल में समाचार-एजेंसियों से मूल समाचार अंग्रेजी में प्राप्त होते हैं और उन्हें अंग्रेजी उच्चारण के आधार पर लिपि बदलकर लिख दिया जाता है जो कभी सही होते हैं और कभी नहीं। परिणामस्वरूप निर्मला सीतारमन 'सीतारमण' हो जाती हैं, फड़नवीस - 'फड़ नबिस', सौरव गांगुली - 'सौरभ गांगुली', अर्जन सिंह- 'अर्जुन सिंह', सबरी मलै - 'शबरी मलाई', जो बाइडन - 'जो बिडेन'। ऐसे अनेक उदाहरण प्रायः रोज ही देखने-सुनने को मिलते हैं।
कभी कभी पांडित्य प्रदर्शन का लालच भी अपने ही बनाए जाल में उलझा देता है। पाना, लेना, देना जैसी सरल क्रियाओं की जगह प्राप्त करना, ग्रहण करना प्रदान करना जैसे जटिल प्रयोगों की क्या आवश्यकता है? इनका प्रयोग करने से वाक्य लंबे बनते हैं और सँभले नहीं तो अशुद्धि की संभावना बढ़ जाती है। इसी प्रकार कर्मवाच्य के प्रयोग में उलझना भी है। सिद्धांततः रिपोर्ट करने वाले संवाददाता या समाचार संस्था की अप्रतिबद्धता और निर्वैयक्तिकता जताने के लिए औपचारिक भाषामें कर्मवाच्य का प्रयोग किया जाता है, पर इसके लिए सदा 'के द्वारा' जोड़कर कर्मवाच्य में लिखे गए वाक्य प्रायः रूखे, उबाऊ और लंबे होते हैं। किए जाने, लिए जाने और दिए जाने जैसे प्रयोग करने पड़ते हैं। मेरा अनुभव है कि 'के द्वारा' वाले वाक्य के स्थान पर केवल 'ने' वाक्य से काम चल सकता है; जैसे 'अमुक के द्वारा कहा गया' के लिए 'अमुक ने कहा' पर्याप्त है। मंत्री जी द्वारा उद्घाटन किया जाना है > मंत्री जी उद्घाटन करेंगे। इस प्रकार छोटे और सरल वाक्य बनते हैं।
आज मीडिया में उसका मुख्य औजार भाषा ही उपेक्षित है। पुरानी पीढ़ी के ऐसे संपादकों की भूला-बिसरा नहीं जा सकता जो सहज-सरल-आम बोलचाल की भाषा को महत्व देते थे। नवागंतुक प्रशिक्षु पत्रकारों को उसकी ट्रेनिंग देते थे। अनुवाद का प्रशिक्षण कराया जाता था। रोज़ लाल स्याही से अखबार रंग कर लाते थे। अपनी डेस्क से नए शब्दों की सही वर्तनी की चिट संपादकीय विभाग में भेजते थे। काबिल प्रूफ रीडर होते थे। आज खुद संपादकों की भाषा पर प्रायः प्रश्नचिन्ह लगता है। संभव है कहीं प्रबंधन की अन्य वरीयताओं-विवशताओं के कारण वे भाषा की ओर ध्यान नहीं दे पातेहों। संपादकों की वह सजग पीढ़ी दुर्लभ हो गई। समय का चलन है पुरानी पीढ़ी नई को राह देकर स्वयं हट जाती है। अब प्रायः अल्पज्ञान के साथ अहंकार दिखाई देता है - 'मैं सही, मेरी भाषा सही' वाला भाव। ऐसे में राह बदलना आसान नहीं होता।
हिंदी को प्रिंट मीडिया की भाषा बने दो सौ साल होने को हैं। पिछली सदी के अंतिम दशक से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जो विविध दिशाओं में प्रचार- प्रसार हुआ है उसमें हिंदी के सामने भाषा के रूप में विविध चुनौतियाँ आई हैं और उन्हें निभाने में भी हिंदी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मीडिया की भाषा अपना स्वरूप स्थिर कर रही है जो एक निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया है। अब मीडिया को यह भी देखना है कि वे जो सामग्री आम पाठक (ग्राहक) को पहुँचा रहे हैं वह सचमुच आम भाषा में ही है - उसमें अपमिश्रण नहीं है।
(इस आलेख का कुछ अंश 14 सितंबर, '21 को अमर उजाला में प्रकाशित).###.
©सुरेश पंत
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