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लिखें सिंह, बाँचें सिंघ, सुनें सिङ्




भारत के इतिहास में सिंह उपनामधारी व्यक्तियों का बड़ा योगदान रहा है। गुरु गोबिंद सिंह जी, महाराजा रणजीत सिंह, जोरावर सिंह, सरदार भगत सिंह, ऊधम सिंह, उड़न-सिख मिल्खा सिंह और बहुत सारे सिंह भारतीय इतिहास के सितारे हैं। पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, कश्मीर, बिहार आदि के न जाने कितने सिंह सपूत ऐतिहासिक हस्ती हो चुके हैं और यह परंपरा बनी हुई है।
संस्कृत में सिंह बब्बर शेर (lion)के लिए है। ज्योतिष शास्त्र और खगोल विज्ञान में सिंह (Leo) राशिचक्र की पाचवीं राशि है। इसका चिन्ह शेर है। राशिचक्र में इसका विस्तार 120 अंश से 150 अंश तक है। सूर्य सिंह राशि का स्वामी और तत्व अग्नि। सिंह (lion) की ही तरह यह बहुत शक्तिशाली माना जाता है।

राशि नाम हो या उपनाम, सिंह की व्युत्पत्ति बड़ी रोचक है। यह शब्द 'हिंस्' (= मारना) के वर्णों को उलटकर बना है। "सिंहो वर्णविपर्ययात्। अन्तर्विपर्यये हिनस्तीति सिंह:।" (शब्दकल्पद्रुम) अर्थात् सिंह शब्द वर्ण विपर्यय (वर्ण उलट जाने) से बना; 'जो हिंसा करे, वह सिंह।'
इस नाम के साथ एक विचित्रता और भी जुड़ी हुई है। हिंदी, नेपाली, पंजाबी, मराठी, कोंकणी, गुजराती आदि में यह लिखा तो संस्कृत की ही भाँति 'सिंह' जाता है किंतु विचित्र यह है कि उच्चारण सब में 'सिंघ' किया जाता है। अंग्रेजी रोमन वर्तनी में भी हमारे उच्चारण के अनुरूप ही "Singh" लिखा जाता है। आखिर इसका कारण क्या है?

कारण जानने के लिए हिंदी-पंजाबी भाषा से भी पीछे उनके इतिहास की ओर जाना पड़ेगा। 'सिंह' देवनागरी लिपि में लिखा संस्कृत का शब्द है। संस्कृत की प्रवृत्ति के अनुसार इसका उच्चारण 'सिम्ह' होना चाहिए, जैसे संस्कृत का उच्चारण 'सम्स्कृत'। किंतु हिंदी तक आते-आते न तो संस्कृत का उच्चारण सम्स्कृत रहा, न सिंह का सिम्ह।

संस्कृत में तो यह सिंह शब्द उच्चारण के अनुसार सही था अर्थात् जैसा लिखा वैसा पढ़ा। प्राकृत में आते-आते यह दो रूपों में बदला - पहले सीह और बाद में सिंघ/सिङ्घ भी। प्राकृत वाला यह बाद का रूप वही है जो आज हिंदी-पंजाबी उच्चारण में विद्यमान है। हुआ यह है कि वर्तनी में तो हम तत्सम रूप सिंह की ओर मुड़ गए किंतु इसका संस्कृत उच्चारण (सिम्ह) कर नहीं सकते थे, इसलिए प्राकृत का उच्चारण <सिङ्घ> सुरक्षित रहा। आचार्य हेमचंद्र ने अपने "शब्दानुशासन" में सूत्र १/२९, १/३० के अनुसार सिंघ और विकल्प से सिङ्घ होना पुष्ट किया है।

सिंह से सिंघ बनने का भाषिक और ऐतिहासिक कारण तो यही है किंतु जो इस प्रक्रिया को न समझ पाएँ उनके लिए एक 'शॉर्टकट' स्पष्टीकरण भी है जो हिंदी के आँगन से होकर जाता है।
हिंदी में अनुस्वार का उच्चारण अनुस्वार के बाद आने वाले व्यंजन के उच्चारण स्थान के अनुसार निर्धारित होता है। सो  सिंह में अनुस्वार के बाद /ह्/ कंठ्य होने से अनुस्वार (ं) =>कंठ्य (ङ्)। पदांत /ह/ प्रवाही और दुर्बल होने से बदल गया सबल महाप्राण /घ/ में। अतः सिंह _> सिङ्ह _> सिंघ। उच्चारण करते हुए पदांत अकार (schwa) के लोप से सिंह > सिङ्घ भी 'सिङ्' रह जाता है, जैसे राजनाथ सिंह को कहा जाता है: "राजनाथ सिङ्"।

टिप्पणियाँ

  1. कोटिशः धन्यवाद आचार्यवर।🙏😊 अत्यंत रोचक, सारगम्भीर, विश्लेषणात्मक लेख। सारी शंकाओं का समाधान हो गय अतंतः। हरियाणवी में प्राकृत के जैसे सीह उच्चारण प्रचलित है।

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