हिंदी के बारे में या उसके विरोध में जब भी कोई
हलचल होती है तो राजनीति का मुखौटा ओढ़े रहने वाले भाषा-व्यवसायी बेनकाब होने लगते
हैं. उनकी बेचैनी समझ में तो आती है, पर हँसी इस बात पर आती है
कि संविधान का नाम बार-बार रटने और संविधान की कसम खाने के बाद भी ये गोलबंदी या
अविश्वास का माहौल बनता क्यों है. यहाँ हम केवल एक ही प्रावधान को याद करें.
संविधान के अनुच्छेद 351 में हिंदी भाषा के विकास के लिए
निदेश देते हुए स्पष्ट कहा गया है : “संघ का यह कर्तव्य होगा कि
वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह
भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी
प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट
भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात
करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः
संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित
करे।”
यही सब
देखकर हिंदी के विषय में अक्सर यह लगने लगता है जैसे संविधान के संकल्पों का
निष्कर्ष कहीं खो गया है और हम निर्माताओं के आशय से कहीं दूर भटक गए हैं। सहज ही
मन में ये प्रश्न भी उठते हैं कि हमने संविधान के सपने को साकार करने के लिए क्या
किया? क्यों
नहीं हमारे कार्यक्रम प्रभावी हुए? क्यों और कैसे अंग्रेज़ी भाषा की मानसिकता हम पर और हमारी
युवा एवं किशोर पीढ़ियों पर इतनी हावी हो चुकी है कि इसी मिटटी से जन्मी हमारी
अपनी भाषाओं की अस्मिता और भविष्य संकट में प्रतीत होता है? शिक्षा
में, व्यापार
और व्यवहार में, संसदीय, शासकीय और
न्यायिक प्रक्रियाओं में हिंदी को और प्रादेशिक भाषाओं को वर्चस्व क्यों नहीं मिल
पा रहा? वोट
माँगने के लिए, जन साधारण
तक पहुँचने के लिए आज भी इन भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है, किंतु जीत
जाने के बाद हमारे नीति-निर्माताओं के चिंतन में अभी भी भारतीय
भाषाओं के लिए अंग्रेज़ी भाषा के समकक्ष कोई स्थान नहीं है। हमारी
अंतर्राष्ट्रीयता राष्ट्रीय जड़ों से रहित होती जा रही है। जनता की भाषा में संवाद
के बिना जनता-जनार्दन से जीवंत संपर्क का अभाव हमारी अस्मिता को निष्प्रभ और खोखला
कर देगा, इसमें कोई
संशय नहीं है.
अगर
विश्व यह पूछे कि आज़ादी के सात दशक बाद भी और संविधान की व्यवस्थाओं, निदेशों के होते हुए भी हिंदी भारत की पहचान
क्यों नहीं बन पाई, भारतीय भाषाओं को उनके
अपने-अपने राज्यों में भी अंग्रेजी के समक्ष समर्पण क्यों करना पड़ता है, तो इसका कोई समुचित उत्तर हमारे पास नहीं है.
यदि कोई पूछे कि भारत में हिंदी का आंदोलन-अभियान क्यों शिथिल पड़ गया है, क्यों भारत अपने संविधान का संकल्प और सपना अब
तक साकार नहीं कर पाया, तो हम क्या उत्तर देंगे? जब तक भारत में हिंदी नहीं होगी, तब तक विश्व में हिंदी कि कल्पना कैसे की जा
सकती है? जब तक हिंदी भाषा राष्ट्रीय
संपर्क की भाषा नहीं बनती, जब तक हिंदी शिक्षा का
माध्यम एवं शोध और विज्ञान की भाषा नहीं बनती और जब तक हिंदी शासन, प्रशासन, विधि और न्यायालयों की भाषा
नहीं बनती, तब तक हम उसे विश्व भाषा
कैसे बना सकते हैं! संयुक्त राष्ट्र संघ या अन्य मंचों में एकाध वक्ता का हिंदी
में संबोधन राजनीतिक महत्व का हो सकता है किंतु इससे हिंदी का हित तबतक संभव नहीं
लगता जबतक हम अपने घर में उसे प्रतिष्ठित नहीं करते.
संपर्क
भाषा के रूप में हिंदी की शक्ति, क्षमता और सामर्थ्य
अद्वितीय है, किंतु अभी तक यह स्पष्ट
नहीं है कि उसे लेकर हमारी सोच क्या है. उसे जब-तब राजनीतिक हथियार के रूप में
क्यों उठाया जाता है! बार-बार कुछ नारे उछाले जाते हैं कि ‘हिंदी थोपी जा रही है’, ‘उत्तर भारत की सामंती प्रवृत्ति है’, ‘हिंदी साम्राज्यवाद नहीं चाहिए’ आदि. इनसे इतना तो स्पष्ट है कि हिंदी को लेकर
कुछ भ्रांत या तर्कसंगत धारणाएँ अपने ही देशवासियों के मन में हैं. तो क्यों नहीं
मिल-बैठकर उनका निराकरण किया जा सकता. हम शत्रु राष्ट्रों से समस्याओं का समाधान
बातचीत से खोज सकते हैं, अपने ही देशवासियों के साथ
मिल-बैठकर एक-दूसरे को सुन नहीं सकते, एक स्थायी समाधान तक नहीं
पहुँच सकते !
सामान्यतः
सभी भाषाओं और विशेषकर हिंदी को लेकर कुछ
प्रश्न और हैं जो मन-मस्तिष्क को अक्सर झिंझोड़ते हैं. 21-वीं
शताब्दी के ग्लोबलाइजेशन और तेज़ रफ़्तार की टेक्नोलॉजिकल प्रगति के कारण जो बदलाव आ
रहे हैं उसमे हिंदी एवं प्रांतीय भाषाओँ का स्वरुप (मानलें जैसे 50 वर्ष
बाद) क्या होगा? यह शुभ
संकेत है कि हिंदी बाज़ार-व्यवसाय की भाषा के रूप में सशक्त दावेदारी प्रस्तुत कर
रही है. विज्ञापन, विपणन की हिंदी उसके
व्यावहारिक रूपों के अधिक निकट दिखाई पड रही है, जो
उसकी ग्राह्यता और प्रचार-प्रसार दोनों के लिए अच्छा लक्षण है.
ऐसे में फिर एक प्रश्न उठता है कि सूक्ष्म
संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का प्राथमिक वाहन बनने वाली भाषा कैसी होगी? उसपर
परंपरा से चले आ रहे प्रतिमान किस सीमा तक लागू होंगे/ क्या
अभिव्यक्ति, सृजनात्मक
अभिव्यक्ति की भाषा का स्वरूप मौलिक रूप से शब्द की अपेक्षा दृश्य और ध्वनि
प्रभावों से अधिक प्रभावित होगा? ऐसे प्रश्न अभी तो बहुत प्रासंगिक प्रश्न नहीं लगते किंतु ये चुनौती
देर-सवेर हमारे सम्मुख होगी, और आज हम इन पर आधिकारिक रूप से कुछ कह पाने की स्थिति में भले ही न हों, विचार तो करना ही पड़ेगा.
अभिव्यक्ति
की भाषा का स्वरूप बदलने की मांग ही नहीं कर रहा है, बदल भी रहा है. पर यह बदलाव सायास नहीं, अपनी ही रफ़्तार से होगा. ग्लोबलाइजेशन
और तेज़ रफ़्तार की टेक्नोलॉजिकल प्रगति के कारण जो बदलाव आ रहे हैं उनके
परिणामस्वरूप हिंदी एवं प्रांतीय भाषाओँ के सामने जो ज़बरदस्त चुनौती निहित है, वह है
अस्तित्व का प्रश्न. प्रयोग में न आने से आज विश्व की हज़ारों भाषाओं पर
विलुप्त हो जाने का संकट मंडरा रहा है. तो तेजी से अंग्रेजी की ओर मुड़ने की
प्रवृत्ति हमारी अपनी भाषाओं को संकट-ग्रस्त नहीं करेगी? मैं
निराशावादी तो नहीं हूँ, पर यह
पक्ष सोचने को विवश तो करता है, आज नहीं तो कल!
भारत में भाषा के चिंतक (शुभचिंतक?) या तो
हिंदी बनाम प्रांतीय भाषा की बात करते हैं या हिंदी बनाम अंग्रेज़ी की. मेरे विचार
से दोनों ही मुद्राएँ भाषाओं का हित नहीं करेंगी. हमें कुछ उदार और समावेशी होना
पड़ेगा. सभी भारतीय भाषाएँ एक साझे दाय की वाहिका हैं और परस्पर पूरक हैं, प्रतिस्पर्धी
नहीं. सूक्ष्म संवेदनाओं की भाषा का स्वरूप हमेशा ही कुछ हटकर रहा है, और
सृजन करने वाले की रुचि और भाषिक क्षमता पर भी निर्भर करता है.
पर पता नहीं क्यों मुझे यह लगने लगा है कि संवेदनाओं की
अभिव्यक्ति के लिए शब्दार्थ वाली भाषा कभी-कभी वह प्रभाव नहीं सम्प्रेषित कर पाती
जो सर्जक/लेखक चाहता है. तब उस पंगुता को दूर करने का दायित्व रंग और दृश्य संयोजन
तो नहीं ले लेंगे? यह
प्रश्न मैं आपके लिए छोड़ता हूँ.
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