अभी बहुत कुछ है, अगर बची है होली ...
होली पर एक किस्सा याद आ रहा है | एक किसान था. खेत पर काम करते दोपहर हो गई तो पोटली खोलकर रोटी खाने लगा| साथियों ने देखा तो बोले, “सूखी रोटी खा रहे हो, नमक मिर्च ही ले लेते|”
किसान ने कहा, “इन सब के बारे में सोच लेता हूँ, तो वही स्वाद आ जाता है!”
आज होली पर्व की भी यही हालत है | बरसने को रंग नहीं, भीजने को चुनरी नहीं! इतना पानी नहीं कि रँग घोलें. सिंथेटिक गुलाल लगाने की हिम्मत नहीं पड़ती | नए हुरिहारों की पीढ़ी अब सिनेमा की होलियाँ भी नही जानती| डफ, ढोल, मजीरा कहीं संग्रहालयों में शायद मिल जाएँ | हँसने ठहाके लगाने की फुर्सत किसे है | जिन पर हँसा जा सकता है वे हँसी बर्दाश्त नहीं कर सकते | सो उनपर अब हँसने को नहीं, तरस खाने को जी करता है | अपने पर हँसी आती तो है, पर भीतर ही घुमड़ कर रह जाती है.
रसोई से आने वाली शिकायत सिर्फ यही नहीं है कि महंगाई में गुझिया-नमकीन कैसे बने, शिकायत यह भी है कि किसके लिए बने ? परिवार बिखर गए, रिश्तेदारों को फुर्सत नहीं, और मुझ जैसे सीनियर सिटीजनो को बदपरहेजी से परहेज रखना है! “फिर भी त्यौहार तो त्यौहार है, शगुन के लिए दो-चार बना लेती हूँ; तुम टोकना मत ...” ये 'क्विकफिक्स' किस्म के समाधान ही बच गए हैं |
मेरी माँ को जीवन के आखिरी दिनों तक गाँव की होली याद आती रही | भूला मैं भी नहीं हूँ, न माँ को, न होली को |जाने क्यों तब होली के दिन और दिनों से उजले लगते थे | रंग उडेलने की योजनाबद्ध षडयंत्री किस्म की शैतानियाँ पावन कर्त्तव्य लगती थीं | कितना कुछ था भीगने - भिगाने को! नीद में भी कानों में ढोल-मजीरे गूंजते और पैर स्वयं थिरकने लगते |
गाँव भी कहाँ ‘गाँव’ रहे ! बुराँस का रंग, मंजरी की गंध, माटी की छुवन, सिंङल-मौणिया-गुझिया का स्वाद ... यानी कि रूप-रस-गंध-शब्द-स्पर्श सभी का बोध बदल गया है वहाँ | ‘कच्चे तरल सोम’ की अबाध बहती रस धारा में सभी आकंठ डूबे होते हैं | रेबदा-धरका-मोहनियाँ को भी शिकायत है, ‘यार, क्या कहें, अब तो अतर-सुलफा में भी मिलावट है |'
लेकिन, मैं यह भी तो नहीं कह पाता कि अपने ही तन-मन का रूखापन पसर गया है होली में भी| अभी-अभी मेरी सात वर्षीय पोती एक पिचकारी खरीद लाई है और मुझे केदार नाथ सिंह की कविता “अकाल में दूब” याद हो आई है :
" ... हाँ-हाँ दूब है-
पहचानता हूँ मैं
लौटकर यह ख़बर देता हूँ पिता को
अँधेरे में भी दमक उठता है उनका चेहरा
'है- अभी बहुत कुछ है,
अगर बची है दूब'..."
मैं 'दूब' की जगह 'होली' शब्द रखकर पूरी कविता का मानसिक वाचन करने लगता हूँ.
रोटी पर नमक-मिर्च न सही, उनके बारे में सोचकर भी लिया जा सकता है स्वाद !
(फोटो सौजन्य गूगल सर्च)
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें