लाल स्याही
रंग हज़ारों वर्षों से हमारे जीवन में अपनी जगह बनाए हुए हैं। प्रारंभ में लोग प्राकृतिक रंगों को ही उपयोग में लाते थे। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में जो चीजें मिलीं उनमें ऐसे बर्तन और मूर्तियाँ भी थीं जिन पर रँगाई की गई थी। उनमें एक लाल रंग के कपड़े का टुकड़ा भी मिला। विशेषज्ञों के अनुसार इस पर मजीठ या मंजिष्ठा की जड़ से तैयार किया गया प्राकृतिक रंग चढ़ाया गया था। हजारों वर्षों तक मजीठ और बक्कम वृक्ष की छाल लाल रंग का मुख्य स्रोत थी। पीपल, गूलर और पाकड़ जैसे वृक्षों पर लगने वाली लाख की कृमियों की लाह से महावरी लाल रंग तैयार किया जाता था। पीला रंग और सिंदूर हल्दी से प्राप्त होता था। ऐसी बहुत सी प्राकृतिक वनस्पतियाँ थीं जो रंग बनाने के काम आती थीं।
भारतीय समाज में तो रंग ही रंग छाए हुए हैं। त्योहारों में रंग, पर्वों-संस्कारों में रंग, खुशी के रंग, शृंगार के, क्रोध के। अब समाज में रंग हैं तो भाषा में क्यों न हों। हमारे कुछ व्यवसाय भी रंग से जुड़े हैं जैसे रंगरेज़, रंगसाज़ और इधर एक नया व्यवसाय रंगदारी बन गया है, जिसमें कहा जाता है कि हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा ही चोखा।
लेकिन रंगों की बात इतनी चोखी भी नहीं है वे मुहावरों में आते हैं तो रंग जमा देते हैं। किसी के रंग-ढंग बदल जाते हैं तो कोई रंगीन मिजाज़ रंगीला हो जाता है। उनकी शामें रंगीन होती हैं, रंगरलियाँ मनाई जाती हैं और रंगीन मिजाज़ लोग नहीं चाहते कि कोई उनके रंग में भंग डाले। रंग में आना भी तो एक मुहावरा है। चाहे कोई ढंग से रंग में आए चाहे भंग से।
यों मनोरंजन शब्द भी मूलतः तो रंग से ही बनाया गया है, रंजन का अर्थ है रँगना। अब मनोरंजन के लिए रंगमंच भी जुटने लगे पर पुराने राजा-महाराजाओं की तो रंगशालाएँ ही होती थी। उनकी रंगीन तबीयत के भी क्या कहने! कहते हैं जब जवानी आती है तो रंग टपकता है किंतु ढलने पर रंग उतर भी जाता है। प्यार का रंग कुछ ऐसा जमता है की नायिका कहती है, "हमरी चुनरिया पिया की पगरिया
एक ही रंग में रंगी रे!"
अब यह मत पूछिए कि वह रंग कौन सा था।
कोई रंगे हाथों पकड़ा जाए तो उसका चटक रंग भी फीका पड़ जाता है। चमड़ी के रंग को महत्व देने वाले लोग रंगभेदी कहलाए लेकिन रंगभेद नीति से वे अनेक देशों पर शासन कर गए।
अपने आसपास देखिए सभी एक रंग के नहीं मिलेंगे कोई तो रँगे सियार होते हैं। कुछ ऐसे भी कि कभी गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं तो कभी ऐसे रँगते हैं कि कबीर की चादर की भाँति सब कुछ लाल ही लाल दिखाई देता है। आप लाल रंग देखने जाते हैं तो "मेरे लाल की लाली" आपको भी लाल कर देती है।
अब लाल रंग का हाल क्या है, यह भी देख लीजिए। वैसे मूल रंगों (प्राइमरी कलर्स) में लाल रंग बड़ा महत्वपूर्ण माना जाता है। कहते हैं कि विश्व में जो भाषाएँ शब्द भंडार की दृष्टि से बहुत पिछड़ी हुई हैं उनमें भी कम से कम लाल और काला के लिए शब्द अवश्य मिलते हैं।
लाल के लिए सुर्ख़ शब्द फ़ारसी से आया है, लेकिन इस सुर्ख़ की करामात सुर्ख़ियों के लायक है। समाचार पत्र की सुर्खियां काले रंग पर छपती हैं और सुर्खी कहलाती है। गहरे काले को आप सुर्ख काला कहते हैं जबकि उसमें सुर्खी कहीं दिखाई नहीं पड़ती!
आजकल अनेक रंगों की कलमें होती हैं। उनमें "लाल स्याही" का पेन नाम पर गौर कीजिए। स्याही बना स्याह से और स्याह का अर्थ है काला। अब भाई, यह लाल स्याही किस रंग की होती है? लाल या स्याह?
इस रंग चर्चा से आप किसी राजनीतिक रंग से मेरी पहचान मत जोड़ दीजिए।
कोई रंगे हाथों पकड़ा जाए तो उसका चटक रंग भी फीका पड़ जाता है। चमड़ी के रंग को महत्व देने वाले लोग रंगभेदी कहलाए लेकिन रंगभेद नीति से वे अनेक देशों पर शासन कर गए।
अपने आसपास देखिए सभी एक रंग के नहीं मिलेंगे कोई तो रँगे सियार होते हैं। कुछ ऐसे भी कि कभी गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं तो कभी ऐसे रँगते हैं कि कबीर की चादर की भाँति सब कुछ लाल ही लाल दिखाई देता है। आप लाल रंग देखने जाते हैं तो "मेरे लाल की लाली" आपको भी लाल कर देती है।
अब लाल रंग का हाल क्या है, यह भी देख लीजिए। वैसे मूल रंगों (प्राइमरी कलर्स) में लाल रंग बड़ा महत्वपूर्ण माना जाता है। कहते हैं कि विश्व में जो भाषाएँ शब्द भंडार की दृष्टि से बहुत पिछड़ी हुई हैं उनमें भी कम से कम लाल और काला के लिए शब्द अवश्य मिलते हैं।
लाल के लिए सुर्ख़ शब्द फ़ारसी से आया है, लेकिन इस सुर्ख़ की करामात सुर्ख़ियों के लायक है। समाचार पत्र की सुर्खियां काले रंग पर छपती हैं और सुर्खी कहलाती है। गहरे काले को आप सुर्ख काला कहते हैं जबकि उसमें सुर्खी कहीं दिखाई नहीं पड़ती!
आजकल अनेक रंगों की कलमें होती हैं। उनमें "लाल स्याही" का पेन नाम पर गौर कीजिए। स्याही बना स्याह से और स्याह का अर्थ है काला। अब भाई, यह लाल स्याही किस रंग की होती है? लाल या स्याह?
इस रंग चर्चा से आप किसी राजनीतिक रंग से मेरी पहचान मत जोड़ दीजिए।
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