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रंग चर्चा : दो




फागुन के बहाने रंग चर्चा 

फागुन की दस्तक सुनने के लिए कान नहीं, मन चाहिए |
फागुन ही तो वह महीना है जो हमें रंगों की सुध दिलाता है और बाहर-भीतर से रंगकर हम सतरंगी सपनों में खो जाते हैं |
रंग शब्द का मूल अर्थ ही है लाल रंग या लाल रंग से रंगना. इस लाल रंग में बहुत कुछ है. लाल है तो यौवन है, राग है, लगाव है, नशा है, काम है, क्रोध है, शौर्य है, पराक्रम है और ... और भी बहुत कुछ है... बस रंग ही रंग है. टेसू को वसंत के आगमन का सूचक इसीलिए माना गया होगा कि इसके लाल रंग में कितने संकेत हैं, कितनी व्यंजनाएं हैं. टेसू केवल लाली ही नहीं बिखेरता, टेसू के खिलने पर चारों ओर अपने आप ही लाली, काम, प्रसन्नता, मदमस्ती, रंगीनी भी बिखर जाती है. टेसू फूले तो होली आती है और होली गई तो टेसू की चमक भी धीरे-धीरे मद्धिम होने लगती है. 
यौवन का रंग भी लाल माना गया है. बड़े-बूढ़े कहते हैं, जब आँखों में लाली आती है तो समझो जवानी दरवाजे पर खड़ी है. कादम्बरी में बाण भट्ट ने कहा है, “युवाओं की दृष्टि अपनी धवलता का त्याग न भी करे, तो भी “रागमय” तो होती ही है.” यहाँ वे राग को अनेक अर्थों में ले रहे हैं – लाली, अनुरक्ति, प्यार, लगाव, काम, और भी बहुत कुछ जो युवा मन से जुड़ा होता है.
वस्तुतः रंग शब्द को संस्कृत की “रंज्” धातु से उपजा माना गया है. इस रंज् से संस्कृत में बीसियों अर्थ और अर्थ छबियाँ हैं. रंज् से ही बनता है राग. राग में भी मूल अर्थ (लाल) सुरक्षित है. यह राग एक ओर आलता, महावर में है तो दूसरी ओर युवा आँखों की ललछोंह की ओर भी स्पष्ट संकेत करता है. दृष्टिराग, चक्षुराग, प्रणयोन्माद .. सब इस राग के ही अर्थ हैं जिनके साथ काम भी जुड़ा है. अब राग के साथ अनुरक्ति और काम भाव होगा तो क्रोध कैसे दूर रहेगा! सो क्रोध, क्लेश और द्वेष भी राग के अर्थों में सम्मिलित हैं. इनसे  मुक्ति के लिए आप विराग, वैराग्य की कामना करने लगते हैं, किंतु राग तो इन शब्दों से भी जुड़ा ही रहता है. 
अब रंगों की बात आई तो कुछ और रंगों की रंगत भी ढूँढी जाए. सच तो यह है कि रंग खोजने की आदत ऐसी पड़ जाती है कि हम कुछ ऐसी वस्तुओं में भी रंग ढूँढने लग जाते हैं जहाँ वे होते ही नहीं. जैसे सफ़ेद रंगहीन है, तभी तो सफ़ेद है. पर हम कहते हैं सफ़ेद रंग की कमीज पहनी है. सफ़ेद रंग की चुनरी लेकर रंगरेज के पास पहुँच जाते हैं कि उसे रंग दे. रंगों के सफरनामे में यह बात दिलचस्प है कि संस्कृत का रंग फारस होता हुआ अपने रंग-शब्दों के साथ भारत लौटा तो हमारे शब्दकोश में अनेक नए शब्द आ जुड़े. रंगत, रंगरेज, रंगसाज, रंगबाज, रंगदारी, रंगीन, रंगरलियाँ जैसे शब्द फारसी चासनी में डूबकर लौटे हैं.
यदि राग और रंग दोनों मिल जाएँ तो उस आनंद की कल्पना करना भी सरल नहीं. फागुन में, विशेषकर होली में, राग-रंग दोंनों ही शिखर पर होते हैं. ब्रजमंडल में कान्हां और गोपियों का राग-रंग कोई कैसे भूल सकता है. राग-रंग का यह अमूर्त आनंद जब रंगों के बादलों के साथ उड़ता है, बादलों से रंगीन फुहारें बनकर बरसने लगता है तो सर्वथा मूर्त और चाक्षुष होता है. रंग बरसे तो चुनर वालियां ही नहीं भीगतीं, और भी डूबते-उतराते हैं. फगुनहट थामे नहीं थमती और उडाए लिए जाती है सबको. रंगों में सराबोर मदमाते हुरिहार ब्रजमंडल तक ही नहीं थमते, गाँव-गाँव, गली-गली में राग-रंग बांटते फिरते हैं. यह कथित लोकपर्व सारे लोक का पर्व बन जाता है. इसमें राग-वंश का एक और शब्द जुड जाता है- गीत संगीत वाला राग. छहों राग अपने-अपने उपरागों, अपनी-अपनी रागिनियों और वंशधरों के साथ अवतरित होते हैं राग-रंग के समागमों, महफ़िलों में; किंतु मस्त फागुन को इससे तृप्ति नहीं होती और जा बैठता है लोकरागों और रागियों की टोलियों के साथ. नायिकाएं कहती रह जाती हैं, “मलत-मलत नैना लाल भए, किन डारो आँखिन में गगुलाल..” हठी जब नहीं मानता तो उन्हें स्वयं सामना करनेका तरीका भी पता है, 
छीन पितंबर कम्मर तें, सु बिदा दई मोड़ि कपोलन रोरी । 
नैन नचाइ, कह्यौ मुसक्याइलला ! फिरि आइयो खेलन होरी 
फागुन और होली के इस जोड्नेवाले रंग-बिरंगे माहौल में रंग शब्द से बने कुछ और शब्द भी मुखिया रहे हैं. जैसे रंजन, अनुरंजन, मनोरंजन, आत्मरंजन, विरंजन. इनसे -क प्रत्यय जोड़ने पर कर्ता भाव आ जाता है, जैसे रंजक (रंगने वाले पदार्थ, रंगसाज, रंगरेज), मनोरंजक, विरंजक (रंग छुड़ाने वाला, ब्लीच) आदि. और तो और, हिंदी व्याकरण में भी रंजक क्रिया का बड़ा महत्व है. जिस मुख्य क्रिया के साथ आती है उसे ऐसा रंग देती है कि और-का-और अर्थ देखकर आश्चर्य होता है. ऐसा करने में रंजक क्रिया अपना कोशीय अर्थ तक खो देती है. समर्पण हो तो ऐसा. शायद इसीलिए रंजक का एक अर्थ भक्त भी होता है. बेचारा रात-दिन आपने आराध्य के रंजन, अनुरंजन-मनोरंजन में लगा रहता है. रंजनी एक अन्य शब्द है जो कपडे रंगने वाले नील के साथ-साथ मेंहदी, मजीठी, हल्दी का नाम भी है. रंजन-मनोरंजन से जोड़ने वाले और रंग से बने शब्द रंगमंच के बिना तो कोई भी रंग चर्चा अधूरी रहेगी. इस शाखा में रंग शाळा, रंग भूमि, रंग महल, रंग कर्मी अन्य शब्द हैं.
जब आप कहते हैं कि अमुक बड़ा रंगीन आदमी है, तो आवश्यक नहीं कि उसे रंगों से विशेष प्रेम हो वह तो बस रंगीन तबीयत का होता है. हो सकता है उसकी शामें रंगीन होती हों या वह कहीं रंगरलियाँ भी मनाता हो. रंग में आने के लिए कुछ लोगों के लिए कोई गीत, कविता या अवसर-विशेष पर्याप्त होता है, कुछ भांग पीकर रंग में आते हैं, तो कुछ “कुछ और” पीकर. रंग में भंग करने वाले भी अवसर की तलाश में होते हैं, रंग बिगाड़ कर ही दम लेते हैं. रंगों का व्यवसाय करनेवाले भी न रंगदार होना चाहते हैं, न रंगदारी के चक्कर में पड़ना जब कि कहते हैं एक नया चोखा व्यवसाय पनपा है रंगदारी वसूलना जिसमें हर्र लगे न फिटकरी, मगर रंग चोखा आता है. रंगे सियारों को पहचानना कौन सा आसान है, वे अच्छे रंग-रूप में भी हो सकते हैं. लेकिन एक बात पक्की है, जब कोई रंगे हाथों पकड़ा जाता है तो उसका तो रंग ही उड़ जाता है. चेहरे की रंगत बिगड़ जाती है. एक रंग आता है, एक रंग जाता है. 
अब हमारा यह पूछना भी कुछ बदरंग माना जाएगा कि रंगों के पर्व में आपके रंग कैसे रहे!


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