जब कभी मेरे कुछ मित्र कुमाउँनी के लिए मानक लिपि बनाने की बात करते हैं तो मैं असहमति व्यक्त करता हूँ और मेरे ऐसा करने में उन्हें बुरा लगता है। मैं प्रायः यह कहता रहा हूँ कि यदि उत्तराखंडी भाषाओं को विलुप्त होने से बचाना चाहते हैं तो कम से कम इन दो कामों से शुरूआत कीजिए। यह हुआ तो भाषाएँ जिएँगी, वरना तो भविष्य डरावना है ही।
1. अपने घरों में, परस्पर व्यवहार में अपनी भाषा का प्रयोग कीजिए ।
2. प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय में, पब्लिक हो या सरकारी, शिक्षा का माध्यम अपनी भाषा को बनवाइए और उसे किसी न किसी रूप में, किसी न किसी प्रकार रोज़गार से जोड़िए।
मानकीकरण की बात भी तभी उठती है जब भाषा का मौखिक और लिखित रूप में पर्याप्त प्रयोग हो रहा हो। बच्चा जिएगा, बड़ा होगा तो डिज़ाइनर सूट पहन लेगा। इसी प्रकार कुमाऊँनी भाषा को अभी लोगों को बोलने-लिखने दीजिए। वह जीवित रहेगी, उसका प्रवाह होगा तो कूल - किनारे स्वतः तय होते जाएँगे ।
ऊपर उल्लिखित सुझावों में पहला तो शायद इसलिए गले न उतरा हो कि जिस प्रकार हिंदी भाषी के लिए अंग्रेजी में बोलना संभ्रांतता का लक्षण है, उसी प्रकार कुमाउँनी भाषी के लिए हिंदी में बोलना। कौन पिछड़ी बोली बोले और अपने बच्चों को भी बोलना सिखाए।
दूसरे सुझाव का संबंध क्योंकि सरकार के साथ भी जुड़ता है और सरकार को इसमें लीपापोती कर तुष्टीकरण और वोट वसूली की संभावना भी दिखती है, इसलिए बराए नाम कहीं-कहीं सरकारी विद्यालयों में कुमाउँनी, गढ़वाली को शिक्षा में स्थान दिया गया। इससे आगे कुछ नहीं।
यह सब होते हुए भी यह देखकर प्रसन्नता होती है कि अब अनेक उत्साही और सृजनशील लोग कुमाउँनी में विविध साहित्य लिख रहे हैं और स्तरीय लिख रहे हैं। कुछ पत्रिकाएँ निकल रही हैं । विविध मंचों से विविध कार्यक्रम भी प्रस्तुत होते रहते हैं। इसलिए अब कोई भिन्न लिपि निर्धारित करने की नहीं, नागरी लिपि में ही कुमाउँनी की कुछ विशिष्ट ध्वनियों के लिए संकेत निर्धारित करने की बात उठाई जा सकती है।
कुमाउँनी ध्वनियों की एक महत्वपूर्ण विशेषता है हिंदी की अपेक्षा कुछ स्वनिमों का अधिक होना। देवनागरी लिपि में कुमाउँनी की इन अतिरिक्त ध्वनियों के लेखन में एक हास्यास्पद बात यह दिखाई पड़ती है कि हृस्व /आ/ या /ओ/ के लिए स्वर के नीचे हलंत का चिह्न (्) लगा दिया जाता है। यह अवैज्ञानिक है और नागरी लिपि के नियमों को न जानने का परिणाम है। 'हल्' का अर्थ है व्यंजन। हल् चिह्न व्यंजन के साथ लगता है और यह प्रदर्शित करने के लिए लगाया जाता है कि उस व्यंजन में स्वर नहीं है। स्वर को हलंत करने वालों को सोचना चाहिए कि वे कहना क्या चाहते हैं।
अधिक विस्तार में न जाकर यहाँ हमें यह देखना है की नागरी लिपि किन कुमाउँनी ध्वनियों के लिए अपर्याप्त लगती है।
1. जहाँ तक पदांत अ का प्रश्न है, हिंदी में अधिकतर अकारांत शब्द लेखन में तो अकारांत हैं , उच्चारण में हलंत। इसे भाषा विज्ञान में पदांत अ का लोप (schwa deletion) कहा जाता है। हिंदी में बिना हल् चिह्न लगाए भी हम उन्हें हलंत ही पढ़ते हैं। राम या कमल को हिंदी, उर्दू या किसी भी बोली/ उपभाषा में राम्, कमल् ही पढ़ा जाएगा। संस्कृत में राम, कमल को अकार सहित राम, कमल पढ़ा जाना चाहिए किंतु आज हिंदी ने संस्कृत उच्चारण को भी दबोच लिया है और अच्छे-अच्छे संस्कृतज्ञ राम् , कमल् कहते सुने जाते हैं। तो कुमाउँनी में लुप्त पदांत अकार के लिए अलग से हलंत करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
2. अब मुख्य रूप से दो स्वर ध्वनियाँ बचती हैं- हृस्व आ और हृस्व ओ; जो अर्थ भेदक भी हैं । स्वर को हृस्व करने के लिए उसे रेखांकित किया जा सकता है किंतु यह टाइप करते हुए कठिन है, विशेषकर आज जब कि मोबाइल सबसे अधिक प्रचलित उपकरण है। इसके लिए निम्नांकित चिह्न उपयोगी है जो मोबाइल पर गूगल ( Gboard) या क्वेर्टी की-बोर्ड में उपलब्ध है:
स्वर लाघव - ॶ > ॖ => आम, आॖॖॖम; खाल, खाॖॖल।
ओट, ओॖटण;
खोट, खोॖॖट;
मोल, मोॖल।
(यह संकेत कश्मीरी की भाँति है और केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा परिवर्धित देवनागरी में स्वीकृत है, यूनीकोड, 0956-7)
2. पदांत अकार - ऽ (प्लुत संकेत) यह संकेत भी सरलता से उपलब्ध है।
कौतिक जै रौछऽ पधान ?
3. स्पर्श संघर्षी निराघाती रेफ (बरौनी रकार)-
यह संकेत उन फॉन्टों में उपलब्ध नहीं है जिनका उपयोग हिंदी देवनागरी के लिए किया जा रहा है किंतु मराठी नेपाली की देवनागरी में उपलब्ध है। इसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
ऱ् > ऱ्व => ऱ्वट, हऱ्याॖॖव, चऱ्यो, ऱ्याॖख।
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