संस्कृत √लुच् (देखना) से बना है लोक, जो देखने का विषय है। इसी से लोचन, लोकन, अवलोकन, आलोक आदि शब्द बनते हैं। पुराणों में तीन, सात या चौदह लोक गिनाए गए हैं जिनमें से एक भूलोक है हमारा दृष्टिगोचर लोक। भाषा में व्यापक रूप से प्रयुक्त जो लोक है उसका अर्थ है जन सामान्य, प्रजा, लोग, जन समुदाय। इस लोक से जो शब्द बने हैं उनमें प्रमुख हैं लौकिक, अलौकिक, लोकाचार, लोक गीत, लोक कथा, लोक संग्रह, लोकापवाद, लोकप्रिय, लोकोत्तर और ऐसे ही अनेक।
किसी देश समाज या उसके निवासियों, उनकी जीवन पद्धति और उनके शासन प्रणाली के संदर्भ में लोक से बने तीन शब्द बहुत महत्वपूर्ण हैं- लोकमत (जनसाधारण का मत या विचार), लोकसभा (लोकमत से चुने गए जन प्रतिनिधियों की सभा) और लोकतंत्र (आमजन अर्थात् लोक की सहमति से लोक के लिए अपनाई गई शासन व्यवस्था), जिसे जनतंत्र या प्रजातंत्र भी कहा गया है। विश्व के अनेक सजग और प्रगतिशील देशों ने राजतंत्र या एकतंत्र के स्थान पर लोकतंत्रात्मक प्रणाली को इसीलिए अपनाया है कि वहाँ लोकमत को महत्व दिया जाता है।
वस्तुतः लोकतंत्र एक जीवन प्रणाली है। भारतीय परंपरा में महाभारत, अन्य पुराणों, शाकुन्तलम् आदि में 'लोकतंत्र' को कुछ इस प्रकार संकेतित किया गया है: -सर्वप्रजाधिपत्यं, सर्ववर्णप्रभुत्वं, प्रजापालितं राज्यं यत्र साधारण्येन सर्वलोकेषु न्यस्तो राज्यभारः।
अर्थात् ऐसी राज्य प्रणाली जहाँ सारी प्रजा अधिपति है, समाज के सभी वर्णों का प्रभुत्व है और जिस राज्य को प्रजा द्वारा प्रजा के लिए पालित किया जाता है और राज्यभार साधारणतः सब लोगों पर होता है।
भवभूति तो इस तंत्र को सबसे सुंदर और अर्थ गर्भित नाम देते हैं 'लोकाराधनम्', अर्थात लोक का आराधन, लोक को प्रसन्न रखना। लोकाराधन दो शब्दों से बना है- लोक और आराधन। आराधन की व्युत्पत्ति इस प्रकार है: [आ (उपसर्ग + √राध् (सिद्ध करना, प्रसन्न करना, सेवा करना) + न (ल्युट् प्रत्यय)]। लोकाराधन कोई सरल-सामान्य कार्य नहीं है, किंतु भवभूति के उत्तररामचरितम् के नायक राम भी कहाँ सामान्य हैं, वे स्वयं इसका उदाहरण प्रस्तुत करते हैं --
"स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि |
आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो नास्ति मे व्यथा॥"
लोक की आराधना के लिए मुझे अपने स्नेह, दया, सौख्य और यहाँ तक कि जानकी का परित्याग करने में भी कोई व्यथा नहीं होगी|
यह सब राम ने स्वयं जिया, भोगा और अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार कर दिखाया - लोकाराधन के लिए, लोक को प्रसन्न करने के लिए जो लोकतंत्र का सबसे प्रमुख कार्य है |
संस्कृत में 'राध्' धातु का अर्थ है- मनाना, प्रसन्न करना। राधा जी भी इसीलिए तो राधा हैं कि वे कृष्ण को प्रश्न करना और मनाना जानती हैं। लोकाराधन का अर्थ भी यही होगा - प्रजा को पूरी तरह राजी रखना, पूर्णतः प्रसन्न करना।
आराधन के संदर्भ में ही भर्तृहरि कहते हैं -
"परेषां चेतांसि प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा।"
दूसरों के मन को अनेक प्रकार से प्रसन्न रखकर...!
अब लोकतंत्र या लोकाराधन से जुड़े एक लोकोत्तर धर्म की बात, जिसे राजधर्म कहा गया है। लोकाराधन ही वस्तुतः राजधर्म भी है | राजधर्म का उल्लेख महाभारत में विस्तार से हुआ है | मनुस्मृति, अनेक पुराणों, कथाओं, रघुवंश आदि काव्यों में यह शब्द सैकड़ों बार आया है और लोकाराधक राजा को प्रजापालन तत्पर भी कहा गया है |कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजधर्म की चर्चा इस प्रकार है--
प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्।
नात्मप्रियं प्रियं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं प्रियम्॥
" प्रजा के सुख में ही राजा का अपना सुख है और प्रजा के हित में अपना हित | अपना प्रिय उसे प्रिय नहीं होता, वही प्रिय होता है जो प्रजा को, लोक को प्रिय है |"
सूरदास की गोपिका तक यह समझती है और व्यंग्य करने से नहीं चूकती,
"हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
राजधर्म तो इहै 'सूर' जहँ प्रजा न जाहिं सताए।"
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