बागपत, बड़ौत, मेरठ, सहारनपुर (उप्र) और इनसे जुड़े हरयाणा के क्षेत्रों में कुछ लोगों में कंगे/किंगे (किधर,कहाँ), उङ्गे (उधर, वहाँ), इंगे (इधर, यहाँ) शब्द सुने जाते हैं जो तमिळ के एंगे, इंगे, उङ्गे के समान ही लगते हैं, रचना और अर्थ दोनों में।
हिंदी की बोलियों और कुछ पड़ोसी भाषाओं में इन स्थानवाची क्रियाविशेषणों के लिए अलग अलग शब्द हैं। जैसे :
गढ़वाली.. कख, यख, उख;
कुमाउँनी में काँ, याँ, वाँ; कथां, यथाँ, उथाँ;
ब्रज में कितै, इतै, उतै;
मालवी में कईं, यईं, उईं;
बघेली में किंठे, इण्ठे, उण्ठे
पंजाबी में कित्थे, इत्थे, उत्थे
नेपाली में कहाँ, यहाँ, त्यहाँ आदि।
यह बहुत रोचक है। सतही तौर पर ये प्राकृत > संस्कृत से निष्पन्न जान पड़ते हैं
जो संभवतःमागधी भाषाओं के प्रभाव से आए होंगे। जैसे भोजपुरी में इधर को 'एने' और उधर को 'ओने' कहा जाता है। बांग्ला और ओड़िया में भी मिलते-जुलते रूप हैं। कुल मिलाकर ये बहुत प्राचीन रूप हैं मागधी आदि को पुनः प्राकृत > संस्कृत से जोड़ा जाएगा।
किंतु फिर वही बात कि प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश में कहाँ से? संस्कृत में किम, इदम्, तद् सर्वनामों से त्रल् प्रत्यय मान लिया गया है परंतु भाषा विकास में त्रल् का ङ्गे में रूप परिवर्तन "द्रविड़ प्राणायाम" सा लगता है।
यहीं मेरा ध्यान द्रविड़ मूल की ओर जाता है। तो क्या इन्हें पुरा-द्रविड़ (प्रोटो द्रविडियन) मूल के अवशेष माना जाए? मुझे इन सब रूपों के मूल में "उत्तरी द्रविड़ भाषाओं" का योगदान प्रतीत होता है। अभी तक यह माना जाता है कि आर्य भाषाओं से पहले यहाँ द्रविड़ और आग्नेय परिवार की भाषाएँ थीं। आज द्रविड़ परिवार की भाषाएँ प्रायः दक्षिण भारत में ही बोली जाती हैं किंतु कुछ उत्तरी भारत में भी कुछ विद्यमान हैं।
यह विषय बहुत रोचक है। विद्वान मित्र अपने विचार देकर मेरी समझ बढ़ाएँ।
श्रीमान,
जवाब देंहटाएंकृप्या, इस लेख में प्राकृत एवं संस्कृत के बीच में उपयोग किए चिन्ह '>' का मतलब बताएं।
धन्यवाद।