'ईदगाह' कहानी सन 1933 में प्रकाशित हुई थी, आज से लगभग 100 साल पहले। तब की भाषा आज बहुत बदल गई और अनेक शब्द समझना कठिन हो गया है। प्रेमचंद की भाषा की मुख्य पहचान है कि वे बहुत से ऐसे शब्दों का उपयोग करते हैं जो तब गाँव देहात के या आम बोलचाल के रहे होंगे। अरबी-फ़ारसी मूल के उर्दू शैली के शब्द और कुछ ऐसे भी जो आज चलन से बिल्कुल बाहर हैं।
कथा नायक हामिद तीन पैसे में दादी के लिए दस्त-पनाह (चिमटा) खरीदने के बाद उसके समर्थन में ऐसे-ऐसे तर्क देता है कि उसके साथी निरुत्तर हो जाते हैं। जब वह कहता है, "वकील साहब कुर्सी पर बैठेंगे तो जाकर उन्हें ज़मीन पर पटक देगा और सारा क़ानून उनके पेट में डाल देगा”, तो कहानी लेखक टिप्पणी करता है: "बिल्कुल बेतुकी-सी बात थी लेकिन कानून को पेट में डालने वाली बात ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गए, मानो कोई धेलचा कनकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज़ है। उसको पेट के अंदर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द है।"
पतंग के लिए कनकौवा शब्द आज बहुत कम प्रचलित है और धेलचा कनकौवा कोई नहीं समझ पाता। यों ईदगाह कहानी के संपादित संस्करण इतने आ चुके हैं कि प्रायः ऐसे शब्दों को हटा दिया गया है जिनमें कहानी की आत्मा बसती है या जो कहानी के परिवेश को समझने में सहायक होते हैं। 'धेलचा' शब्द भी समझ में नहीं आता और लोग अपने-अपने ढंग से इस अबूझ को बूझने का प्रयास करते हैं!
वस्तुत: पुरानी मुद्रा प्रणाली (रुपया , आना, पैसा, धेला, पाई) में ताँबे का आधे पुराने पैसे के बराबर का सिक्का अधेला/धेला कहा जाता था। धेले की क्षुद्रता दिखाने के लिए उसमें हीनार्थक चा प्रत्यय भी जोड़ दिया तो बना धेलचा। आज भी लाक्षणिक अर्थ में मुहावरों में धेला जीवित है। जैसे धेले भर का (साधारण, नगण्य)।
अब दूसरा पेंच है "गंडेवाला कनकौआ" में यह गंडा क्या है? लोक में गिनती की कुछ विशिष्ट पद्धतियाँ रही हैं; जैसे चार-चार के संग्रह (ढेर) को आज भी चौकी/चौक्का कहा जाता है। इसी प्रकार गंडा [संस्कृत गण्डक, आप्टे के अनुसार चार-चार के समूह में गिनने की पद्धति] पैसे आदि के गिनने में चार-चार की संख्या का समूह, चार का ढेर गंडा कहा जाता था। जैसे— चार गंडे पैसे (=16 पैसे)।
तो धेलचा कनकौआ तो हो गया आधे पैसे का अर्थात नगण्य; और गंडे वाला अर्थात मूल्यवान, धेलचा से कम से कम आठ गुना मूल्य का। किसी गरीब का मामूली सा कनकौआ तो अमीर के कीमती कनकौए के सामने टिकना ही नहीं चाहिए।
गरीब घर का हामिद अपने अमीर साथियों को चुप करने के लिए यह अनोखा तर्क ढूँढ़ निकालता है। प्रेमचंद कहते हैं धेले भर की पतंग ने एक कीमती पतंग को काट गिराया।
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