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हिंदी की बिंदी





हिंदी की बिंदी और गांधी

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 हिंदी में बिंदी औऱ चाँद बिंदी की महिमा न्यारी रही है! दोनों ही किसी अक्षर के माथे पर बिराजकर उसकी शोभा बढ़ाती हैं लेकिन एक दूसरे के क्षेत्र में घुसपैठ भी बहुत करती हैं। मीडिया में तो चाँदबिंदी का प्रयोग प्रायः नहीं होता। समझ सकते हैं कि पत्रकार समदर्शिता का कर्तव्य निभा रहे हैं। वे दोनों के लिए एक बिंदी अपनाकर हमारी समझ पर भी पूर्ण विश्वास जता रहे हैं कि हम खुद समझें कि शब्द और उसका उच्चारण क्या होगा।


व्याकरण वाले आदर्शवादी यह घालमेल सहन नहीं कर पाते। कहते हैं इन दोनों का कुल, गोत्र, रिश्तेदारियाँ अलग-अलग हैं तो इन्हें एक ही सूत्र में कैसे बाँधा जा सकता है।एक ओर यह चाँदबिंदी अनुनासिक है, स्वरों की विशेषता है तो दूसरा है अनुस्वार यानी खानदानी व्यंजन। अब तो मानक हिंदी वर्तनी ने इसके सरकारी अधिकार बढ़ा दिए हैं। पूरे पाँच व्यंजनों के लिए इसी रूप को मान लिया गया है ! इनका एक तर्क यह भी है कि हिंदी सीखने वाले को भी असुविधा होगी। लिपि चिह्न एक हो गया तो दोनों का अंतर वह सीखेगा समझेगा कैसे! यहाँ यह याद रखना होगा कि हिंदी हम हिंदी भाषियों के लिए कठिन न सही, परंतु जो अन्य भाषा भाषी देश-विदेश में हिंदी सीख रहे है, उनके लिए पाँच ध्वनियों का एक संकेत समझना आसान है।



हिंदी में मानक वर्तनी के समर्थक भी बवाल मचा देते हैं। मानक नियमानुसार पांचों पंचम वर्णो को अनुस्वार की बिंदी से लिखना सुझाया गया है। उच्चारण अलग वर्तनी नियम एक। संस्कृत में यह नियम नहीं चल सकता तो उसे छूट देदी। संस्कृत की सूक्ति हिंदी में आए तो भी छूट। परिणाम ये कि छूटों वाले बंधन से ही लोग छुट्टी कर रहे हैं! लेखक , पत्रकार, प्रकाशक सब। एक ही उदाहरण लें।मानक वर्तनी के अनुसार हिंदी मानक है, हिन्दी नहीं! हिंदी के माथे पर बिंदी! हिन्दी लिखें तो बिंदी गायब! सीधा सवाल उपजता है.. कि हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान की बात आधे 'न' से हो या शोभा बढ़ाने वाली बिंदी से? कुछ लोग तो ऐसी हिंदी को पहचानने से ही इनकार कर देते हैं। बिंदी नहीं, तो हिंदी नही!


दूसरी ओर व्यवहारवादी एक सीधी-सी दो टूक बात भी करते हैं ... "भाई, भाषा एक आदत भी तो होती है। आखिर अंग्रेजी पढ़ते हुए कभी 'कट' को 'कुट' या 'पुट' को 'पट' कहा जाता है ? आदत हो जाएगी तो उच्चारण अशुद्ध होगा ही नहीं।" ये लोग हमें भी प्रैक्टिकल आइडियोलॉजिस्ट  लगते हैं।


हमारे देश में एक परंपरा सी है। कोई विवाद हो और उसमें गांधी जी को न घसीटा जाए ऐसा कम ही देखा जाता है। तो बिंदी चाँदबिंदी के झगड़े में बापू को बिना उनकी मर्ज़ी के शामिल कर लिया जाता है और सीधे सवाल किया जाता है कि गाँधी लिखना ठीक है या गांधी? देखते ही देखते एक धड़ा गांधीवादी बन जाता है और दूसरा गाँधीवादी।


गाँधीवादी दावा करते हैं कि हिंदी तो जैसी बोली जाती है वैसी लिखी जाती है।इसलिए अनुनासिक से लिखेंगे "गाँधी"। गांधी लिखने पर तो उसे गान्धी पढ़ा बोला जाएगा जबकि वे हैं गाँधी! गांधी जी को गान्धी कैसे बनाया जा सकता है!


प्रतिपक्ष यानी गांधीवादी क़ानूनी परामर्श ले कर आए हैं। उनका तर्क है गांधी आपके ही नहीं, सबके हैं। दरअसल गांधी तो किसी व्यक्ति विशेष का नाम है और वह विशेष व्यक्ति अपना नाम सदा अनुस्वार की बिंदी से "मो.क. गांधी" ही लिखा करते थे। तो जब बापू स्वयं 'गांधी' ही लिखते रहे तो हम 'गाँधी' क्यों लिखें! किसी का नाम बिगाड़ने या बदलने का अधिकार हमें मिला कैसे? कानून के जानकार बताते हैं कि किसी का नाम उसकी व्यक्तिगत संपत्ति होता है, वह जैसे चाहे उसे बरते। कानूनी नुक्ता आ जाने से गाँधीवादी चुप लगा जाते हैं और फैसला गांधी के पक्ष में। सो लिखिए गांधी और पढ़िए गाँधी! यह स्थिति लिखे मूसा पढ़े खुदा से तो अच्छी ही है!


#जनसत्ता "रविवारी" में प्रकाशित

टिप्पणियाँ

  1. चंपा, चंदा, चंचल ....हिंदी की बिंदी हर रंग में चमकती है! धन्यवाद सर आपसे हर बार कुछ जरूरी और नया मिल ही जाता है।
    सब्य साचिन

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद अनुभूति।
      इसी ब्लॉग के नाम पर एक यूट्यूब चैनल प्रारंभ किया है। उससे जुड़कर अपनी सम्मति देती रहिए।
      https://youtu.be/0ZOomebvGqo

      हटाएं
    2. आपके साथ हमेशा जुड़े रहते हैं, भला ज्ञान को कौन खोना चाहेगा।
      गुरुदेव प्रणाम।

      हटाएं
  2. अं कि बिंदी वाले कौन से शब्द है

    जवाब देंहटाएं

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