पहले अपने नाम को एक पहेली-सा बनाकर प्रस्तुत करना भी विद्वत्ता का परिचायक माना जाता था. लोकरत्न पन्त ‘गुमानी’ (१७९१ – १८४६) हिंदी, कुमाईं और संस्कृत के सुविज्ञ कवि थे. कुछ विद्वान उन्हें नेपाली का भी प्रथम कवि मानते हैं, यद्यपि नेपाली की अधिक रचनाएँ प्राप्त नहीं हैं. गुमानी जी ने संस्कृत में ही सब से अधिक लिखा है.
कहा जाता है कि वे एक बार अपने समकालीन टिहरी-नरेश “श्री ५, सुदर्शन शाह महाराज” की राजसभा में पहुँच गए. प्रत्येक राजा के दरबार में विद्वानों की एक मंडली होती थी, जो प्रायः नवागंतुक को नीचा दिखाने के प्रयास में रहती थी. सो एक सभा-पंडित ने गुमानी जी से उनका नाम पूछा. कहा जाता है कि उत्तर में गुमानी जी ने यह श्लोक सुनाया :
कोर्मध्यमो (ग्) हृस्व तृतीयकेन (उ)
कहा जाता है कि वे एक बार अपने समकालीन टिहरी-नरेश “श्री ५, सुदर्शन शाह महाराज” की राजसभा में पहुँच गए. प्रत्येक राजा के दरबार में विद्वानों की एक मंडली होती थी, जो प्रायः नवागंतुक को नीचा दिखाने के प्रयास में रहती थी. सो एक सभा-पंडित ने गुमानी जी से उनका नाम पूछा. कहा जाता है कि उत्तर में गुमानी जी ने यह श्लोक सुनाया :
कोर्मध्यमो (ग्) हृस्व तृतीयकेन (उ)
स्वरेण दीर्घप्रथमेन (आ) युक्तः |
पोरन्तिम: (म्) तोश्चरमस्तु वर्णो (न्) दीर्घद्वितीयेन (ई) ममाभिधानम् ||
‘”कवर्ग का मध्यम वर्ण तीसरे ह्रस्व स्वर के साथ (ग् + उ = गु), पहले दीर्घ स्वर के साथ पवर्ग का अंतिम वर्ण (म् = आ = मा), और तवर्ग का अंतिम वर्ण दूसरे दीर्घ स्वर के साथ (न् + ई = नी) : इन सबको मिलाकर मेरा नाम गुमानी (ग्+उ+म्+आ+न्+ई=गुमानी) बनता है.”
पोरन्तिम: (म्) तोश्चरमस्तु वर्णो (न्) दीर्घद्वितीयेन (ई) ममाभिधानम् ||
‘”कवर्ग का मध्यम वर्ण तीसरे ह्रस्व स्वर के साथ (ग् + उ = गु), पहले दीर्घ स्वर के साथ पवर्ग का अंतिम वर्ण (म् = आ = मा), और तवर्ग का अंतिम वर्ण दूसरे दीर्घ स्वर के साथ (न् + ई = नी) : इन सबको मिलाकर मेरा नाम गुमानी (ग्+उ+म्+आ+न्+ई=गुमानी) बनता है.”
गुमानी जी की जीवनी पर ओर प्रकाश अपने ब्लॉग में दीजियेगा।
जवाब देंहटाएंnice
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