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हिंदी के विरोध की रस्म

भाषा की आड़ में राजनीति खेलने वाले कुछ तत्त्व अपनी धूमिल होती लोकछवि से घबरा कर भाषाई राजनीति का सहारा भी जब-तब लेते रहते हैं। पिछले दिनों बंगलूरु में हुई घटनाओं को भी इसी परिप्रेक्ष में समझा जा सकता है। ‘हिंदी साम्राज्यवाद नहीं चलेगा’, ‘हिंदी थोपी जा रही है’, ‘पिछले आश्वासनों को पूरा करो’, ‘नम्मा कन्नडा’, ‘नम्मा बेंगलूरू’ आदि नारे सिर उठाने लगते हैं। कुछ दिनों बाद या तो स्वत: दब जाते हैं या स्वार्थ सिद्ध न होने पर स्वत: नेपथ्य में चले जाते हैं। भाषा के हथियार को कभी उत्तर-दक्षिण का मसला बना दिया जाता है, कभी अमुक दल बनाम अमुक दल का। इससे आम भारतीय को, जिसने दक्षिण का जनमानस नहीं देखा, यह भ्रांत धारणा होने लगती है कि दक्षिण में व्यापक हिंदी विरोध है. जब कि वस्तुर्तः ऐसा है नहीं.



 कर्नाटक को ही लें। उन गिने-चुने कन्नड़ भाषियों को छोड़ कर, जिनमें क्षेत्रीय संकीर्ण राजनीति के बीज कूटकूट कर भर दिए गए हैं, शेष लोगों में हिंदी के प्रति कोई वैमनस्य नहीं है। हिंदी को बिल्कुल न समझ सकने वाले कम ही हैं, जो दूर-दराज के गांवों में रहते हैं, ग्रामीण व्यवसायों में लगे हैं और जिनका बाहरी दुनिया से संपर्क न के बराबर होता है। पूरे बंगलुरु महानगर में तो ऐसे लोग बहुत कम मिलेंगे, जो हिंदी में बात न समझ पाते हों। यहां देश भर से वे लोग अधिक गए हैं, जिनके लिए एक से अधिक भाषाओं में बातचीत या संप्रेषण की कुशलता व्यावसायिक अनिवार्यता भी है। दूसरी ओर वे स्थानीय उद्योगी या व्यवसायी, जिन्हें अपने व्यवसाय के संदर्भ में इनसे संवाद करना होता है, उनके लिए भी हिंदी जरूरी हो जाती है, किसी राजनीतिक दबाव से नहीं, व्यवसाय की जरूरत के कारण। इसी प्रकार छोटे पेशेवर, हर तरह के कामगार जानते हैं कि केवल एक भाषा की जानकारी उनके लिए लाभदायक नहीं, तो वे दूसरी भाषा में भी निपुणता पाने की कोशिश करते हैं, इसमें कोई राजनीतिक दबाव नहीं होता, रोजगार के बेहतर अवसरों का अवश्य होता है। इसलिए ऐसे लोग हिंदी ही नहीं, तमिल, तेलुगु, मलयालम, मराठी भी सीखते हैं! 

‘नम्मा मेट्रो’ में हिंदी-विरोध भी ऊपर के आलोक में समझा जा सकता है। इसकी महानगरीय सवारियों की बात करें तो उनमें अधिकतर हिंदी जानते-सझते हैं। कन्नड़ अस्मिता की आड़ में मोर्चा खोला गया। एक राजनीतिक दल ने खुला समर्थन दिया, दूसरे प्रमुख दल ने शायद मौन समर्थन, क्योंकि आसन्न चुनाव में यह मुद्दा कौन हाथ से जाने दे। औपचारिक रूप में कर्नाटक त्रिभाषा सूत्र का समर्थन करता है और केंद्र भी। केंद्र द्वारा समर्थित-पोषित योजना होने के कारण ही मेट्रो में भी त्रिभाषा सूत्र स्वत: अपनाया गया था। मेट्रो शुरू हुई 2011 में और विरोध 2017 में! 

 कर्नाटक में हिंदी विरोध की लहर पहली बार नहीं उठी। इतिहास में पहले भी एकाध बार ऐसा हुआ है, पर हिंदी से प्रेम का इतिहास बहुत पुराना है और इसका क्रम निरंतर बना रहा है। मराठा साम्राज्य अपने विस्तार काल में कर्नाटक से होता हुआ तमिलनाडु तक पहुंचा था, पर भाषा के मामले में बहमनी राजाओं द्वारा अपनाई गई दक्खनी हिंदी बनी रही। आजादी के आंदोलन के दिनों में हिंदी को देशप्रेम का एक लक्षण मान लिया गया और दक्षिण में भी स्वेच्छा से उत्साहपूर्वक हिंदी सीखी गई। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा ने इसमें बड़ा योगदान दिया। वहीं कुछ प्रचारकों के अति उत्साह से लोगों को लगा कि हिंदी की आड़ में कहीं उनकी अपनी भाषा उपेक्षित न हो रही हो। सो, कन्नड़ साहित्य परिषद ने 1935 के आसपास विरोध की आवाज उठाई थी। तुरंत ही दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा ने प्रांतीय भाषाएं पढ़ाना शुरू कर दिया, जिससे शंका समाधान हो गया और हिंदी विरोध भी समाप्त हो गया। कन्नड़ पर पड़ोस की मराठी और तेलुगु का दबाव भी था, पर 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की संस्तुति पर कन्नड़ भाषियों के लिए अलग राज्य की घोषणा से वहां उत्सव का माहौल बन गया।

 कर्नाटक में हिंदी के प्रचार-प्रसार की परंपरा बहुत पुरानी है। बीजापुर और हैदराबाद की निकटता से दक्खिनी हिंदी ने यहां भी जड़ें जमार्इं। संत काव्य की अखिल भारतीयता के परिणाम स्वरूप ब्रजभाषा से प्रेम भी विकसित हुआ। 1857 के स्वतंत्रता संघर्ष में क्रांतिकारियों का साथ देने वाले माणिक प्रभु तिप्पणाचार्य के हिंदी-उर्दू में लिखे भजन बहुत लोकप्रिय हुए। आर्यसमाज के प्रचारकों के माध्यम से भी कन्नड़ के साथ हिंदी का संपर्क हुआ। पिछली सदी में जो कन्नड़भाषी लेखक बहुत प्रसिद्ध हुए उनमें गंगाधर राव देशपांडे, गुरुनाथ जोशी, हिरण्मय बापूराव कुपटेकर, नागप्पा, सरोजिनी महिषी आदि प्रमुख हैं। सरोजिनी महिषी तो अनेक वर्ष संसदीय हिंदी परिषद की अध्यक्ष रहीं और ‘देवनागर’ नाम से एक पत्रिका की प्रमुख संपादक भी। कन्नड़भाषी हिंदी लेखकों की संख्या अब निरंतर बढ़ रही है। पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं, साहित्यिक और अन्य प्रकार की मौलिक पुस्तकें भी। यानी कन्नड़ और हिंदी हाथ में हाथ डाल कर बढ़ रही हैं। कहीं कोई विद्वेष नहीं है। 

 भारत जैसे विविधता वाले देश में विविध भाषाओं की अपनी पहचान है, महत्त्व है। यह कम नहीं होना चाहिए। वेशभूषा, भाषा, रहन-सहन में बहुलता ही हमारी पहचान है, यह बात बार-बार कही जाती रही है। यह भी जरूरी है कि परस्पर संदेह के कारणों का भी यथासंभव निराकरण हो। हम अपने भीतर भी झांक सकें। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम ‘हिंदी पेटी’ वाले आत्मप्रेम या अहंकार से ग्रस्त हों? हम समझते हैं, हिंदीभाषी संख्या में अधिक हैं, इसलिए हिंदी सर्वग्राह्य होनी चाहिए। लेकिन लोकतंत्र में, खासकर भाषा के मामले में, आंकड़े ही महत्त्वपूर्ण नहीं, स्वीकार्यता और सहमति भी चाहिए। हम ठान लेते हैं कि हिदी राष्ट्रभाषा है और मानने को तैयार ही नहीं हैं कि संविधान की दृष्टि से यह राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा है। हमारा यह भाषा प्रेम इस अक्खड़ता को जन्म देता है कि अन्य लोग हिंदी सीखें, हम हिंदी से भिन्न दूसरी भाषा क्यों सीखें। 

अब लगभग व्यर्थ हो चुके त्रिभाषा सूत्र के पीछे भी यही भावना थी कि हिंदीभाषी क्षेत्र में हिंदी से भिन्न कोई राज्यभाषा और गैरहिंदीभाषी राज्यों में हिंदी को सीखने-सिखाने का अवसर मिले। लेकिन वास्तविक धरातल पर ऐसा हुआ नहीं। कुछ राज्यों ने तो सूत्र को ही नकार दिया और कुछ ने आधे-अधूरे मन से स्वीकार किया। उत्तर में तीसरी भाषा के नाम पर प्राय: संस्कृत का विकल्प रखा गया या कहीं-कहीं उर्दू का, जिसे कुछ लोगों ने व्यवहार में संप्रदाय विशेष से जोड़ दिया। परिणाम यह कि हिंदी क्षेत्रों में कहीं भी गैरहिंदी भाषाओं को पढ़ने-पढ़ाने का कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ। ऐसे में हम यह अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि वे हिंदी पढ़ें या सीखें, जिनकी भाषा हम नहीं सीखना-पढ़ना चाहते। यहां-वहां जब-तब उभरने वाले भाषिक असंतोष के पीछे कारण और भी हैं, जो स्थानिक, व्यावसायिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक कुछ भी हो सकते हैं, पर यह भी एक कारण है कि हमारी पक्षधरता में उन्हें संदेह की गंध आती है।

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