मुद्रण माध्यम के सबसे पुराने हिदी दैनिकों में हैं हिन्दुस्तान और नभाटा.
#हिन्दुस्तान
अपना पहला प्यार है, दूर – दराज भी जहाँ रहा डाक से मंगाकर पढता रहा. अब भी छूटता
नहीं. पत्रकारिता की भाषा को इसने एक स्तर दिया है. पर अब जचता नहीं, अब के
सम्पादक गोदी जमात की ओर झुके लगते हैं या समय के साथ चलने के पक्षधर. सम्पादकीय
किसी पत्र का अपना दृष्टिकोण होता है जो जनमत की नब्ज भी होता है और जनमत बनाने
में सहायक भी, पर अब इस पत्र के सम्पादकीय देखकर यह कहने का मन होता है कि इसके
साथ सम्पादक का नाम हो और यह डिस्क्लेमर भी कि “इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने
हैं”!
#नवभारत_टाइम्स (नभाटा) को विद्यानिवास मिश्र जी के समय से नियमित देखता रहा. हिंदी के एक से
बढ़कर एक धुरंधर इसके संपादक रहे, पर पिछले कुछ वर्षो से इसे हिन्दी का पत्र कहना ही असंगत और अटपटा लगता है. अंग्रेजी मोह में इसने अपना नाम तक बदल डाला, #NBT होगया! पत्रकारिता
में हिंदी की ऐसी दुर्गति करने के लिए नभाटा का यह योगदान भुलाया नहीं जा सकेगा.
शर्म आती है जब गैर-हिंदीभाषी या विदेशों में हिंदी सीखने वाले नभाटा की हिंदी पर
व्यंग्य करते हैं.
#जनसत्ता का जन्म अस्सी के दशक में हुआ, तब तक अपनी आदत स्थिर हो गई थी,
यद्यपि एक बार रामबहादुर राय से आकस्मिक परिचय के बाद कुछ दिन नियमीय पढ़ा भी. घर
पर उक्त दो पत्र नियमित आते थे, सो इसे कभी-कभार ही देखता था. धीरे-धीरे लगने लगा कि
यह पत्र रीढ़ वाला है और व्यवस्था से असहमति जताने की हिम्मत भी रखता है. भाषा के
प्रति भी इसकी नीति व्यावहारिक लगी. #NBT से हटकर इसे लगाने का निर्णय लिया तो
मोहल्ले का वितरक कॉम्बो, स्कीम, डील, ऑफर जैसे पारिभाषिक शब्दों के जाल में
निरुत्साहित करता रहा. अब सुबह मिल तो जाता है, फिर भी सप्ताह में कम से कम एक दिन
डुबकी लगा लेता है.
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