सामान्यतः सभी भाषाओं
और विशेषकर हिंदी को लेकर कुछ प्रश्न और हैं जो मन-मस्तिष्क को अक्सर
झिंझोड़ते हैं. 21-वीं
शताब्दी के ग्लोबलाइजेशन और तेज़ रफ़्तार की टेक्नोलॉजिकल प्रगति के कारण जो बदलाव आ
रहे हैं उसमे हिंदी एवं प्रांतीय भाषाओँ का स्वरुप (मानलें जैसे 50 वर्ष बाद) क्या
होगा? यह शुभ संकेत है कि हिंदी बाज़ार-व्यवसाय की
भाषा के रूप में सशक्त दावेदारी प्रस्तुत कर रही है. विज्ञापन, विपणन की हिंदी
उसके व्यावहारिक रूपों के अधिक निकट दिखाई पड रही है, जो उसकी ग्राह्यता और
प्रचार-प्रसार दोनों के लिए अच्छा लक्षण है.
ऐसे
में फिर एक प्रश्न उठता है कि सूक्ष्म संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का
प्राथमिक वाहन बनने वाली भाषा कैसी होगी?
उसपर परंपरा से चले आ रहे प्रतिमान किस सीमा तक लागू होंगे? क्या
अभिव्यक्ति, सृजनात्मक अभिव्यक्ति की भाषा का स्वरूप मौलिक रूप से शब्द की अपेक्षा
दृश्य और ध्वनि प्रभावों से अधिक प्रभावित होगा?
ऐसे
प्रश्न अभी तो बहुत प्रासंगिक प्रश्न नहीं लगते किंतु ये चुनौती देर-सवेर हमारे सम्मुख होगी, और आज हम इन पर आधिकारिक रूप से कुछ कह पाने की स्थिति में भले ही न हों, विचार तो करना ही पड़ेगा.
अभिव्यक्ति
की भाषा का स्वरूप बदलने की मांग ही नहीं कर रहा है, बदल भी रहा है. पर यह बदलाव सायास नहीं, अपनी ही रफ़्तार से होगा. ग्लोबलाइजेशन
और तेज़ रफ़्तार की टेक्नोलॉजिकल प्रगति के कारण जो बदलाव आ रहे हैं उनके
परिणामस्वरूप हिंदी एवं प्रांतीय भाषाओँ के सामने जो ज़बरदस्त चुनौती निहित है, वह
है अस्तित्व का प्रश्न. प्रयोग में न आने
से आज विश्व की हज़ारों भाषाओं पर विलुप्त हो जाने का संकट मंडरा रहा है. तो तेजी
से अंग्रेजी की ओर मुड़ने की प्रवृत्ति हमारी अपनी भाषाओं को संकट-ग्रस्त नहीं
करेगी? मैं निराशावादी तो नहीं हूँ, पर यह पक्ष सोचने को विवश तो करता है, आज नहीं
तो कल!
भारत में भाषा के चिंतक (शुभचिंतक?)
या तो हिंदी बनाम प्रांतीय भाषा की बात करते हैं या हिंदी बनाम अंग्रेज़ी की. मेरे
विचार से दोनों ही मुद्राएँ भाषाओं का हित नहीं करेंगी. हमें कुछ उदार और समावेशी
होना पड़ेगा. सभी भारतीय भाषाएँ एक साझे दाय की वाहिका हैं और परस्पर पूरक हैं,
प्रतिस्पर्धी नहीं. सूक्ष्म संवेदनाओं की भाषा का स्वरूप हमेशा ही कुछ हटकर रहा
है, और सृजन करने वाले की रुचि और भाषिक क्षमता पर भी निर्भर करता है.
पर पता नहीं क्यों मुझे यह लगने लगा
है कि संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए शब्दार्थ वाली भाषा कभी-कभी वह प्रभाव नहीं
सम्प्रेषित कर पाती जो सर्जक/लेखक चाहता है. तब उस पंगुता को दूर करने का दायित्व
रंग और दृश्य संयोजन तो नहीं ले लेंगे? यह प्रश्न मैं आपके लिए छोड़ता हूँ.
आप सही कह रहे हैं साथ - साथ, इसी परिप्रेक्ष्य में नए दृश्य - शब्द भी बनेंगे । 😊
जवाब देंहटाएंआभार,
जवाब देंहटाएंइस दिशा में वस्तुतः अनुमान ही लगाया जा सकता है.अजीब लगता है सोचते हुए कि शक्तिशाली 'वाक्' अशक्त और निष्प्रभ हो जाएगी और हम अभिव्यक्ति के लिए कोई और साधन चुन रहे होंगे.