#नवीन_जोशी का उपन्यास "टिकटशुदा रुक्का" महीना भर पहले ही पढ़ लिया था। उस से दस दिन पहले भी पढ़ चुका हो सकता था पर "उनकी" जिद थी कि पहले वे पढ़ेंगी। समझौता इस बात पर हुआ कि जब तक मैं भी न पढ़ लूं तब तक उसके बारे में कोई चर्चा नहीं करेगा।
यह शर्त निभाना उनके लिए बेहद कठिन रहा होगा, यह मैं तब समझ पाया जब मैंने भी पूरा उपन्यास पढ़ लिया। पढ़ लेने के बाद मैं स्वयं अनेक सवालों में उलझ गया। कथानक, प्रस्तुति, सामाजिक हलचलों का बिंब-प्रतिबिंब, संघर्ष, विजय- पराजय, बड़ी-छोटी जाति, शोषण, कॉर्पोरेट हृदयहीनता, छद्म, प्यार, समर्पण, संघर्ष और भी जाने क्या-क्या! और इस सबको पिरोने-परोसने का अंदाज़ बिल्कुल महाभारत के संजय की तरह, जो भाइयों की मारकाट को भी सहज रूप में सुना देता है। बस।
मैं जैसे बिल्कुल सन्न था, संज्ञा हीन। चाहते हुए भी उपन्यास के बारे में कुछ नहीं लिखा। लगा जितने आयामों को लेखक एक कैनवास पर सहजता से उतार गया है, वहां तक पहुंचना तो दूर, उन्हे पूरा-पूरा छू पाना भी मेरे जैसे पाठक के लिए जैसे एक चुनौती है।
खानदानी कर्जदार दीवान का संघर्ष केवल वर्ग संघर्ष नहीं है। वह अपनी मेहनत से ऐसा मुकाम हासिल कर लेता है जहां से वह एक ओर शोषक वर्ग की अकड़ और दूसरी ओर दलित राजनीतिक चेतना का विरोधाभास भी देख-समझ लेता है। बामसेफ, बहुजन समाज, समाजवाद, ds4, कांग्रेस सबके बढ़ते-घटते घेरों को देखता है। कॉर्पोरेट जगत की गलाकाट स्पर्धा, हृदय हीनता और "यूज एंड थ्रो" नीति का साक्षी ही नहीं भोगी भी बनता है। किंतु उपलब्धियों के शिखर पर भी कोई सूत्र है जो उसे जड़ों से जोड़े रखता है और वह मुड़ जाता है जड़ों की ओर।
कथानक में केवल पाँच दिन के घटनाक्रम में एक महाकाव्यात्मक संभावनाओं का विस्तार है। सारी चकाचौंध का आकर्षण छोड़कर जब दीवान कठिनाइयों का पहाड़ चढ़ने लगा है तो उसे लगता है, "थोड़ा कठिन राह है", किंतु सदा साथ देने वाली शिवानी यहां भी उसकी शक्ति बनकर कहती है, " कोई बात नहीं। आहिस्ता - आहिस्ता पार हो जाएगी"।
कथानक का यह अंतिम संवाद संभावनाओं से भरे एक नए जीवन का प्रारंभिक संवाद बन सकता है
मैं प्रभाव वादी, भावुक किस्म की समीक्षा से भी बचना चाहता थाहूँ। इसलिए आज भी पुस्तक मेरी मेज पर है। मुझे बुलाती है। और इधर मैं हूँ कि उसके बारे में दो शब्द लिख पाने की चुनौती स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूँ।
#टिकटशुदा_रुक्का Naveen Joshi
#नवारुण, वसुंधरा, ग़ाज़ियाबाद
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें