कथा पूर्णविराम की
हिंदी में सभी विराम चिह्न अंग्रेजी (लैटिन मूल की अन्य भाषाओं) से ज्यों के त्यों ले लिए गए हैं। केवल पूर्ण विराम का चिह्न पारंपरिक है। उसका भी एक विकल्प बिंदु (full stop) के रूप में उपस्थित है और प्रयुक्त भी हो रहा है। सहज प्रश्न उठता है कि क्या भारतीय परंपरा में विराम चिह्न अपने नहीं थे उत्तर इसके समर्थन में यही उत्तर, होगा - हां केवल पूर्ण विराम को छोड़कर। वस्तुतः संस्कृत में प्रारंभ के वैदिक साहित्य में विरामचिह्नों की आवश्यकता थी ही नहीं। मौखिक परंपरा थी और गुरुओं के द्वारा शिष्यों को उच्चारण, विराम, गति - यति आदि सहित मंत्रों को रटा दिया जाता था और यही परंपरा चलती रही।
कालांतर में जब लिपि चल पड़ी और पारंपरिक साहित्य को लिखा जाने लगा तो एक पूर्ण विराम ही पर्याप्त था। जब श्लोकों, मंत्रों की क्रमिक गणना आवश्यक हो गई तो प्रत्येक के साथ दो विराम चिह्नों के बीच श्लोक संख्या भी दे दी गई और यही परंपरा चल पड़ी।
हिंदी में भी प्रारंभ में कविताएँ ही रची गईं इसलिए इकहरे या दोहरे खड़ी पाई वाले विराम से काम सरलता से चलता रहा। गद्य काल में अवश्य विराम चिह्नों की आवश्यकता अनुभव की गई होगी।
यह जानकर आप चकित हो सकते हैं कि अठारहवीं सदी के अंतिम दशक में ही गिलक्रिस्ट ने पूर्णविराम के स्थान पर बिंदु (.) का चलन प्रारंभ कर दिया था। उसी समय जब हिंदी की पाठ्यपुस्तकें तैयार की जा रही थीं तब अंग्रेजी के विराम चिह्न उसी प्रकार की स्थितियों में हिंदी में भी प्रयुक्त होने लगे। गिलक्रिस्ट और उसके अनुकरण पर फोर्ट विलियम कॉलेज के लल्लूलाल और सदल मिश्र जैसे लेखकों ने इसे अपनाया। 1900 में माधव राव सप्रे ने अपनी रचना"सुभाषितरत्न" में बिंदु को ही अपनाया।
कालांतर में भारतेंदु युग और द्विवेदी युग में जब हिंदी गद्य स्थिर होने लगा तो खड़ी पाई को छोड़कर पूर्ण विराम के लिए बिंदु का प्रयोग लेखकों ने नहीं स्वीकार किया और अंग्रेजी के अन्य विराम चिह्नों को स्वीकारते हुए भी खड़ी पाई का प्रयोग जारी रखा।
पूर्ण विराम के लिए खड़ी पाई के स्थान पर बिंदु के प्रयोग के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह था की जब सारे ही चिह्न अंग्रेजी से लिए जा रहे हैं तो बिंदु क्यों नहीं। इससे समानता होगी लेखन में भी और टाइप में भी। फिर भी केंद्रीय हिंदी निदेशालय के अंतर्गत मानक हिंदी समिति ने इस तर्क को स्वीकार नहीं किया और अपनी संस्तुतियों में पूर्णविराम के बारे में व्यवस्था दी कि वह परंपरानुसार ही चलता रहेगा। 1970 से आगे के दशक के प्रारंभिक वर्षों में, संभवतः1973-74 के आसपास,पुनः बिंदु की ओर अपने कदम मोड़े। उनमें से एक था टाइम्स ऑफ़ इंडिया तथा दूसरा दिल्ली प्रेस। इनके स्वामित्व के अंतर्गत हिंदी में छपने वाले सभी पत्र और पत्रिकाएँ पूर्ण विराम के लिए बिंदु का प्रयोग करने लगे। आज भी स्थिति यह है कि कुछ ऐसे ही गिने-चुने संस्थानों के साथ बीबीसी के अतिरिक्त अधिकतर पूर्ण विराम के लिए खड़ी पाई का ही प्रयोग हो रहा है।
यहाँ जब परंपरा की ही बात की जा रही है तो यह उल्लेख करना भी महत्वपूर्ण होगा कि हिंदी में परंपरा से चला आया विरामचिह्न एक ही है खड़ी पाई वाला पूर्णविराम। रोचक है कि यह हिसाब-किताब में चौथाई/पाव का सूचक है, पूर्ण का नहीं। संस्कृत श्लोकों में भी यह एक प्रकार से पाद (चौथाई), श्लोक के एक चरण (पाद) के लिए प्रयुक्त होता है। श्लोक की समाप्ति पर इसे दोगुना कर दिया जाता है॥
यह खड़ी पाई वाला पूर्ण विराम चिह्न गणित में भी अनेक सूचनाओं का संकेतक रहा है। वस्तुतः तो एक चौथाई पाव का सूचक होने के कारण इसका एक नाम चार विराम भी था। विराम सूचक यह खड़ी पाई हिसाब-किताब, मुंशियों के लेखे-जोखे में एक पाव/एक चौथाई की सूचक थी और 1957 में मुद्रा और भार के लिए दशमलव प्रणाली अपनाने तक व्यवहार में रही। अब कम लोगों को स्मरण होगा। ये संकेतचिह्न अंतर्जाल पर भी मैं नहीं ढूँढ़ पाया।
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