स्थान नामों को बदलने की धुन में एक ही झटके में मँडुवाडीह को बनारस कर दिया गया किंतु प्राचीन परंपरा, संस्कृति और भारतीयता के रक्षकों को यह समझ नहीं आया कि ऐसा करके संस्कृति के एक बहुत पुराने सूत्र को एकदम मिटा दिया गया है। डीह" शब्द उत्तर भारत और नेपाल के अनेक स्थान नामों के साथ जुड़ा है। डीह ऐसे स्थान हैं जहां प्राचीन मंदिरों, बस्तियों के अवशेष थे और अब किसी ढूह या टीले में बदल गए हैं। डीह वैदिक संस्कृत और लौकिक दोनों में है। मध्यप्रदेश में राँची का स्तूप राँची डीह पर बना है।
रही बात मँडुआ और मंडुवाडीह की। कभी इस डीह में मंडुवा नामक मोटा अनाज अधिक उगाया जाता होगा। सो नाम हो गया मंडुवाडीह। यह मडवा/मडुआ अन्न तो गरीब का पोषक और लोक संस्कृति में कभी ना भुलाया जाने वाला नाम है। मंडुआडीह संत कवि रैदास का जन्मस्थान भी था। सुप्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह की एक कविता "बनारस" में भी इसका उल्लेख है:
"इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है.."
बनारस -- केदारनाथ सिंह
बिहार में जीवित्पुत्रिका या 'जिउतिया/जितिया' व्रत में, जो संतान प्राप्ति या उसकी उन्नति के लिए मनाया जाता है, मड़ुआ की रोटी तथा झिंगुनी की सब्जी अनिवार्यतः खिलाई जाती है। इससे लोक का आत्मीय तथा सांस्कृतिक जुड़ाव है। दही - चिवड़ा की तरह दही - मड़वा भी खाया-खिलाया जाता है।
यों मंडुवा गरीब का भोजन कहा जाता था किंतु जबसे इसके पौष्टिक घटकों का पता चला है, यह सभी के भोजन का अंग बनता जा रहा है। इसके व्यंजन बहुत रुचिकर, स्वादिष्ट होते हैं। आयुर्वेद में भी उल्लेख मिलता है।
मानस में तुलसी भरत के मुँह से कहलवाते हैं:
"फरइ कि कोदव* बालि सुशाली
मुक्ता प्रसब कि संबुक काली।"
तुलसी ने कोदो (मँडुवा) का तब उल्लेख किया है जब कैकेयी के प्रति आक्रोश से भरपूर भरत उसके लिए कटुवचनों का प्रयोग करते हैं, किंतु अयोध्या और मिथिला के मधुर संबंधों को प्रगाढ़ बनाने वाले संदेश पर कोदो और रामलला से जुड़ी एक रोचक मैथिल लोककथा को संलग्न फ़ोटो पर देख सकते हैं
स्थान नामों का विशेष महत्व और सांस्कृतिक इतिहास होता है। मँडुआ/मड़ुवा को हिंदी क्षेत्र में रागी और कोदो भी कहा जाता है। संस्कृत में यह कोद्रव है, कोद्रव > कोदव > कोदो/कोदों, द्रविड़ भाषाओँ में वरगु/वरगु; कहीं रागी, केप्पई भी। मराठी में नाचनी। भारत में प्रायः सभी राज्यों में उगाया जाता है। इसके अखिल भारतीय स्वरूप की कुछ जानकारी इस सूत्र में मिल सकती है।
उपयोगिता / सुविधा की दृष्टि से भी बनारस (पूर्व मंडवाडीह) यात्रियों के लिए भ्रामक होगा। पुराना बनारस वाराणसी बन गया, जो उसका प्राचीन नाम था। शायद अंग्रेजों ने मुखसुख के लिए बनारस कर दिया था। उसे उसका पुराना शास्त्रीय नाम देना समझ में आता है। वाराणसी समूह में रेलवे के वर्तमान स्टेशन हैं: वाराणसी सिटी, वाराणसी जंक्शन, काशी, मंडुवाडीह जंक्शन और दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन (पहले मुग़लसराय था, इसलिए बदला ही जाना था)। अब पुराने बनारस नाम को फिर से ले आया गया है। भारतीय मानस में एक इच्छा पलती है कि जीवन में एक बार काशी-बनारस पहुँचे। न हो, वहीं प्राण त्यागे। पहली बार पँहुचने वाला बनारस नाम देखकर यहीं उतर सकता है जो विश्वनाथ मंदिर और गंगा से दूर है।
कुछ नया करने के लिए स्थान नाम बदलने की सनक में मडुवाडीह को गायब कर देने के माने यह भी हो सकते हैं कि इस नाम में गँवारपन का बोध है, ग्रामीण झलक है और नगरीकरण के नशे में ग्रामीण शब्दों के लिए, ग्राम्य बोध के लिए, लोक जीवन के लिए कोई स्थान नहीं है। एक लोकोक्ति याद आ रही है:
"भइया, कोदो दे के पढ़ाई किये रहे का?"
©सुरेशपंत
बहुत सुंदर
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