भाषा क्योंकि समाज की दैनिक व्यवहार में आने वाली संपत्ति है, इसलिए मनुष्य के प्रत्येक भाव के संप्रेषण के लिए उसके शब्द भंडार में कोई न कोई उपयुक्त शब्द है किंतु समाज के विभिन्न स्तरों के अनुसार शब्द विशेष के प्रयोग में भी कुछ सावधानियों और कुछ अलिखित नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। इन्हें सामान्यतः हम समाज - मनोवैज्ञानिक नियंत्रण Sociolinguistic Controls कहते हैं अर्थात शब्द का कोशीय अर्थ उपयुक्त होते हुए भी उसके प्रयोग पर कुछ प्रतिबंध होते हैं। इन्हें सामान्य बोलचाल में वर्जित, प्रतिबंधित या टैबू शब्द कहा जाता है। ऐसे अनेक शब्द प्रत्येक भाषा के अपनी पूँजी होते हैं।
हिंदी के कुछ टैबू शब्दों की चर्चा करें। हिंदी क्योंकि एक व्यापक प्रदेश की भाषा है, अनेक बोलियों का समवेत रूप है, इसलिए इसमें ऐसे शब्द भी हैं जो हिंदी की एक बोली में तो प्रतिबंधित हैं पर दूसरी में सामान्य व्यवहार में भी आ सकते हैं। सामान्यतः कुछ ऐसे टैबू शब्द और अभिव्यक्तियाँ हैं जो अकेले हिंदी क्षेत्र में ही नहीं, प्रायः अखिल भारतीय रूप से प्रतिबंधित कही जा सकती हैं ।
आने या जाने के लिए प्रयुक्त सामान्य क्रिया शब्द के प्रयोग में भी प्रतिबंध है। "आओ" कहने की अपेक्षा "आइए" अथवा "पधारिए" सभ्य अभिव्यक्ति मानी जाती है। राजस्थान में तो "पधारिए" शब्द दोनों स्थितियों में प्रयुक्त होता है - स्वागत में भी और विदा करते समय भी। इसी प्रकार जाता हूँ कहने से अच्छा माना जाता है आता हूँ। यह जाना-आना भी एक प्रकार से अखिल भारतीय मुहावरा है । तमिल में "पोइट्टु वारें" = पोइ विट्टु वारें= जाकर आता हूँ। इसी प्रकार बांग्ला में "आमी आस्च्छी" और अन्य भारतीय भाषाओं में भी इसी प्रकार बोलना अधिक अच्छा माना जाता है। "वह गया" या "मैं जाता हूँ" कहना एक प्रकार से कठोर, ग्राम्य या अशुभ अभिव्यक्ति मानी जाती है। व्याकरण भले ही इसे शुद्ध क्रिया माने किंतु बोलने या सुनने वाले अच्छा नहीं मानते।
"दुकान बंद करना", "दिया बुझाना" भी ऐसे ही अशुभ माने जाने वाले शब्द/ मुहावरे हैं। उत्तर प्रदेश, हरयाणा, राजस्थान में यही पूछा जाता है, "दुकान कितने बजे बढ़ाएँगे?" दिया भी बुझाया नहीं, बढ़ाया जाता है। इसी प्रकार:
मीठा खिलाना = विष खिला देना
कीड़े ने काट दिया = साँप ने डस लिया
महीने वाली = गर्भिणी नारी। (पशु के लिए गाभिन, न कि गर्भिणी! न ही महीनों वाली!)
उसे माता है = उसे चेचक/खसरा है
मर जाना सामान्यतः नहीं कहा जाता, उसके लिए देहांत , स्वर्गवास, निधन, प्राणांत होना, पूरा होना आदि हैं।
शौच जाने (दीर्घ शंका) के लिए "दिशा-जंगल जाना", "झाड़ा बैठना" ग्राह्य, किंतु "टट्टी जाना" ग्राम्य (टैबू); इसलिए त्याज्य। जब कूलर, एसी का चलन नहीं था तो गर्मियों में खस के मोटे चटाईनुमा पर्दों पर पानी छिड़ककर ठंडा किया जाता था, उन पर्दों को टट्टी कहा जाता था। कहावतें थीं: टट्टी की भी क्या आड़, अरहर की टट्टी पर गुजराती ताला। आज वह शब्द केवल शौचालय बनकर रह गया है जिसे टॉयलेट कहना अधिक अच्छा समझा जाता है!
इंग्लैंड की राजधानी लंडन है किंतु हिंदी क्षेत्र में यह नाम पुरुष गुप्तांग के नाम के निकट होने के कारण वर्जित है, जबकि मूर्धन्य /ड/ ध्वनि हिंदी में विद्यमान है और सरलता से बोली जा सकती है, जैसे दंड, प्रचंड, खंडन , मंडन किंतु लंडन टैबू है। अब मानक हिंदी में भी यह लंदन ही है। कुमाऊँ में कढ़ी को झोली/झोई या पल्यो/पयो कहा जाता है, कढ़ी नहीं, क्योंकि कढ़ी में नारी गुप्तांग का संकेत है। गढ़वाल चमोली में लड़का - लड़की के लिए लौड़ा-लौड़ी प्यार से कहा जाता है किंतु शेष गढ़वाल में, अन्यत्र भी यह टैबू शब्द है। ब्रज, राजस्थानी, बुंदेली में छोरा-छोरी सामान्य प्रयोग में हैं लेकिन कुमाऊँ में प्रायः अनाथ बच्चों के लिए कहा जाता है। कहीं छोकरा-छोकरी भी अशिष्ट प्रयोग में आते हैं पर अन्यत्र सामान्य प्रयोग में हैं। "भेल" चाहे जितना स्वादिष्ट लोकप्रिय व्यंजन हो, पहली बार मुंबई आया हुआ कुमाउँनी व्यक्ति "भेल" शब्द सुनकर चौंकता है क्योंकि कुमाऊँ में भेल नितंबों को कहा जाता है। समूचे उत्तराखंड में काँ/कख (=कहाँ) सर्वनाम से गंतव्य के बारे में प्रश्न नहीं पूछा जाता। "आप कहाँ जाएँगे?" पूछने के लिए शिष्ट अभिव्यक्ति है: गढ़वाली में - आपकी सिद्धि? (आपका लक्ष्य कहाँ जाना है?); कुमाउँनी में - कतुक टाड़? (कितनी दूर जाएँगे?)।
© सुरेशपंत
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पूर्वी उत्तर प्रदेश में किसी अपरिचित का नाम "आपका शुभनाम?" कह कर ही पूछा जाता है। अंग्रेजी में भी "What is your good name?" चल जाता है।
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