अकर्तव्य कर्त्तव्य
हिंदी में "कर्तव्य" का उच्चारण "कर्त्तव्य" किया जाता है,इसलिए कुछ लोग कर्त्तव्य लिखते भी हैं। सामान्यतः हिंदी में /त/ के द्वित्त्व के लिए कोई नियम नहीं, यद्यपि संस्कृत में /त/ के द्वित्व के साथ 'कर्त्तव्य' की सिद्धि अष्टाध्यायी के अनुसार काशिका के तृतीय अध्याय में दी गई है। शब्दकल्पद्रुम में 'कर्त्तव्य' की ही प्रविष्टि दी गई है। मैक्डोनाल्ड ने कर्त्तव्य की प्रविष्टि दी है किंतु अर्थ दिया है विनाश के योग्य।
हिंदी में प्रयुक्त इस तत्सम शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार समझी जा सकती है:
√कृ (>हि √कर्) + सं तव्यत् (>हि तव्य)] = कर्तव्य।
उच्चारण करते हुए द्वित्त्व सुनाई अवश्य देता है, यह कुछ अन्य भाषिक कारणों से होता है। बहुत पहले काशी नागरी प्रचारिणी सभा के नाम पट्ट और पत्र शीर्षक (लेटरहेड) पर उनके कार्यालय को "कार्य्यालय" लिखा होता था। पर इस प्रक्रिया की वर्तनी को उन्हीं के कोश में स्थान नहीं मिला।
हिंदी में प्रभात प्रकाशन से छपे 'बृहत् हिंदी शब्दकोश' में डॉ.श्याम बहादुर वर्मा ने दोनों प्रविष्टियाँ, कर्तव्य/कर्त्तव्य दी हैं किंतु पुनः 'विशेष' के अंतर्गत लिखा भी है कि हिंदी में 'कर्त्तव्य' का प्रयोग न करके 'कर्तव्य ' लिखना ठीक है। स्पष्ट है कि कुछ कोशकार अभी स्वयं स्थिर नहीं हैं; तब कैसे अपेक्षा करें कि प्रयोक्ता स्थिर हो पाएगा। भ्रम की दशा में ही तो हम कोश देखते हैं।
हमारा मानना है कि 'कर्त्तव्य' संस्कृत में अशुद्ध नहीं है, किंतु हिंदी में कर्तव्य ही लोक स्वीकृत है। वस्तुतः ऐसी वर्तनी को अशुद्ध न कहकर यह कहना चाहिए कि यह हमारे मानकीकरण और वर्तनी के अनुकूल नहीं।
आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने संस्कृत से हिंदी में आगत शब्दावली के कुछ नियम 'हिंदी निरुक्त' में देने का प्रयास किया है।
संस्कृत में तो पहले बोलने की ही परंपरा थी। सारे वेद आदि मौखिक रूप में ही जीवित रहे। उनका शुद्ध उच्चारण बना रहे इसके लिए षड्दर्शन में शिक्षा, व्याकरण और निरुक्त की विधिवत दीक्षा अनिवार्य थी। हिंदी तक आते-आते "शिक्षा" जैसी बात तो समाप्त हो गई। परिणाम स्वरूप शुद्ध उच्चारण निर्धारित करना लगभग असंभव हो गया। अब "यथा लोकोनुवर्तते" वाली बात है।
ठीक है कि संस्कृत में कर्तव्य, कर्त्तव्य भी था। वेद में तो सूर्य भी सूर्य्य था। एकरूपता और सीखने-सिखाने में सुगमता की दृष्टि से हिंदी ने अपनी जो परंपरा पकड़ी है और जिसको अधिकांशत: हिंदी निदेशालय ने भी अनुशंसित किया है, उसे ही मानकर बढ़ा जाना चाहिए।
अब राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद भी ऐसी नहीं रही जिसके शब्दों की वर्तनी, व्याकरण, प्रयोग मानक हुआ करते थे या सामग्री सोद्देश्य होती थी। उनकी हिंदी पाठ्यपुस्तकों में कर्तव्य की कर्त्तव्य वर्तनी हिंदी में अमानक है और चिंताजनक है कि इसे मानक मानकर जाने कितने शिक्षक भ्रमित हो चुके होंगे और आगे चलकर नई पीढ़ी में जाने कितने लोग अशुद्ध सीख कर आगे बढ़े होंगे। इसे कहते हैं एक अशुद्धि अनेक अशुद्धों को आश्रय देती है।
कोई शब्द हिंदी मानकीकरण और वर्तनी के अनुकूल नहीं तो हिंदी में उसे भुला दिया जाना ही श्रेयस्कर है। सच यह है कि हिंदी विकसित होकर संस्कृत से बहुत आगे निकल आई है जिसका अपना व्याकरण है जो प्राकृत, अपभ्रंश, भाखा, खड़ीबोली से होता हुआ हिंदी में स्थिर हो गया है। रथ को पुनः संस्कृत की लीक पर मोड़ना व्यर्थ है। आचार्य वाजपेयी स्वयं यही मानते थे।
ज्ञानमूलक चर्चा।भला आचार्य किशोरी लाल वाजपेयी की स्थापनाओं को कौन नकार सकता है।
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