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शब्द धर्मनिरपेक्ष ही नहीं होते, वे अंतर सांस्कृतिक, अंतरमहाद्वीपीय और अंतरराष्ट्रीय यात्राएँ भी करते हैं। वैदिक काल से चला आ रहा "यज्ञ" ऐसा ही एक शब्द है।
यज्ञ से अवेस्ता में शब्द बना "यश्न" जो पूजा अर्चना के लिए प्रयुक्त होता है। पारसियों के यश्न का और सनातनियों के यज्ञ का प्रधान देवता भी अग्नि ही है। अवेस्ता का यश्न फारसी में बन गया जश्न/जशन, जो हिंदी-उर्दू में भी उपस्थित है।
यज्ञ परंपरा तो अब लुप्तप्राय हो चली है। तो यूं समझ लीजिए कि यदि आप कोई जश्न मना रहे हैं तो आप यज्ञ ही कर रहे हैं। यज्ञ के साथ जो पवित्रता, उत्साह और उमंग का भाव जुड़ा है वही जश्न में भी है - कम से कम शब्दार्थ की दृष्टि से।
अब इस अंतरसांस्कृतिक धर्मनिरपेक्षता से नाक - भौंह सिकोड़ने वाले विचलित हों, तो हों। हम क्या कर सकते हैं और बेचारे शब्द भी क्या कर सकते हैं। वे तो जन्मना धर्मनिरपेक्ष होते हैं।
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सूत्र के लिए आभार: डॉ अभिषेक अवतंस
(फ़ोटो सौजन्य: गूगल खोज)
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