बावला संस्कृत वातुल > प्राकृत बाउल से व्युत्पन्न माना गया है। मूलतः तो यह ऐसे व्यक्ति के लिए है जिसे (वात) वायु का प्रकोप हो, जो पागल, विक्षिप्त, सनकी हो। इसके अन्य अर्थ हैं- जिसका मानसिक विकास नहीं हुआ हो, मानसिक रूप से अपरिपक्क्व। बोलियों में इसके रूप हैं- बावळा, बावरा, बौरा। संत तुलसीदास तो ब्रह्मा जी से कहलवाते हैं:
"बावरो रावरो नाह भवानी।"
(हे भवानी, आपका पति तो पूरा बावला है। ऐसा दानी कि जिसके भाग्य में मैं दरिद्रता लिखता हूँ उसे यह सब कुछ दे दे डालता है। अब यह विधाता वाली खाता-बही मैं नहीं सँभाल सकता। आप मेरा त्यागपत्र स्वीकार कीजिए।)
भोले-भाले, नादान, अज्ञानी को भी बावरा/बावरी कहा जाता है:
"हौं ही बौरी विरह बस कै बौरो सब गाउँ।
कहा जानि ये कहत हैं, ससिहि सीतकर नाउँ।।
~बिहारी
बावरी विशेषण केवल विक्षिप्त के अर्थ में ही नहीं है। बावरी होना भोलेपन की वह स्थिति है जिसमें अपनी उपस्थिति का भान नहीं होता, यह ध्यान नहीं रहता कि आसपास क्या घट रहा है। मीरा तो स्वघोषित बावरी है।
बावरी अनेकार्थी भी है। अर्थ हैं जलाशय, भोली, मासूम, अबोध। लाक्षणिक अर्थ में पगली भी इसी के निकट है। ब्रज में प्यार से कहा जाता है- अरी, बावरी है रई है ...!!
अधिक लाड़-प्यार से बिगड़े बच्चे को 'लड़बावला' कहा जाता है।
बौड़म
उत्तरप्रदेश में बौड़म विशेषण बहुत सुना जाता है। "शब्दसागर" के अनुसार बावला और बौड़म दोनों की व्युत्पत्ति संस्कृत 'वातुल' से है और दोनों का अर्थ भी बहुत कुछ समान है। बौड़म व्यक्ति में ये गुण हो सकते हैं- सनकी, अर्धविक्षिप्त, पागल-सा, बेवक़ूफ़, सुस्तदिमाग़, कुंद, अपरंपरागत और मूर्खतापूर्ण, सिरफिरा, crazy.
बौड़म से भाववाचक संज्ञा बनती है, 'बौड़मपना' अर्थात् ऊटपटांग हरकत, पागलपन, मूर्खता।
प्रेमचंद की एक कहानी का "बौड़म" तो ऐसा दुर्लभ चरित्र है कि कहने को मन करता है, काश ऐसे बौड़म देश में और भी जन्में!
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