चार्वाक दर्शन के नास्तिक भौतिकवाद का भी एक अपना आनंद है!
यावज्जीवेत सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥
चार्वाक दर्शन दर्शन की वह प्रणाली है जो इसी जीवन में विश्वास करती है और स्वर्ग, नरक अथवा मुक्ति की अवधारणा में नहीं। इसे नास्तिक दर्शन या लोकायत दर्शन भी कहा गया है। विद्वानों ने वेदवाह्य दर्शन कहा है, नकारा नहीं।
चार्वाक दर्शन की यह परंपरा उत्तराखंड में आज भी जीवित है। सिंह संक्रांति (सौर भाद्रपद की पहली तिथि) को कुमाऊँ में "घी संक्रांति" कहा जाता है और विश्वास है कि इस दिन येन-केन-प्रकारेण यदि घी न खाया जाए तो अगले जन्म में घोंघा होना निश्चित है।
घोंघा बसंत (परम मूर्ख) तो बहुत मिलते होंगे आपको। घोंघा (संस्कृत में घोङ्घ:) बहुत ही धीमी चाल से चलने वाला लिजलिजा जीव जो किसी भी स्पर्श या हलचल से तुरंत सिकुड़कर अपनी पीठ पर लदे खोल में घुस जाता है। घोंघे के लिए बसंत का सौंदर्य या हलचल व्यर्थ है। कवच के अंदर घुसा न कुछ देख सकता है, न समझ सकता है, न घूम-फिर सकता है। संभवत: इसीलिए कहा गया हो घोंघा बसंत। इसी रूपक को थोड़ा दार्शनिक/मनोवैज्ञानिक आयाम में ले जाएँ तो अपनी परिचित-पोसी हुई छोटी दुनिया में रहने के अभ्यस्त लोग किसी भी बाहरी अपरिचित हलचल पर अपने खोल की सुरक्षा में घुस जाते हैं। और इस प्रकार नवीन-विविध विचार सौंदर्य और मोहक प्रकृति सौंदर्य से वंचित रह जाते हैं।
तो डॉक्टरों की चिंता किए बिना (वैसे अब डॉक्टर भी घी खाने की सलाह देने लगे हैं!), आज बढ़िया पकवान खीर आदि बनाएँ और ऊपर से घी अवश्य डाल दें। अन्यथा अगले जन्म में घोंघा बनना तय समझें।
मर्जी आपकी।
"घ्यू त्यार" की बधाई।
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