भला की उत्पत्ति का इतिहास
रोचक है. माना जाता है कि यह संस्कृत के ‘भद्र’ से बना है .. भद्र > भल्ल >
भला. कुछ लोग मानते हैं कि इसी ‘भद्र’ से ‘भला’ का विलोम भाई ‘भद्दा’ भी बना है
... भद्र > भद्द > भद्दा. इसे भले को संस्कृत की एक और धातु ‘भल्’ से
निष्पन्न भी माना जा सकता है जिसका अर्थ है ‘देखना’. देखा जाए तो कम-से-कम
देख-भाल, देखना-भालना जैसे शब्दयुग्मों में तो भद्र की अपेक्षा ‘भल्’ अधिक निकट
लगता है.
संस्कृत में ‘भद्र’ के ही
अनुरूप हिंदी में भी ‘भला’ के बीसियों अर्थ-छबियों वाले प्रयोग मिलते हैं. विशेषण
के रूप में प्रायः इसका प्रयोग त्रुटि रहित, निर्दोष, विकार रहित, नेक, शरीफ़ आदि के
अर्थ में होता है और अनेक स्थितियों में यह अच्छा का समानार्थी या बुरा का विलोम
है, जैसे : अच्छा आदमी ~ भला आदमी, अच्छे लोग ~ भले लोग.
यह शब्दयुग्म भी बनाता है :
अच्छा-भला, भले-बुरे, भला-चंगा, भलमनसाई आदि. अव्यय के रूप में यह ‘भला’ भी अनेक अर्थछबियाँ
समेटे हुए है :
·
शर्त (चाहे) : लोग भले ही
निंदा करें किंतु..., भले तुम आज न मानो, कल मानना पडेगा.
·
व्यंग्य : ये भली रही.., भली चलाई तुम्हारी..
·
निषेध : वह भला क्या समझे!
(वह नहीं समझ सकता), भला मैं कैसे जानूँ! (मैं नहीं जानता)
·
धिक्कार, निंदा : धत, तेरा
भला हो.
·
बोलने का लहजा बदल देने पर
यह शुभ कामना का अर्थ भी दे सकता है : भगवान करे तुम्हारा भला हो.
अच्छा के भाई-बंदों में ही
एक है बढ़िया. यह संस्कृत की ‘वृध्’ धातु से बनी ‘बढ़ना’ क्रिया से विकसित विशेषण है
– वृध् > वर्द्ध > बड्ढ > बढ़ > बढ़िया. कुछ संदर्भों में, और एक सीमा
तक यह अच्छा के स्थान पर विकल्प से प्रयुक्त हो सकता है. जैसे :
·
आम अच्छा है ~ आम बढ़िया है.
वह अफसर अच्छा है ~ अफ़सर बढ़िया है.
कभी-कभी तुलना में दूसरे से
अच्छा बताने के लिए भी बढ़िया का प्रयोग होता है जैसे :
·
यह साड़ी देखिए, यह बढ़िया है
(पहले वाली से अच्छी साड़ी). अबकी बढ़िया चाय पिलाऊँगी (पिछली चाय की अपेक्षा अच्छी
चाय).
तुलनात्मक रूप से अच्छा
बताने के लिए हिंदी में आम तौर पर ‘उससे/उसकी अपेक्षा अच्छा’ या चरम अवस्था बताने
के लिए ‘सबसे अच्छा’ पदों का प्रयोग होता है.
कुछ स्थितियों में हम संस्कृत के तत्सम शब्दों उत्तम और श्रेष्ठ/श्रेष्ठतम
का भी प्रयोग करते हैं. उत्तम तो सीध-सीधे उपसर्ग ‘उत्’ से ‘तम’ प्रत्यय जोड़कर बना
लिया गया है. ‘श्रेष्ठ’ संस्कृत में चरम (सुपरलेटिव) अवस्था का ही सूचक है, हम
हिंदी वाले उसके सिर पर ‘तम’ का अवांछित भार लादकर उसे डबल-सुपरलेटिव ‘श्रेष्ठतम’
(सबसे श्रेष्ठ) बना देते हैं और भूल जाते हैं कि जब श्रेष्ठ में चरम भाव है तो उसे
श्रेष्ठतम बनाने और अशुद्ध प्रयोग की क्या आवश्यकता है !
किंतु जीवित भाषा तो बहता
नीर होती है. वह व्याकरण की चिंता नहीं करती, भाषा के प्रयोक्ता ही उसका मार्ग
निर्धारित करते हैं. श्रेष्ठतम का प्रयोग खूब चल रहा है, और रहेगा. ऐसे ही और बहुत
से प्रयोग हैं जो हिंदी ने अपना लिए हैं, उनकी चर्चा फिर कभी.
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