भाषा में रुचि होना कभी-कभी ऐसा सिर दर्द उत्पन्न करता है जो माइग्रेन से भी भयानक हो। लहरें-सी उठती हैं और दर्द वाला बेचैन। कोई चिकित्सक न मिले तो दशा बिगड़ती जाती है। ये भौतिक चिकित्सक काम आते नहीं ।
ऐसा ही एक दर्द एक बार मेरे सिर में जन्मा। मान लिया मैंने कि यह तो ऐसी समस्या है जिसका कुछ बड़ा ही निदान होना चाहिए। आखिर आचार्य शंकर ऐसी व्याकरणिक अशुद्धि कैसे कर सकते हैं! बस, सिर घूम गया। सौभाग्य से उन दिनों राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद की अनेक गोष्ठियाँ साथ-साथ चल रही थीं। हिंदी-संस्कृत के बड़े - बड़े विद्वान पधारे थे। समाधान के लिए एक से एक शलाका पुरुष उपस्थित थे।
पहले मैंने परम विद्वानों के पास न जाकर अपने साथ दूसरी पंक्ति के सहयोगियों के सामने निवेदन किया कि भाई शंकराचार्य ऐसी गलती कैसे करेंगे! वे भी सुनकर चौंके। बात आगे बढ़ी। एक हमारे अभिन्न आदरणीय मित्र जो अब दिवंगत हो गए और तब एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एमेरिटस थे, उन से निवेदन किया। थोड़ी देर विचारनेके बाद उन्होंने कहा आचार्य शंकर का प्रयोग है, सो आर्ष प्रयोग मान कर चलिए। हम तो कुछ भी मानने को तैयार थे फिर भी एक और सम्मति ले ली जाए।
एक आदरणीय, परम सौम्य और विद्वान, जो तब एक विश्वविद्यालय के उपकुलपति थे, उन से निवेदन किया कि व्याकरण की यह अशुद्धि आचार्य शंकर कैसे कर सकते हैं? बस शंकराचार्य जी का नाम सुनना था कि वे अधिक सजग हो गए। मौन कुछ अधिक खिंचा और उत्तर मिला, "आर्ष प्रयोग ही समाधान हो सकता है।"
हमने मान लिया।
घर लौटे लेकिन मस्तिष्क में कीड़ा कुलबुला ही रहा था। बाधा पूरी तरह शांत नहीं हुई थी। रात के लगभग 11 बजे का समय हो गया था। एक घनिष्ठ मित्र की याद आई जिनसे "तुम - तड़ाक्" के संबंध थे। सोचा उनसे पूछा जाए, फिर रुका कि सो गए होंगे। इस समय जगाना ठीक नहीं, किंतु बेचैनी थी कि फोन कर ही लिया। काफी देर घंटी बजने के बाद फोन उठाया गया। अनमनी- सी आवाज आई।
हमने कहा, "सो गए थे क्या?"
"अरे, इब तो जगा ही लिया, बोलो कौण सी मुसीबत आ गई?"
हमने अपनी समस्या परोस दी तो बोले "तुम्हारे सिर पर अगर किसी जाट के दो लट्ठ बजे होते तो तुम्हारी समझ में कब का आ गया होता।"
हमने हिम्मत की, "भाई, फोन पर ही सही, तुमने मार तो दिए दो लट्ठ। अब यह 'लट्ठ फॉर्मूला' समझा भी दो।"
"समझ तो कम है ही तुम्हारी। तो सुनो, दो लट्ठ हैं - लट् लकार और द्विवचन । उन्हें देखो और सोने दो।"
उन्होंने रिसीवर रख दिया। हमारे ज्ञान तंतु खुले कि यह तो सचमुच लट् लकार द्विवचन का रूप है! "आयातः" तो द्विवचन ही है और हम मान बैठे थे "शिशिरवसंतौ" द्विवचन के साथ "आयातौ" द्विवचन (क्तान्त) क्यों नहीं बना, "आयातः" एकवचन क्यों लिखा गया? चूँकि शंकराचार्य जी का नाम समस्या से जुड़ गया था, इसलिए सभी उत्तर देने वाले समस्या सुनते ही आवश्यकता से अधिक सावधान सजग हो जाते थे और आर्ष प्रयोग ओर की ओर भाग रहे थे।
माइग्रेन पैदा करने वाला श्लोक यह था, "चर्पटपंजरिका" से --
दिनमपि रजनी सायं प्रातः
शिशिरवसंतौ पुनरायातः |
कालः क्रीडति गच्छत्यायु-
स्तदपि न मुंचत्याशावायुः ||
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