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गुमानी को याद करते हुए

गुमानी खड़ीबोली हिन्दी के पहले, कवि ठहरते हैं।  हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी के प्रथम साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र माने जाते हैं ध्यान देने की बात है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र के जन्म से चार वर्ष पूर्व गुमाान जी का निधन हो गया था। यह बात और है कि हिन्दी के इतिहास लेखकों को शायद गुमानी की हिंदी रचनाओं के बारे में मालूम नहीं था या कोई पूर्वाग्रह था कि हिंदी साहित्य के इतिहास में गुमानी का नाम उल्लेख नहीं है. महत्वपूर्ण बात यह भी है कि वे अंग्रेजों के सामने ही उनके शासन की आलोचना कर रहे थे और उन्हें बता रहे थे कि अगर कोई वीर राजा हिन्दुस्तान में होता तो तुम यहाँ न होते. 
उनकी दो रचनाएँ नमूने के लिए पेश हैं : (इनमें हिन्दी का निखरा रूप भी देखने योग्य है.)
दूर विलायत जल का रस्ता करा जहाज़ सवारी है
सारे हिन्दुस्तान भरे की धरती वश कर डारी है
और बड़े शाहों में सबमें धाक बड़ी कुछ भारी है
कहे गुमानी धन्य फिरंगी तेरी क़िस्मत न्यारी है ||

विद्या की जो बढ़ती होती फूट न होती राजन में 
हिंदुस्तान असंभव होता बस करना लख बरसन में।
कहे गुमानी अंग्रेजन से कर लो चाहो जो मन में।
धरती में नहीं वीर, वीरता दिखाता तुम्हें जो रण में।
कुछ विद्वान गुमानी जी की जन्म तिथि कुम्भार्क २७ गते, बुधवार कहकर फरवरी सन १७९० बताते हैं | इसमें कुछ गड़बड़ है ! सच है कि तब सन/तारीख़ का आम चलन नहीं था, विशेषकर उत्तराखंड में जन्म कुंडलियों में तो आज भी भारतीय पंचांग – विक्रम या शक संवत– का प्रयोग होता है, पर एक प्रकार के कलेंडर को दूसरे में बदला तो जा सकता है | इस पर कुछ विचार करने की आवश्यकता है |
गुमानी ने जिन अंग्रेजों को आईना दिखाने में कोई कसर नहीं छोडी, राजसत्ता के सिपहसालारों-अमलों को बेनक़ाब किया उन्होंने ही १७९० में गुमानी की पहली जन्म शताब्दी मनाई क्योंकि वे जानते थे कि गुमानी की रचनाएँ कितनी लोकप्रिय हैं | उसी क्रम में रैम्ज़े स्कूल, अल्मोड़ा के संस्कृत अध्यापक पिथौरागढ़ के निकट छाना गाँव के देवीदत्त पांडे को गुमानी की यत्र-तत्र बिखरी रचनाओं का संग्रह कर उन्हें प्रकाशित करने का काम आयोजकों द्वारा सौंपा गया|
देवीदत्त पांडे ने अपने संग्रह में लिखा है :
 “...श्रीमद्विक्रमीय संवत १८४७, कुम्भार्क गते २७, बुधवार के दिन ...” | कुम्भार्क गते २७, का अर्थ हुआ फागुन २७ पैट | कुम्भार्क अर्थात फागुन प्रायः १२-१३ फरवरी से प्रारंभ होता है । अतः २७ पैट फागुन फरवरी में नहीं, मार्च में होना चाहिए | 
अब सन १७९० का ग्रेगोरियन कलेंडर देखें | यहाँ फरवरी में बुधवार ३, १०, १७, २४ तारीखों को है | १७ से पहले ही चैत प्रारंभ हो जाता है, इसलिए बचे ३ और १० | ३ फरवरी को फागुन २७ होना तभी संभव है जब माघ महीना १९ ही दिन का हो और फागुन ५ फरवरी से शुरू हो जाए, जो संभव नहीं है| इसलिए १० मार्च, १७९० ही गुमानी जी की जन्म तिथि ठहरती है |
गुमानी की कविता में दृश्य बिम्ब, स्पर्श बिम्ब, उपमा और सामान्य-से वर्ण्यविषय को भी विशेष बना देने का कौशल के ये 
चित्र दर्शनीय हैं। बिशा (विश्वंभर) जोशी जी के गले पर घेंघा (गण्ड >गान) कुछ इस प्रकार शोभायमान है:
''रानो गोलमटोल साफ़ सुतरो नारिंग दाणो जसो ,
कौंलो भौत रुवा जसो कुतकुतो भटको भेकूना जसो ,
बाईं तर्फ मणी मणी निकलियो अटको नशाजाल में 
ऐसो गान सुभायमान गलि में क्या कूँ बिशा जोशि को !"

 गुमानी महाभारत के यक्ष युधिष्ठिर संवाद की याद दिला देते हैं जब वे सुखी संतोषी जीवन को इस प्रकार परिभाषित करते हैं:
कुण् कुणो रोट् हो कणिक-मडुव को हो साग या लूँण हो 
घर को घ्यू आङुलेक हो भुटण हूँ या तेल चोख्यूँण हो 
ह्यूना म्हेंण प्रभात घाम देलि में या ब्याल को तैल हो 
बाड़ो लग कुनुको सदा साग हरियो मैलो भलो गैल हो 
निक् लुकुडा हतकान बिन खसम की जो घीण ज्वे कन नि हो 
ये है लग खुशि नें सिवाय घर में जो रींण कतुकै नि हो ||
गुमानी की यह रचना उनकी ग्रंथावली में नहीं है. इसकी तुलना महाभारत में यक्षप्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर के इस कथन से की जा सकती है. 
पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा शाकं पचति स्वे गृहे । 
अनृणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते ||

हास्य व्यंग्य की यह झलक दर्शनीय है।यजमान ने पूजा करवाने के लिए पंडित विश्वेश्वर जोशी जी (बिशा ज्यू) को निमंत्रित किया | यजमान की पत्नी की कृपा से दक्षिणा में मिलीं ‘गडेरी’ की दो गाँठें (द्वी भुड़) | पंडित जी पर क्या बीती होगी !
गुमानी जी ने उसे कुछ इस तरह बयाँ किया है 
जजमान भोला परपंचि नारी ।
द्वी भुड़ गडेरी में द्यो पूजा सारी ।
रिसानी-खिसानी विशा ज्यू रिसानी ।
यो वॄत्ति देखी मन में गिलानी ।
हरि ओम् तच्छत कै पुन्तुरी थामी ।
नमः शिवायेति समर्पयामी ।
समकालीन सन्दर्भों में गुमानी की प्रासंगिकता एक लोकोक्ति के प्रयोग से समझी जा सकती है 
हिसालु की बान बड़ी रिसालू,
जाँ जाँ जाछे उचेड़ि खाँछे।
यो बात को कोइ गटो नि मानौ,
दुद्याल की लात सौंणी पडन्छे।।
(दुधारू गाय की लात भी सहनी पड़ती है )

गुमानी जी का यही एक मात्र चित्र उपलब्ध है जिसे मैंने जनवरी 1979 में "उत्तरीय" के विशेषांक में प्रकाशित किया था। इसे अल्मोड़ा से श्री सुधीर शाह के सौजन्य से प्राप्त किया गया था। चित्र के बारे में उनका कहना था कि उन्हें यह कैम्ब्रिज से डॉ रेगन के निजी संग्रह से प्राप्त हुआ था जिसके आधार पर राजेंद्र बोरा से रेखांकन कराया गया था।
"उत्तरीय" से लेकर इसका पहला सार्वजनिक प्रदर्शन कु वि वि नैनीताल में गुमानी जी की द्विशताब्दी के आयोजन में किया गया था जिसमें मैंने भी आलेख वाचन किया। उन्होंने मंच से इसका "उत्तरीय" से प्राप्त होना स्वीकारा था। 
तब से आज तक इस चित्र का अनेक स्थानों पर उपयोग हुआ है। परंतु किसी ने भी न तो औपचारिक आभार/सौजन्य व्यक्त किया, न स्रोत का उल्लेख किया। गूगल में कुछ स्थानों पर तो मैंने पाया कि चित्र पर कॉपी राइट का या अपनी वेबसाइट का भी उल्लेख किया गया है!
कविवर गुमानी पंत की जन्म जयन्ती पर श्रद्धांजलि देते हुए अबोधबंधु बहुगुणा ने अपने उद्गार इस प्रकार व्यक्त किए हैं :
 "कोदे की मोटी रोटी में नित नमक लगाकर 
खाते देखा था तुमने गिरिवासी का घर-घर 
लाद पीठ पर औरों का ही सामान हाँफते,
देखा था तुमने मानव को तब भ्रांत काँपते |
देखा था गोरख्याणी के भीषण संग्रामों को
मुट्ठी में बंद डरे-हारे सब गिरि -ग्रामों को ।
धन-धान्य निरंतर नेपाल हमारा जो ढोते
केश-हीन देखे तुमने लोगों के सिर होते |
गिरिप्रदेश में घुसते देख फिरंगी को तुमने
होते लाल क्रोध से काफल देखे थे वन में
हे जन-जन के मन को वाणी देने वाले कवि!
गढ़वाल-कुमाऊँ के पावन पर्वत प्रदेश की छबि __
स्मृति सी सदा तुम्हारे सम्मुख रहती थी अंकित 
करते थे तुम जन प्रवाह को उद्वेलित गर्जित |
स्वच्छंद पहाड़ों में अंग्रेजों के डेरे में 
डरती थी आजादी बंदूकों के घेरे में ।
वासव कवि ने तब अंग्रेजों से टक्कर ली थी 
उस स्वाभिमान को तुमने निर्भय वाणी दी थी |
°°°
दो सौ वर्ष बाद फिर अर्थव्यवस्था के दंशन 
सहते रहते हम बेकारी के क्रूर आक्रमण 
लोग हो गए विवश छोड़ने को घर अपना 
ऊँचे गिरि-शिखरों में कोई नहीं चाहता रहना |
चहक खगों की रंग कुसुम के , जल की शीतलता 
विह्वल हैं सब अंध पवन-घन सूरज है ढलता 
भंग गिरिस्थाओं की शान्ति हो गई प्रतिपल 
मौन निहार रहे हैं हम सूखी खेती में बादल |
बिखर-सिहर रहा है उन्नत उत्तराखंड हमारा 
वृक्षहीन उपत्यकाओं में जलता है घर सारा 
करती आज व्यवस्था केवल अपना ही पोषण
झूठे आश्वासन करते जनता का शोषण
तुम होते आज गुमानी ! तो आवाज़ उठाते,
हर रोज पर्वतीयों को उनके हक की याद दिलाते |
दर्शन, ज्योतिष, आयुर्वेद और संस्कृत साहित्यशास्त्र के विद्वान, हिंदी, कुमाईं के प्रथम कवि, संस्कृत काव्यकार लोकरत्न पन्त ‘गुमानी’ को सच्ची श्रद्धांजलि होगी बहुत सी भाषाओं में निपुणता पाने पर भी अपनी दुद्बोली से लगाव बनाए रखना |

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