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देवर और ननद

देवर बोले तो..🌷
वस्तुतः देवर संस्कृत के 'देवृ' शब्द से बना है। उत्तर भारत की प्राय: सभी भाषाओं में यह थोड़ा बहुत रूप बदलकर प्राप्त होता है। यह जानना रोचक होगा कि देवर भारोपीय भाषा का बहुत पुराना शब्द है।  इसके सजातीय शब्द (कॉग्नेट्स) लिथुआनियाई , रूसी,  हिब्रू आदि भाषाओं में इसी अर्थ में मिलते हैं।
प्रवचन शैली में देवर की व्युत्पत्ति प्रायः इस प्रकार की जाती है,  "द्वितीयः वरः"। कुछ लोग इसका हल्का अर्थ क ७रते हैं- वर का अर्थ केवल पति (हस्बैंड, स्वामी, रखवाला) मानकर। वर ३*का वास्तविक अर्थ है श्रेष्ठ। पति भी केवल इसीलिए वर है कि वह पत्नी के लिए अन्य से श्रेष्ठ है। इसलिए यह प्रथम वर है और देवर उसके बाद का, दूसरे नंबर का वर अर्थात् श्रेष्ठ है,‌ पति नहीं।
एक और व्युत्पत्ति √दिव् (चमकना) से देवर शब्द को0vvqb,66,j जोड़ती है "दीव्यते अनेन इति", अर्थात् जिसे देखकर चेहरे पर चमक आ जाए, जिसके साथ मन खिल उठे, वह देवर। ससुराल में नई आई बहू से उम्र में छोटा होने के कारण बहू इसके स्नेह से खिल उठती है। इसलिए वह देवर है।


ननद
अब बारी ननद की। संस्कृत में एक धातु है √नन्द् (प्रसन्न करना, होना), आनंद शब्द इसी से बना है। भारतीय भाषाओं में इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है: संस्कृत ननन्दृ (ननान्दा) > सौरसेनी प्राकृत 𑀡𑀡𑀁𑀤𑀸‎  > हिंदी ननद। इसी से नेपाली नन्द‎,  गुजराती નણંદ‎, मराठी नणंद‎ बने हैं। अन्य भारतीय भाषाओं में भी इसी से मिलते-जुलते शब्द हैं।
हिंदी में ननद और कुमाउँनी में नन्द इसी से बने है, लेकिन अर्थों पर ध्यान दें तो लगता है कितना अंतर है! ननद < न नन्द अर्थात् जिसे खुश करना कठिन, जो भाभी से कभी खुश न रहे ( न नन्दति इति ननान्दा); दूसरी ओर पहाड़ी में इसी रिश्ते को कहा जाता है नन्द = भाभी से प्रसन्न/ खुश रहनेवाली! और जिसे देखकर भाभी भी आनंदित रहे।
 

टिप्पणियाँ

  1. दोनों ही अर्थ सठीक है । ननदे कभी कभी सखी की तरह आचरण करती है और कभी कभी कोई कोई ननदे शत्रुओ की तरह भी करती है ।
    शास्त्रीय संगीत में नंद और आनंद दोनों ही राग है । फिर उनके भेद वगैरह भी है । जिनकी रुचि है उनके लिए आनंद और जिनको नही है उनके लिए कष्ट का कारण होती है ।
    बहुत सुंदर व्याख्या आपकी ।
    प्रणाम

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