मच्छर, खटमल
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खून चूसने वाले कीटों में मच्छर बहुत प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण हो चला है, इतना महत्वपूर्ण कि करोड़ों करोड़ का व्यवसाय मच्छर मारक रसायनों का, मलेरिया से होने वाले रोगों से बचाव की दवाइयों का चल रहा है और लोग मालामाल हो रहे हैं। मच्छर के चलते लोग खटमल (bed bug), खटकीरा, पिस्सू (flea), जूँ (louse) आदि को भूल गए हैं; जब कि रक्त शोषण में योगदान इनका भी कम नहीं रहा।
कहते हैं पांडेय बेचन शर्मा "उग्र" गोरखपुर से लौटे तो बनारसीदास चतुर्वेदी जी ने पूछा गोरखपुर में तो मच्छर बहुत हैं आप कैसे सो पाए? "उग्र" जी, जो अपने व्यंग्य के लिए जाने जाते थे, तुरंत बोले- भाई, मच्छरों ने बहुत ज़ोर लगाया कि मुझे आसमान में ले चलें, किंतु धन्यवाद खटमलों का कि वे उतने ही ज़ोर से नीचे खींचते रहे और इस तरह मैं खटिया पर बना रहा।
खटमल के आतंक से दुखी एक संस्कृत कवि को कहना पड़ा कि लक्ष्मी जी कमल पर, शिव हिमालय में और विष्णु क्षीर सागर में खटमलों के डर से ही तो सोया करते हैं, नहीं तो ये कोई सोने की जगहें हैं।
कमले कमला शेते, हरश्शेते हिमालये
क्षीराब्धौ च हरिश्शेते, मन्ये मत्कुण शङ्कया॥
मन्नन द्विवेदी गजपुरी की एक कविता की शुरू की दो पंक्तियाँ हैं:
सुनिए महाराज खटकीरा,
आप न जानें परपीरा॥
जो स्वयं रक्त चूषक हो, वह पराई पीर क्या समझे! यह बात आज के पढ़े-लिखे रक्त चूषकों को भी समझ नहीं आती।
एक कहावत घाघ/भड्डरी की इस प्रकार बताई जाती है,
"ई दुनिया माँ तीन कसाई
खटमल, पिस्सू, बाम्हन भाई।"
(जाति सूचक शब्द को अन्यथा न लें, कहा जाता है घाघ भी "बाम्हन" ही थे!)
श्रीमान मच्छर को संस्कृत में मशक कहा गया है, जो संक्षेपण से मश हो गया। कानों के पास ये भी अपना मधुर संगीत वैसे ही प्रस्तुत करते हैं जैसे मशक बीन। पता नहीं मशक(फ़ा)बीन बाजे और मशक(सं) में भाषा संबंध क्यों नहीं है। इनके कल कंठ की प्रशंसा एक संस्कृत कवि ने की है। इस सुभाषित में एक दुष्ट व्यक्ति के आचरण की तुलना मच्छर के स्वभाव से की गई है-
प्राक् पादयो: पतति, खादति पृष्ठमांसं
कर्णे कलं किमपि रौति शनैविर्चित्रम्।
छिद्रं निरूप्य सहसा प्रविशत्यशङ्क:
सर्वं खलस्य चरितं मशक:करोति॥
- सुभाषित रत्नाकर
(मच्छर या दुष्ट व्यक्ति पहले चरणों पर लोटता है, फिर धीरे से पीठ पीछे के मांस को खाता है, कानों के पास आकर चाटुकारिता के मधुर और विचित्र गीत धीरे-धीरे गुनगुनाता है, फिर आपके उघड़े बदन या आचरण की कोई कमी देखकर निशंक होकर आपको हानि पहुँचाता है।)
मच्छरों के आतंक से बचाने के लिए मशहरी का उपयोग काफी पुराना है। मच्छरों को दूर रखने में सहायक होने के कारण इसे "मशकहरी" कहा गया। मशकहरी > मशहरी से बना मसहरी। संस्कृत के कोशों, वाचस्पत्यम् और शब्दकल्पद्रुम में "मशहरी" का भी उल्लेख हुआ है- "मशकनिवारकप्रावरणविशेषः", मच्छरों का निवारण करने वाला विशेष पर्दा।
डसने का स्वभाव होने के कारण मच्छर को दंशक भी कहा गया है। संस्कृत दंश से प्राकृत में बना डंस और हिंदी, मराठी तथा अनेक भाषाओं में डाँस। कहीं-कहीं डाँस और मच्छर में अंतर भी किया जाता है - बड़ा मच्छर डाँस और छोटा मच्छर या माछर। मच्छर शब्द संस्कृत मत्सर से व्युत्पन्न है। यों मत्सर का अधिक प्रचलित अर्थ ईर्ष्या, द्वेष, जलन से है। मच्छर से पीड़ित व्यक्ति कुछ ऐसा होता है जिसके लिए तुलसीदास ने कहा है
"ऊँच निवासु नीच करतूती
देखि न सकइँ पराइ विभूती।"
मत्सर और मच्छर में समान गुणधर्म है जलन- चाहे किसी की उपलब्धि से हो, चाहे किसी के दंश से।
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