मुहावरा शब्द मूलतः तो अरबी भाषा का है| इसके बदले जो भी शब्द हिंदी में चलाने के प्रयास हुए वे सब व्यर्थ रहे| ‘वाक्-पद्धति', ‘वाक् रीति’, ‘वाक्-व्यवहार’ और ‘विशिष्ट स्वरूप' को संस्कृत और हिंदी में अपनाना चाहा। पराड़कर जी ने ‘वाक्-सम्प्रदाय’ को मुहावरे का पर्यायवाची माना। काका कालेलकर ने ‘वाक्-प्रचार’ को ‘मुहावरे’ के लिए ‘रूढ़ि’ शब्द मानने का सुझाव दिया, पर मुहावरा ही हिंदी वालों के मुँह लगा और फिर सिर पर बिठा लिया गया| संस्कृत में भी इसका कोई ठीक-ठीक पर्याय नहीं है पर इसका अर्थ यह नहीं कि संस्कृत में मुहावरे नही हैं| ननु न च (टालने के लिए तर्क करना), दशमो ग्रहः (जामाता/जंवाईं), अर्द्धचंद्र दानं थप्पड़ लगाना), क्षते क्षारमिव (जले पर नमक), अरण्य रोदनं (जंगल में प्रलाप) आदि ऐसे अनेक संस्कृत मुहावरे हिंदी में आगए है| सच तो यह है कि कोई भी भाषा जीवित रहेगी तो उसमे मुहावरे बनेंगे ही|
जैसा कि सब मानते हैं, मुहावरे में प्रयुक्त शाब्दिक (कोशीय) अर्थ उसके वास्तविक अर्थ को स्पष्ट नहीं करते, उन घटक शब्दों के आधार पर संकेतित किसी लाक्षणिक अर्थ के लिए वे रूढ़ हो जाते हैं| जूते खाना, जान हथेली पर रखना, कब्र में पैर लटकाए होना को ही देखें : जूते खाने की चीज नहीं, जान ऐसी चीज नहीं जिसे हथेली पर रखा जाए, जीवित आदमी कब्र में पैर लटकाकर बैठेगा नहीं| सो केवल रूढ़ अर्थ लिया जाता है जो क्रमशः होगा - अपमानित होना, जान की परवाह न करना, मृत्यु निकट होना आदि...|
गाँव – देहात के मुहावरे
मुहावरों के लिए सबसे उर्वर भूमि है हमारा लोकमन | भारत में इस “लोक” का सबंध चूंकि नागरी संस्कृति की अपेक्षा ग्राम्य संस्कृति से अधिक रहा है, इसलिए अधिकांश मुहावरे भी इसी ग्राम्य अंचल के उत्पाद है| चूंकि मुहावरे मूलतः ग्राम्य जीवन और बोली से उपजे हैं, इसलिए लोग उनमे शिष्टता-अशिष्टता ढूँढने लगते हैं जो वस्तुतः विशेष महत्व नहीं रखती। अक्सर इनका उपयोग बोलचाल में, दो व्यक्तियों के बीच होता है इसलिए दोनों की उम्र, अनुभव, घनिष्ठता, परिवेश, मनोविज्ञान आदि के आधार पर भले ही अशिष्ट मुहावरों का उपयोग हो, लेकिन प्रयोग करने वाले को या सुनने वाले को न केवल कोई असभ्यता महसूस नहीं होती, बल्कि लगता है उस परिस्थति विशेष में वही विशेष मुहावरा सबसे अधिक व्यंजक है। हां, बोली में असभ्य कहे-समझे जाने वाले मुहावरे प्रायः लिखित भाषा में सभ्य स्वरूप ले लेते हैं।
ग्रामीण परिवेश को समझे बिना ऐसे मुहावरे समझना कठिन हो जाता है, यद्यपि उनका प्रयोग चलता रहता है| हाथ के तोते उड़ जाना, अपना उल्लू सीधा करना, सांड-सा डोलना, काली कमरी, आवा बिगडना, गुड़ गोबर करना, भट्टा बैठना, बिल्ली के भागों छीका टूटना, तेली का बैल, दहलीज का कुत्ता, धोबी का कुत्ता, ऊसर में बीज डालना, खेती लेट जाना, खीरा-ककड़ी होना, चलती गाड़ी में रोड़ा अटकाना, ढाक तले की फूहड़, बिजूके सी सूरत, ढाक के तीन पात, नया गुल खिलाना, भुस के भाव होना, सरसों फूलना, पेड़ गिनना, आम खाना, फूल-कांटे का साथ होना, मूली-गाजर की तरह काटना इत्यादि ऐसे मुहावरे है जो शहरीकरण और स्मार्ट सिटी संस्कृति में अपनी जड़ों को भूलते जाने को विवश हैं| हम इनका प्रयोग तो जब-तब करते हैं पर इनकी उत्पत्ति के कथा प्रसंगों से बिलकुल अनजान होते हैं|
शहरी मुहावरे
ऐसा भी नहीं है कि शहरी भूमि मुहावरों के लिए एकदम अनुर्वर हो| मुहावरे शहरी जीवन के भी हैं| सुर्खियों में रहना, हीरो बने घूमना, राॅकेट सा भागना, चश्मे का नंबर बदलना, रंगीन चश्मा, चौराहे पर नीलामी, भाव चढना, सेटिंग होना, मुट्ठी गरम करना, कुर्सी तोडना, कुर्सी की लड़ाई, कागजी काम, किस्तों में जीना, आटे-दाल का भाव, बैलेंस बिगाडना, बैलेंस शीट मिलाना, वीक-एंड-मस्ती, किराएदार सा रहना, वैलेंटाइन का गुलाब होना आदि सैकड़ों मुहावरे हैं जिनकी जडें शहरों में मानी जा सकती हैं|
उगते – उभरते मुहावरे
समकालीन विश्लेषण सरल नहीं होता किंतु कुछ प्रवृत्तियों पर गौर किया जा सकता है| जैसे यह तो मानना पड़ता है कि सम्पूर्ण हिंदी क्षेत्र राजनीतिक दृष्टि से बहुत सजग है| बस, मेट्रो, जलसा, जुलुस, बाज़ार, ढाबा, मेले-ठेले में कहीं भी दो - चार जन इकट्ठे हों तो अपने – अपने ढंग और अपनी - अपनी समझ से समसामयिक चर्चा होने लगती है| इनमें भी कुछ मुहावरे उगते - उभरते पाए गए हैं| उनमें ठेठ बोलियों के छोड़ भी दिए जाएँ तो सामान्य हिंदी बोलचाल में प्रायः ये सुने गए हैं – पाला बदली करना, नामदार बनाम कामदार, सिक्कुलर पंथी, नोटबंदी का मारा, पप्पूगिरी करना, फेंकना, छप्पन इंची हौसला, जुमले उछालना, जुमलेबाजी करना, परिवारवादी खान्ग्रेसी, मंदिर-मंदिर खेलना, अच्छे दिन आना, टिकट कटना, गंगा नहाना, झोला छाप, गोदी मीडिया, खांटी खंग्रेसी, सूपड़ा साफ़ होना, भगत होना, रायता फैलाना, भगवा करण, धूल चटाना, झोला छाप, थैली शाह, थैली खोलना , वोट बरसना, नोट दिखाना, रिटर्न टिकट, घर वापसी और ऐसे ही बीसियों मिल जाएँगे| राजनीति से हटकर अन्य अनुभवों के कुछ मुहावरे भी अधिक पुराने नहीं हैं, जैसे वीक-एंड-मस्ती, वैलेंटाइन का गुलाब होना, प्रोजेक्ट का मारा आदि |
वस्तुतः मुहावरों की उत्पत्ति जनसाधारण के जीवन-व्यवहारों के लिए आवश्यक भाषा की विलक्षणता की देन है। जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जिससे सम्बंधित मुहावरे न बने हों| सच तो यह है कि यह, ऐसी सतत प्रक्रिया है जो किसी भी जीवित भाषा में कभी नहीं थमती| आज भी हमारे आसपास हो रहे संवाद में मुहावरे बन रहे हैं| व्यक्तिगत व्यवहार में, समूह के साथ संवाद में, बाज़ार-व्यवहार में, सार्वजनिक परिवहन में जो भी, जैसी भी भाषा काम में लाई जा रही हो, उसके विविध सन्दर्भ, प्रयोग और छटाएं होती हैं| व्यक्तिभाषा के ही कुछ प्रयोग ऐसे होते हैं जो धीरे-धीरे स्थिर होते हैं और चुपचाप समूह भाषा के अंग बनते जाते हैं |
बहुत अच्छेे!
जवाब देंहटाएंसमीचीन है, बहुत बढ़िया।
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