संस्कृत की √जन् धातु से बने हैं जन, जनक, जननी, जनन, जन्म आदि तत्सम शब्द। उपसर्ग-प्रत्यय लगने पर इस जन से और बहुत से शब्द बनते हैं - दुर्जन, सज्जन, स्वजन, जनशून्य, निर्जन (जनहीन), विजन (बीरान), परिजन, कुटुंबी जन, महाजन आदि। यों तो जन शब्द पुल्लिंग-स्त्रीलिंग दोनों के लिए आ सकता है किंतु हिंदी में जना (एक) पुल्लिंग शब्द है जिससे बहुवचन बनता है जने। जैसे: एक जना इधर आओ, दो जने बैठे रहो।
हिंदी में अब प्रायः स्वजन और परिजन को समानार्थी मान लिया गया है, जबकि शब्द रचना की दृष्टि से दोनों भिन्न हैं। स्वजन में अपने (स्व) कुटुंब के रक्त संबंधी, पति-पत्नी, माता-पिता, चाचा, ताऊ, मामा आदि कुटुंबी जन ( वे उसी कुटुंब में न रहकर देश-विदेश में कहीं भी हो सकते हैं), आत्मीय, नाते - रिश्तेदार आएँगे।
मिथिला के समाज में स्वजन-परिजन में पर्याप्त विभेद है रीति रिवाज, मान्यताओं और खानपान आदि सामाजिक व्यवहार में। विभेद से इतना तो स्पष्ट है कि स्वजन में निकटतम बांधव और संबंधी आते थे, परिजनों में स्वजनेतर। पहले ज़माने में कुमाऊँ में भी यह भात-भेद बहुत था।
'परि-' उपसर्ग परितः, चारों ओर, आसपास के अर्थ में आता है । इसलिए परिजन स्वजन नहीं है । परिजन वे हैं- जिनसे आप दैनंदिन घिरे रहते हैं । सेवक, परिचित मित्र , चौकीदार, टहलुए, माली, धाय, काम वाली बाई, ड्राइवर आदि परिजन की परिधि में आएँगे।
स्वजन के समकक्ष कुटुंबी जन हो सकता है जिसमें पत्नी, बाल- बच्चे, माता-पिता आदि वे सब आ सकते हैं जो एक कुटुंब के सदस्य हैं। परिजन का अर्थ विस्तार कर उसे स्वजन का समानार्थी मान लिए जाने के पीछे मुख्य कारण यह लगता है कि कुटुंब और परिवार को समानार्थी मान लिया गया। इसलिए परिजन को परिवार के जन मानकर उसका लाघव करके मुखसुख के लिए समास से परिजन कर दिया गया है जो हिंदी में स्वजन या कुटुंबी जन के पर्याय के रूप में चलाया जा रहा है। चाहें तो इसे संक्षिप्तीकरण (abbreviation) भी कह सकते हैं
है तो यह खींचतान, लेकिन जो चला वह सिक्का। सो परिजन चल रहा है स्वजन के लिए। व्युत्पत्ति या शब्दरचना की दृष्टि से सही नहीं है। जो भी मानिए, इतना कीजिए कि स्वजन का उच्चारण 'श्वजन' न सुनाई दे।
मिथिला में स्वजन परिजन के बीच एक मोटी लकीर खींची गई थी जो २०वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक सख्त थी और कालांतर में सिकुड़ती चली गई।
जवाब देंहटाएंनमकयुक्त भोजन सिर्फ स्वजनों को मिलता था परिजनों के लिए हमेशा अचला सप्तमी ( मिथिला में उस दिन नमक सेवन नहीं करते हैं) ही रहता था। बारातियों को भी नमकयुक्त भोजन नहीं प्राप्त होता था। दुल्हे के परिवार को स्वजन बनाने की एक रस्म होती थी जिसमें कन्यापक्ष की औरतें गीत गाती थीं और गाली वाली गीत (डहकन) गाने की भी प्रथा थी। दुल्हे पक्ष को दो जोड़ी धोती मिलती थी, एक स्वजन बनाने के लिए और दूसरा विवाह के लिए।
नमक को जब मुक्त (बिना सत्याग्रह) मुक्त किया गया तब भात (चावल) सिर्फ़ स्वजनों को मिलता था परिजनों को पूरी सब्जी, दही चूड़ा मिलता था। स्वजन बनाने की उपरोक्त वर्णित प्रक्रिया कायम रही।
मिथिला में अब यह स्वजन परिजन की परंपरा लगभग समाप्त है।
मिथिला के समाज में स्वजन-परिजन के इस विभेद से इतना तो स्पष्ट है कि स्वजन में निकटतम बांधव और संबंधी आते थे, परिजनों में स्वजनेतर। पहले ज़माने में कुमाऊँ में भी यह भात भेद बहुत था।
जवाब देंहटाएंजानकारी बढ़ाने और ब्लॉग पर पधारने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
परिजन का अर्थ परिवार के आश्रित वर्ग ( नौकर चाकर इत्यादि) से बोध होता है । धीरे धीरे कभी कभार वे परिवार के मूल स्वजन वृत्त में शामिल हो जाते थे काफी अग्नि परीक्षा यानी अपनी उपयोगिता की अनिवार्य प्रामाणिकता देने के पश्चात ।
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