व्रत
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भक्ति, साधना या किसी धार्मिक अनुष्ठान और नियम पालन के लिए दृढ़ संकल्प पूर्वक किया गया कोई विधान व्रत कहा जाता है। सत्यव्रत, पतिव्रत, ब्रह्मचर्य व्रत, एकादशी, पूर्णिमा, रामनवमी आदि ऐसे ही व्रत हैं जिनमें एक विशेष प्रकार का आचरण अपेक्षित होता है। भोजन करने या न करने से इसका विशेष संबंध नहीं। यह तो किसी उद्देश्य के लिए किया गया एक प्रण, संकल्प (resolve) है। दिनभर भोजन न करना अथवा स्वल्प भोजन (उपवास) भी उस आचरण का एक अंग हो सकता है, जैसे एकादशी, प्रदोष या सत्यनारायण व्रत में।
उपवास
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उपवास (उप+√वस्) का मूल अर्थ तो अपने आत्म, आराध्य, गुरु या मंत्र के निकट होने, वसने के लिए किया जाने वाला विशेष आचरण था जिसमें भोजन सहित अनेक सुविधाओं को त्यागकर एकोन्मुखी होना उद्देश्य होता था। धीरे-धीरे यह भोजन न करने का पर्याय हो गया। धार्मिक दृष्टि से या किसी सामाजिक - राजनैतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भोजन न करने (अनशन) के अर्थ में भी आज उपवास शब्द का प्रयोग होता है। जैसा कि कहा गया, उपवास समग्र व्रत-विधान का एक अंग भी है।
आगे जब यह भोजन न करने का पर्याय हो गया तो राजनीतिक अस्त्र के रूप में भी प्रयुक्त होने लगा। उपवास भोजन न करना, अनशन नहीं है। मूलतः यह अपने आप के, आराध्य के निकट होना है।
अनशन
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जब हम अनशन करेंगे तो आत्म या आराध्य के निकट नहीं, पूरे समय अपने शरीर के पास रहेंगे। अनशन (अन् +अशन) का तात्पर्य ही यही है कि नहीं खाना, जबकि खाने का विचार दिनभर घूम - फिर कर मन में आता रहता है। ऐसे में दिन भर शरीर के पास ही मन घूमेगा। बार-बार विचार आएगा कि भूख लगी है, प्यास लगी है। ऐसे अनशन वाले कथित उपवास में लोग फल, मेवा, मिठाई आदि खाते हैं; चाय, कॉफी, दूध पीते हैं। इस प्रकार देखा जाए तो उपवास से अनशन तो बिलकुल उल्टा है। दोनों में भोजन नहीं किया जाता, फिर भी दोनों उल्टी ही बातें हैं, क्योंकि अनशन में आदमी शरीर के पास रहता है- चौबीस घंटे, जितना कि खाना खाने वाला भी नहीं रहता। उपवास में उसे शरीर के बारे में सोचने का अवकाश ही नहीं होगा क्योंकि वह आत्मा के या आराध्य के समीप होगा शरीर के नहीं यही अंतर अनशन और उपवास में माना जाना चाहिए।
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