इनने-उनने
उन्होंने के स्थान पर 'उनने' और इन्होंने के स्थान पर 'इनने' का प्रयोग विशेषकर कुछ पत्रकारों में कभी-कभी दिखाई देता है। यह अटपटा इसलिए लगता है कि हिंदी में यह मानक नहीं है और लोक में भी अधिक प्रयोग नहीं मिलता; पर यह अशुद्ध है नहीं।
हिंदी के दो दिग्गज हस्ताक्षर मुझे याद आते हैं जो 'इनने', 'उनने' का प्रयोग किया करते थे। सुप्रसिद्ध हिंदी पत्रकार प्रभाष जोशी और लेखक प्रभाकर माचवे।दोनों ही मालवा से थे। किसी गोष्ठी में एक बार मैंने इनने/उनने प्रयोग के बारे में प्रभाष जोशी जी से पूछा तो कुछ टालते हुए अंदाज़ में उन्होंने कहा, "इसे हिंदी को मालवा का योगदान समझिए।"
सच यह है कि केवल मालवी में ही नहीं, कौरवी, ब्रज, बुंदेलखंडी आदि कुछ बोलियों में "इनने/उनने" रूप मिलता है जो अटपटा ही सही, किंतु तर्कसंगत है और इसे व्याकरण की दृष्टि से एक ही साँस में अशुद्ध भी नहीं कहा जा सकता। एक दृष्टि से इन्हें अधिक शुद्ध कहा जा सकता है!
सर्वनामों में कर्ता कारक में '-ने' जोड़ने से कर्ता का रूप नहीं बदल जाता। मैं+ने = मैंने, तुम+ने = तुमने, हम+ने = हमने कहा जाता है। तो एक बार 'वह' का बहुवचन 'उन' या यह का 'इन' हो जाने के बाद, '-हों' का अतिरिक्त भार क्यों? उन+ने = उनने ही होगा। 'उन' स्वयं बहु वचन है; उसका 'उन्हों' बहुवचन व्यर्थ है।
हिंदी संज्ञाओं के तिर्यक बहुवचन में अवश्य पहले -ओं लगता है, तब कारक प्रत्यय। जैसे : बच्चों ने, लड़कियों को, बादलों का...
सर्वनामों में बहुवचन के साथ सीधे ही कारक प्रत्यय जुड़ते हैं। उनके लिए, उनको, उनमें, उनसे...
अन्यपुरुष, कर्ता कारक, बहुवचन के अतिरिक्त किसी भी कारक में '-हों' नहीं मिलता तो केवल 'इन', 'उन' के साथ क्यों।
ऐसा लगता है कि संज्ञा शब्दों के नियमों के भ्रामक अनुकरण के कारण 'इन्होंने', 'उन्होंने' बोला जाने लगा जो प्रचलन में अब रूढ़ हो गया है।
मीर, ग़ालिब आदि की उर्दू शायरी में 'उनने' का प्रयोग प्रायः दिखाई पड़ता है जो पुरानी भाखा, खड़ीबोली में इन रूपों के होने का प्रमाण है।
"'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो,
उनने तो क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया"
इस प्रकार इन्होंने-उन्होंने का '-हों' अनाहूत अतिथि-सा लगता है। यह न रहे तो सीधे "इनने", "उनने" सिद्ध है। इसका आशय यह भी नहीं लिया जाना चाहिए कि अब इन्होंने/ उन्होंने को हटाकर उसके स्थान पर इनने/ उनने स्वीकार कर लिया जाए। व्याकरणिक नियमों से अधिक महत्वपूर्ण है लोक स्वीकृति जो उन्होंने/इन्होंने को मिली हुई है और अतिरिक्त बल यह भी कि इन्हें मानक हिंदी में स्वीकार कर लिया गया है। भाषा का रथ निरंतर अग्रगामी होता है।
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