'नुक़्ता' अरबी भाषा का शब्द है और इसका अर्थ 'बिंदु' होता है, कुछ आगत शब्दों में अक्षर के विशिष्ट उच्चारण को दिखाने के लिए लगाया जाने वाला संकेत।
नुक़्ता लम्बे समय से हिंदी विद्वानों के बीच विमर्श का विषय रहा है। किशोरीदास वाजपेयी जैसे व्याकरण के विद्वान हिंदी लेखन में नुक़्ता लगाने के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है कि ये सब शब्द अब हिंदी के अपने हो गए हैं और हिंदी भाषी इन शब्दों का उच्चारण ऐसे ही करते हैं जैसे उनमें नुक़्ता नहीं लगा हो। बहुत कम लोगों को उर्दू के नुक़्ते वाले सही उच्चारण का ज्ञान है।
केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा जारी मानक हिन्दी वर्तनी के अनुसार भी उर्दू से आए अरबी-फ़ारसी मूलक वे शब्द जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतरण हो चुका है, नुक्ता रहित हिंदी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं। जैसे :– कलम, किला, दाग आदि (क़लम, क़िला, दाग़ नहीं)। पर जहाँ उनका शुद्ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो अथवा उच्चारणगत भेद बताना आवश्यक हो (जैसे उर्दू कविता को मूल रूप में उद्धृत करते समय) , वहाँ उनके हिंदी में प्रचलित रूपों में यथास्थान नुक़्ते लगाए जाएँ। जैसे :– खाना : ख़ाना, राज : राज़, फन : हाइफ़न आदि।
व्यवहार में क़ ग़ ध्वनियों वाले आगत शब्द हिंदी में बहुत कम हैं और अर्थभेदक लघुतम युग्म भी नहीं बनाते। हिंदी में ज़ फ़ वाले आगत शब्द अधिक हैं। इसलिए जहाँ आवश्यक हो ज़, फ़ में नुक्ता लगाया जाना चाहिए किंतु यदि पक्की जानकारी हो तो। अन्यथा जवाहर ज़वाहर हो जाएगा। फल-फूल को फ़ल-फ़ूल तो हम कहने ही लगे हैं।
कुछ शब्द जिनमें नुक़्ते से अर्थ परिवर्तन होता है, इसलिए भ्रांति संभव है
ज़माना - समय,दुनिया
जमाना - उगाना, स्थिर करना
राज़ - रहस्य
राज - शासन
खाना - भोजन
ख़ाना - जगह, शेल्फ़
खुदा - खोदा हुआ
ख़ुदा - परमात्मा
ज़रा - थोड़ा
जरा - बुढ़ापा
सज़ा - दंड
सजा - सजावट किया हुआ
जी गुरु जी। कम से कम, ज़ और फ़ के लिए भेद रखना ही चाहिए।
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