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मटकी का सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ





होली का उत्सव निकट है और एक शब्द याद आता है #मटका, मिट्टी से बना घड़ा। इसकी व्युत्पत्ति भी संस्कृत मृत्तिका/मृदा से है। अनेक नाम है इसके और अनेक सामाजिक- सांस्कृतिक संदर्भ भी।

श्रीकृष्ण का इन नामों से गहरा संबंध है। मटकी फोड़ना उनका प्रिय शौक रहा है, वह चाहे माखन दही की मटकी हो या जमुना से जल भरकर कठिन डगर से लौटती किसी गोपिका की मटकी। इसका बड़ा रूप अर्थात माट ब्रज-लोकगीतों में विशेषकर होली के गीतों में बड़ा महत्व रखता है। यह होली कितनी लोकप्रिय है --
"कोरे कोरे माट मँगाए तिन मँह घोला रंग।
भर पिचकारी सन्मुख मारी अंगिया हो गई तंग।
रंग में होली कैसे खेलूँ री मैं साँवरिया के संग।"

गाँव-देहात में तो आज भी माट, मटकी, घड़ा, मटका जीवन का अंग हैं। भीषण गर्मी हो तो सार्वजनिक प्याऊ पर आप बड़े मटके देख सकते हैं। गोरस के लिए आज भी मटकियों का उपयोग किया जाता है। मैथिली में दो किलो तक समाई की मटकी को मटकूड़ी कहा जाता है। ताड़ी के पेड़ पर मादक रस के संग्रह के लिए इसका विशेष उपयोग किया जाता है।

अब रोचक यह है कि यह मटका जुए या सट्टेबाजी में कैसे जा पहुँच गया? शायद मटका जुए को खेलने की विधि इसका कारण है। एक मटके में कुछ पर्चियां डालकर उन्हें खींचना इसकी मुख्य प्रक्रिया मानी जाती है तो हो गया मटका। कहते हैं लाखों के वारे-न्यारे होते हैं मटके में अब बताइए एक शब्द कहां-कहां, क्या-क्या गुल नहीं खिलाता।

यही अंतर है गरीब और अमीर के मटके में।

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