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ग्रेशम का नियम और टट्टी

अर्थशास्त्र में थॉमस ग्रेशम का एक बहुत पुराना नियम है "बुरा सिक्का अच्छे सिक्के को प्रचलन से निकाल बाहर कर देता है पर अच्छा सिक्का कभी भी बुरे को प्रचलन से निकाल बाहर नहीं कर पाता।" यह नियम है तो अर्थशास्त्र का किंतु यह भाषा शास्त्र में भी बिल्कुल सटीक बैठता है। इसे एलन- बरीज का 'अर्थ परिवर्तन का नियम' कहा जाता है: "किसी शब्द का बुरा अर्थ प्रचलन में हो तो उस शब्द के अच्छे अर्थ को भी चलन से बाहर कर देता है।" इसके उदाहरण सभी भाषाओं में मिल जाएँगे। अंग्रेजी में prick, ass, cock, booty जैसे शब्द उदाहरण हैं जिनका कथित भद्दा अर्थ आज पारंपरिक अर्थ पर हावी हो गया है और इन्हें अशिष्ट भाषा की श्रेणी में डाल दिया गया है। 
बचपन में एक कहावत सुनी थी, 'अरहर की टट्टी में गुजराती ताला।' एक तथाकथित ग्रामीण-से लगने वाले शब्द के कारण सुनने पढ़ने में कुछ अटपटा-सा लगता था। यद्यपि कहावत का अर्थ जान लेने पर। सामान्य और स्वाभाविक शब्द हो गया किंतु जो मूल अर्थ से परिचित नहीं है, विशेषकर आज की पीढ़ी में, उन्हें यह हास्यास्पद लगता है।
बाँस की फट्टियों, सरकंडों, फूस, खस आदि को परस्पर जोड़-बाँधकर बनाया हुआ ढाँचा जो आड़, रोक, परदा या रक्षा के लिये दरवाजे, बरामदे अथवा और किसी खुले स्थान में लगाया जाता है, उसे टट्टी कहा जाता है। इसकी व्युत्पत्ति सौरसेनी प्राकृत के टट्टी > अपभ्रंश में तट्टी/ तट्टिका शब्द से है, यद्यपि शब्द सागर में इसे संस्कृत के तटी या स्थात्री शब्दों से जोड़ा गया है। इसे टाटी, टाँटी, टटिया, टटही भी कहा जाता है। अरहर या बाजरे के ठेठों (सूखी झाड़ या डंडियों) से बनाया जाता है।
असली बात तो रह गई कि आड़ या परदे के अर्थ वाली टट्टी में वह अर्थ कैसे आ बैठा जिसने मूल अर्थ को धकिया कर बाहर कर दिया। समझना सरल है। अपने देश में पहले खुले में शौच जाने का आम रिवाज़ था। (अब सरकारी शौचालय बन जाने के बाद भी गाँव-देहात में इसमें विशेष कमी नहीं आई है)। कोई स्त्री, रोगी या वृद्धजन खुले में दूर शौच न जा सके तो उनके लिए आँगन के निकट के बाड़े में एक टट्टी की आड़ में शौच के लिए स्थान निर्धारित होता था। आगे चलकर शौच जाने के लिए मुहावरा बन गया टट्टी जाना। धीरे-धीरे टट्टी का अर्थ परदा नहीं रहा, पाखाना हो गया और आज उसे इसी के अर्थ में ग्राम्य अपशब्द माना जाता है।

एसी और कूलर के स्थान पर खस की टट्टियों का प्रयोग मैंने होते देखा है लखनऊ के सरकारी दफ्तरों में साठ/सत्तर के दशक तक। गर्मियों में खस की टट्टियाँ खिड़की दरवाजों पर लगा दी जाती थीं। एक कर्मचारी इनमें पानी छिड़कता रहता था। बाहर चल रही लू भी इन गीली टट्टियों से छनकर अंदर आती तो शीतल होती और सुगंधित भी, क्योंकि खस की जड़ें सुगंधित होती हैं। यह प्राकृतिक वातानुकूलन था प्रकृति के उपादानों से निर्मित और सर्वथा निरापद। 
कबीर ने टाटी का कितना अच्छा रूपक बाँधा है
संतौ भाई आई ग्याँन की आँधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उड़ानी, माया रहै न  बाँधी॥

टिप्पणियाँ

  1. अत्यंत अर्थपूर्ण व्याख्या । खस के परदे तो एक समय हम भी व्यवहार करते थे । व्युत्पत्तिगत अर्थ नही मालूम था ।
    एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है -- कहावत प्रसिद्ध है , एक घोर आतंकी सारे समाज को आतंकित करता है -- शायद यह भी एक मनोवैज्ञानिक नियम है ।
    धन्यवाद

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