महीना हो या रिश्ता, जेठ नाम यों ही तो पड़ा नहीं होगा। जेठ जी हर बात में बड़े हैं। ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः। लोक में ससुर की तुकतान पर इन्हें भसुर भी कहा जाता है, जिसकी तुक कुछ लोग असुर में ढूँढ़़ते हैं। जेठ जी के सामने घूँघट रखा जाता था। बोलना एकदम मना। जेठ मास में सिर पर पल्लू या गमछा लपेटना भी घूँघट काढ़ने जैसा ही है।
प्यास से कंठ सूख जाए तो इस जेठ में बोलती भी बंद हो जाती है, जैसे जेठ जी के सामने बहुओं की।
किसी युग में तो बिरहनों के लिए जेठ बड़ा दाहक माना जाता था।
"बज्र-अगिनि बिरहिनि हिय जारा।
सुलुगि-सुलुगि दगधै होइ छारा॥
यह दुख-दगध न जानै कंतू।
जोबन जनम करै भसमंतू॥"
जेठ का एक और पक्ष भी दिखाई पड़ता है। भीषण गर्मी के ये दिन तो जन्मजात बैरी प्राणियों को भी एक कर देते हैं। वे अपना हिंसक स्वभाव भूल जाते हैं, शांतिपूर्वक रहते हैं तो लगता है संसार तपोवन हो गया।
"कहलाने एकत बसत अहि-मयूर, मृग-बाघ।
जगतु तपोवन सौ कियौ दीरघ दाघ निदाघ॥"
अब इससे अधिक क्या कहा जा सकता है कि जेठ की दुपहरी में छाया भी स्वयं छाया तलाश करती हुई निकल पड़ती है कि दो घड़ी कहीं शीतल छाया में चैन मिल सके।
"बैठि रही अति सघन बन पैठि सदन तन माँह।
देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह॥"
जेठ की चर्चा हो तो उसके दारुण आतप पर श्रीधर पाठक की यह पंक्तियाँ अनायास उपस्थित हो जाती हैं:
"जेठ के दारुण आतप से , तप के जगती तल जावै जला
नभ मंडल छाया मरुस्थल-सा, दल बाँध के अंधड़ आवै चला।
जलहीन जलाशय, व्याकुल हैं पशु–पक्षी, प्रचंड है भानु कला
किसी कानन कुंज के धाम में प्यारे, करैं बिसराम चलौ तो भला।"
प्रियतमा का यह आग्रह उपयुक्त ही है कि प्रखर धूप से बचने के लिए किसी कानन कुंज में, वृक्षों के झुरमुट में दोपहर बिताई जाए किंतु आज ऐसा काननकुंज कहीं ढूँढे़ नहीं मिलेगा।
'निराला' जी किसी कानन कुंज की कल्पना नहीं करते। उनकी मज़दूरनी तो जेठ की दुपहरी में भी सड़क के किनारे बैठकर पत्थर-गिट्टी तोड़ती है। उसे किसी छायादार पेड़ की कोई सुविधा प्राप्त नहीं है। भारी भरकम हथोड़ा हाथ में लेकर मानो सीधे व्यवस्था पर बार-बार चोट करती है।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर।
लोक में जेठ की महिमा के अनेक मनोरम दृश्य मिलते हैं। ब्रज की एक कहावत है- "बड़ी बहूकौ जेठ आयौ!"
आप पूछ सकते हैं बड़ी बहू तो स्वयं बड़ी जेठानी है, उसका भी जेठ? अब लोक में कहावत है, तो कुछ कारण तो होगा। लोकरीति है कि जेठ के आने पर बहुएँ तुरंत बड़ा-सा घूँघट काढ़ लेती हैं। जब जेठ का महीना आया तो आँधी आई, भूसा-तिनका उड़ने लगा।आँधी से बचने के लिए जेठानी ने बड़ा घूँघट मुख पर बाँध लिया जिससे आँधी के प्रभाव से बच सके। आँखों में तिनका धूल न पड़े। उसके इतने बड़े घूँघट को देखकर कहावत बनी कि यह तो बड़ी बहू का भी जेठ आ गया जो जेठानी को घूँघट काढ़ने के लिए विवश कर गया!
"आँधी आई मेह आयौ,
बड़ी बहूकौ जेठ आयौ!"
इसी प्रकार अरहर (तोर) की फ़सल के बारे में भी एक कहावत कही जाती है:
गोल-गोल बटिया सुपारी जैसौ रंग,
ग्यारह देवर छोड़के चली जेठ के संग!
(अरहर जेठ के महीने बोई जाती है!)
इस हरियाणवी गीत का तो कोई तोड़ ही नहीं, जब छोटी बहू सीधे चुनौती देती है कि उसका कारोबार अलग कर दिया जाए:
"जेठ मन्नैं न्यारी कर दे रै, घर में क्यों राड़ जगावै,
न्यारी होक्कै पीसूँ कोन्या चाक्की मैं पिसवा ल्यूँगी
चाक्कीआळा माँगे पिसाई जेठ के नाम लिखा द्यूँगी,
जब मेरा जेठा देवे पिसाई जळ जा बड़ी जेठानी
जेठ मन्नैं न्यारी कर दे रै।"
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