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देखना और दर्शन

देखना  संस्कृत की धातु दृश् से हिंदी में दो शब्द परिवार बने हैं- देखना और दर्शन |  संभवतः आम जन की लोक धारा में ‘ देखना ’ शब्द प्रचलित हुआ किन्तु कुछ विशेष ,  औपचारिक स्थितियों में दर्शन शब्द ही चलता रहा | लगभग समानार्थी होते हुए भी  अब दोनों शब्दों ने अपने-अपने अलग क्षेत्र चुन लिए हैं | देखना- मूलतः तो आँखों से प्रकाश की सहायता से संपन्न होने वाला कार्य देखना  है | हम वह सब देखते हैं जो हमारे सामने होता है | अँधेरे में कोई कुछ नहीं देखता | यह इसका सीधा प्रयोग है | किन्तु इसके लाक्षणिक प्रयोग रोचक हैं और अनेक  अर्थ छवियाँ दूर-दूर ले जाती हैं |  डॉक्टर रोगी की नब्ज़ देख रहा है | ( जाँचना)  रोगी को नर्स देख रही है | ( देखभाल)  शिक्षक तुम्हारे उत्तर देख रहा है | ( जाँचना)  देखना , दूध उबलकर बिखर न जाए | ( सावधान रहना)  तुम आवेदन पत्र दे आओ , बाकी मैं देखूँगा | ( ध्यान देना)  इस चौकी को कौन देखता है आजकल ? ( चौकसी , पहरेदारी)  भगवान् सबको देखता है | ( ध्यान में रखना , विवेचन  करना)  लड़की देखने जाना है | ( पसंद करना)  एक समिति मंदिर की व्यवस्था देख रही है | (

चाय पर चर्चा : उत्तराखंड की भाषाएँ

कुमाउँनी, गढ़वाली को या ऐसी ही किसी विलुप्ति की ओर बढ़ रही भाषा को जीवित रखने पर अनेक बार अनेक मंचों से बात उठाई जाती है। उसके मानकीकरण, उपयुक्त लिपि बनाने-गढ़ने की बात शायद गंभीरता से कही जाती है । गोष्ठियों में, भाषा सम्मेलनों में या अन्यत्र। तालियाँ बजती हैं, प्रस्ताव पास होते हैं और बस! निस्संदेह किसी भी समुदाय की पहचान उसकी भाषा से शिशु-नाल संबंध से जुड़ी है। कोई भाषा मरती है तो उसे बोलने वालों की संस्कृति मरती है, उनकी पहचान ख़त्म होती है। इसलिए उसकी चिन्ता करना अपने अस्तित्व की चिंता करने जैसा ही है। सो जो लोग गढ़वाली कुमाईं जौनसारी को बचाने की चिंता कर रहे हैं, उनकी चिंता वाजिब है। लेकिन इसके लिए जो उपाय सुझाए जा रहे हैं, वे निरर्थक लगते हैं। भाषा या लिपि गढ़ी नहीं जाती, समेटी, सहेजी और बचाई जाती है। निस्संदेह आप भाषा बना लेंगे, आत्म संतुष्टि के लिए गढ़ लेंगे, उसके वैज्ञानिक नियम लिख लेंगे किंतु यदि वह प्रचलन में ही न आए तो कितने दिन, कितने लोगों में जिएगी? यह मैं ऐसे उत्साही जनों को निरुत्साहित करने के लिए नहीं कह रहा हूँ। इतिहास गवाह है कि ऐसी आविष्कृत भाषा या लिपि चल नहीं पाई।

भला से बढ़िया तक

भला की उत्पत्ति का इतिहास रोचक है. माना जाता है कि यह संस्कृत के ‘भद्र’ से बना है .. भद्र > भल्ल > भला. कुछ लोग मानते हैं कि इसी ‘भद्र’ से ‘भला’ का विलोम भाई ‘भद्दा’ भी बना है ... भद्र > भद्द > भद्दा. इसे भले को संस्कृत की एक और धातु ‘भल्’ से निष्पन्न भी माना जा सकता है जिसका अर्थ है ‘देखना’. देखा जाए तो कम-से-कम देख-भाल, देखना-भालना जैसे शब्दयुग्मों में तो भद्र की अपेक्षा ‘भल्’ अधिक निकट लगता है. संस्कृत में ‘भद्र’ के ही अनुरूप हिंदी में भी ‘भला’ के बीसियों अर्थ-छबियों वाले प्रयोग मिलते हैं. विशेषण के रूप में प्रायः इसका प्रयोग त्रुटि रहित, निर्दोष, विकार रहित, नेक, शरीफ़ आदि के अर्थ में होता है और अनेक स्थितियों में यह अच्छा का समानार्थी या बुरा का विलोम है, जैसे : अच्छा आदमी ~ भला आदमी, अच्छे लोग ~ भले लोग. यह शब्दयुग्म भी बनाता है : अच्छा-भला, भले-बुरे, भला-चंगा, भलमनसाई आदि. अव्यय के रूप में यह ‘भला’ भी अनेक अर्थछबियाँ समेटे हुए है : ·          शर्त (चाहे) : लोग भले ही निंदा करें किंतु..., भले तुम आज न मानो, कल मानना पडेगा. ·          व्यंग्य  : ये भली रही..

अच्छा - भला

अरण्यरोदन

कल पत्रकार दीपक मन राल ने एक मित्र धीरज भट्ट की वॉल से एक संस्मरण उद्धरित किया कि कैसे कुछ शिक्षित-नवधनिक , कथित संभ्रांत उत्तराखंडियों की हीनताग्रंथि उन्हें पीड़ित करती है और वे अपने बच्चों को भी मातृभाषा में बात करने से निरुत्साहित करते हैं। पढ़कर बुरा तो लगा लेकिन ये सचाई भी है और अनेक अवसरों पर मैंने भी अनुभव किया है। पहाड़ का आमजन भी नितांत घरेलू स्थितियो में तक हिंदी का उपयोग करने लगा है। हिंदी बिरानी भाषा नहीं है किंतु उसकी स्थिति इस मिट्टी की आंचलिक या पारंपरिक भाषा की नहीं है जो यहाँ की संस्कृति की वाहिका हो। जगजाहिर है कि विश्व की सैकड़ों भाषाएँ विलुप्ति के कगार पर हैं और गढ़वाली कुमाउँनी भी उन संकटग्रस्त भाषाओं में हैं। भाषा विलुप्त तभी होती है जब उसे बोलने-बरतने वाले लुप्त होने लगें। यह चिंता का विषय है , क्योंकि जब कोई भाषा मरती है तो उसके साथ एक समुदाय की संस्कृति भी मरती है। समाधान की दिशा में कोई प्रयास होता नहीं दिखाई देता। राज्य सरकार के लिए यह कोई मुद्दा नहीं रहा कभी , न कभै मतदाताओं ने सोचा कि उसे चुनें जो उनकी पहचान न छिपाए। प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम मात

कल की कलकल

अंग्रेजी में एक कहावत है, कल कभी नहीं आता. परन्तु हम हिंदी वालों के पास तो कल-ही-कल है. आज के पहले भी कल, आज के बाद भी कल. “काल करे सो आज कर” यह जिसने भी कहा हो उसे मैं संत या कवि से अधिक दार्शनिक और वैयाकरण मानता हूँ. उसे पता था कि हिंदी में कल की तो कोई समय-सीमा ही नहीं है. आज से पहले या आज के बाद के दिनों तक ही नही, यह तो अनिश्चित भविष्य के लिए भी है और अनियत भूत के लिए भी. वस्तुतः समय की रेखा पर यह कल किसी परमहंस-सा लगता है जिसे हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘कुटज’ के स्वभाव का वर्णन करते हुए “अवधूत” कहा है. अपने परिवेश से सर्वथा विरक्त और निर्लिप्त. मोह-माया व्यापे नहिं जाको...! ‘ आज ’ का सन्दर्भ यहाँ तक तो ठीक है कि ‘आज’ को यदि सन्दर्भ बिंदु मानें तो आज से पहले का दिन भी कल है और आज के बाद का भी. किसी वाक्य में सहायक क्रिया ही निश्चित करती है कि वक्ता का मंतव्य किस काल से है. जैसे : ·        कल आए थे.      (आज से पहला दिन, भूतकाल) ·        कल आएँगे.       (आज के बाद का दिन. भविष्यत काल) अब इन स्थितियों और प्रयोगों को देखिए : ·        जब कोई पिता अपने पुत्र को कहे, “क

प्रश्न भविष्य की अभिव्यक्ति- भाषा का

सामान्यतः सभी भाषाओं और विशेषकर हिंदी को लेकर कुछ प्रश्न और हैं जो मन-मस्तिष्क को अक्सर झिंझोड़ते हैं . 21-वीं शताब्दी के ग्लोबलाइजेशन और तेज़ रफ़्तार की टेक्नोलॉजिकल प्रगति के कारण जो बदलाव आ रहे हैं उसमे हिंदी एवं प्रांतीय भाषाओँ का स्वरुप (मानलें जैसे 50 वर्ष बाद) क्या होगा ? यह शुभ संकेत है कि हिंदी बाज़ार-व्यवसाय की भाषा के रूप में सशक्त दावेदारी प्रस्तुत कर रही है. विज्ञापन, विपणन की हिंदी उसके व्यावहारिक रूपों के अधिक निकट दिखाई पड रही है, जो उसकी ग्राह्यता और प्रचार-प्रसार दोनों के लिए अच्छा लक्षण है.   ऐसे में फिर एक प्रश्न उठता है कि सूक्ष्म संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का प्राथमिक वाहन बनने वाली भाषा कैसी होगी ? उसपर परंपरा से चले आ रहे प्रतिमान किस सीमा तक लागू होंगे? क्या अभिव्यक्ति, सृजनात्मक अभिव्यक्ति की भाषा का स्वरूप मौलिक रूप से शब्द की अपेक्षा दृश्य और ध्वनि प्रभावों से अधिक प्रभावित होगा? ऐसे प्रश्न अभी तो बहुत प्रासंगिक प्रश्न नहीं लगते किंतु ये चुनौती देर-सवेर   हमारे सम्मुख होगी, और आज हम इन पर आधिकारिक रूप से कुछ कह पाने की स्थिति में भल

एक पाठक : तीन पत्र

मुद्रण माध्यम के सबसे पुराने हिदी दैनिकों में हैं हिन्दुस्तान और नभाटा.  #हिन्दुस्तान अपना पहला प्यार है, दूर – दराज भी जहाँ रहा डाक से मंगाकर पढता रहा. अब भी छूटता नहीं. पत्रकारिता की भाषा को इसने एक स्तर दिया है. पर अब जचता नहीं, अब के सम्पादक गोदी जमात की ओर झुके लगते हैं या समय के साथ चलने के पक्षधर. सम्पादकीय किसी पत्र का अपना दृष्टिकोण होता है जो जनमत की नब्ज भी होता है और जनमत बनाने में सहायक भी, पर अब इस पत्र के सम्पादकीय देखकर यह कहने का मन होता है कि इसके साथ सम्पादक का नाम हो और यह डिस्क्लेमर भी कि “इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं”! #नवभारत_टाइम्स (नभाटा) को विद्यानिवास मिश्र जी के समय से नियमित देखता रहा. हिंदी के एक से बढ़कर एक धुरंधर इसके संपादक रहे, पर पिछले कुछ वर्षो से इसे हिन्दी का पत्र कहना ही असंगत और अटपटा लगता है. अंग्रेजी मोह में इसने अपना नाम तक बदल डाला, #NBT होगया! पत्रकारिता में हिंदी की ऐसी दुर्गति करने के लिए नभाटा का यह योगदान भुलाया नहीं जा सकेगा. शर्म आती है जब गैर-हिंदीभाषी या विदेशों में हिंदी सीखने वाले नभाटा की हिंदी पर व्यंग्य करते