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जून, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

इनने-उनने

इनने-उनने उन्होंने के स्थान पर 'उनने' और इन्होंने के स्थान पर 'इनने' का प्रयोग विशेषकर कुछ पत्रकारों में कभी-कभी दिखाई देता है। यह अटपटा इसलिए लगता है कि हिंदी में यह मानक नहीं है और लोक में भी अधिक प्रयोग नहीं मिलता; पर यह अशुद्ध है नहीं। हिंदी के दो दिग्गज हस्ताक्षर मुझे याद आते हैं जो 'इनने', 'उनने' का प्रयोग किया करते थे। सुप्रसिद्ध हिंदी पत्रकार प्रभाष जोशी और लेखक प्रभाकर माचवे।दोनों ही मालवा से थे। किसी गोष्ठी में एक बार मैंने इनने/उनने प्रयोग के बारे में  प्रभाष जोशी जी से पूछा तो कुछ टालते हुए अंदाज़ में उन्होंने कहा, "इसे हिंदी को मालवा का योगदान समझिए।" सच यह है कि केवल मालवी में ही नहीं, कौरवी, ब्रज, बुंदेलखंडी आदि कुछ बोलियों में "इनने/उनने" रूप मिलता है जो अटपटा ही सही, किंतु तर्कसंगत है और इसे व्याकरण की दृष्टि से एक ही साँस में अशुद्ध भी नहीं कहा जा सकता। एक दृष्टि से इन्हें अधिक शुद्ध कहा जा सकता है! सर्वनामों में कर्ता कारक में '-ने' जोड़ने से कर्ता का रूप नहीं बदल जाता। मैं+ने = मैंने, तुम+ने = तुमने, हम+

खुर्द, कलाँ, नांगल, डीह, माजरा

उत्तर भारत में स्थान नामों के साथ कलाँ, खुर्द, खेड़ा, नांगल, नंगली, डीह, माजरा जैसे कुछ शब्द प्रत्यय के समान जुड़े हुए मिलते हैं। इनमें से कुछ तो अफगानिस्तान, पाकिस्तान तक में भी प्रयुक्त हो रहे हैं जो पूरे उपमहाद्वीप क्षेत्र के एक ही सांस्कृतिक, भाषिक इकाई होने के प्रमाण भी हैं। विशेष रूप से दिल्ली, पंजाब, हरयाणा, उत्तरप्रदेश में और सामान्यतः राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, छत्तीसगढ़, बिहार में ये पुरानी ग्रामीण बस्तियों के नामों का एक भाग हैं ।आज इनकी व्युत्पत्ति के बारे में भी कुछ बातें यहाँ की जा सकती हैं। कलाँ : ईरानी/फ़ारसी मूल का शब्द है जिसका अर्थ है, 'बड़ा'। प्राचीन मध्य ईरान की विलुप्त पार्थिनियाई में इसके प्रमाण मिले हैं। कलां वाले नाम अफगानिस्तान, पाकिस्तान में भी मिलते हैं। स्थान नामों के अलावा विशेषण के रूप में इसके प्रयोग इस प्रकार भी मिलते हैं- "मस्जिद कलां" (बड़ी मस्जिद) "ख्वाज़ा कलां" (बड़े ख़्वाज़ा)। पंजाब में कहीं-कहीं यह कलां से काला हो गया है, जैसे एक स्थान का नाम है "काला बकरा"। ख़ुर्द : फ़ारसी से है, कुछ लोग संस्कृत "

बहू, पत्नी और स्त्री

बहू, पत्नी और स्त्री  वधू (√वह्+ऊधुक्) संस्कृत शब्द को पुरा-भारोपीय मूल का माना जाता है जो पालि में वधू, तेलुगु (वधुवु), कन्नड़ा (वधू) है। महाराष्ट्री, शौरसेनी प्राकृतों में वहू और हिंदी, उर्दू में बहू बन गया।  वधू के हिंदी में अर्थ हैं  नव विवाहिता स्त्री, दुलहन, पत्नी, भार्या, पुत्र की बहू, पतोहू।  ऋग्वेद में वधू शब्द का प्रयोग मिलता है। सुमङ्गलीरियं वधूरिमां समेत पश्यत। सौभाग्यमस्यै दत्त्वा याथास्तं वि परेतन॥ (ऋ . १०.८५.३३ ) "यह वधू सुमंगली है। इसे सब देखें और इसे अखंड सौभाग्यका आशीर्वाद देकर ही अपने-अपने घर लौटें।" यह मंत्र पारस्कर गृह्यसूत्रों में विवाह कर्मकांड के साथ उल्लिखित है। आजकल कुछ लोग विवाह के निमंत्रण पत्रों में इसे उद्धृत किया करते हैं। कुछ लोग सत्संगी शैली में वधू/बहू को यों समझाते हैं: 1. वहन्ति इति वध्व:- जहाँ-जहाँ पति जाए  उसको वहन करे। 2. वध्नन्ति इति वध्व: - जो पति को भुज पाश में बाँध ले। ये दोनों पहली ही दृष्टि में मुक्त व्याख्याएँ लगती हैं। हरियाणवी तथा कुछ अन्य बोलियों में स्थान भेद से बहू का उच्चारण "बऊ" भी किया जाता है। कहीं बौ भी

लोक भाषाओं में सुरक्षित वैज्ञानिक संकल्पनाएँ

डड मेरु , पित्तीण और पिताना लोक में अनेक शब्द ऐसे मिलेंगे जिनकी व्युत्पत्ति मालूम हो जाने पर आश्चर्य होता है कि वैज्ञानिक समझी जाने वाली संकल्पना को लोकभाषाओं में किस प्रकार सही अभिव्यक्ति मिली है और उसे सहेजकर रखा गया है। हरियाणवी में एक शब्द है - डडमेरु ḍaḍamerū – चक्कर, उठते ही सिर घूमने से किसी व्यक्ति के गिर पड़ने की क्रिया। चक्कर खाना। (मेरु नाम से पुराणों में एक पर्वत का नाम भी है।) चक्कर आना मस्तिष्क के भाग अनुमस्तिष्क का सन्तुलन न रहना है। इसका सीधा सम्बन्ध मेरुदण्ड में से गुजरने वाली मेरुरज्जु से है। अतः डोलता हो मेरु जिसमें, ऐसी स्थिति डुलमेरु है। इसके अन्य हरियाणवी रूप हैं - डडमेरा ḍaḍamerā, डुडमेरा ḍuḍamerā, डुडमेळा ḍuḍamel̤ā।  अत: डडमेरा/डुडमेरु/डुलमेळा < √डुल+मेरू (सं० )| √डुल-उत्क्षेपे (सं०) (सौजन्य : ~अमित मुद्गल) डुळमेरु की ही भाँति कुमाउँनी में एक नाम धातु है "पित्तीण" (गढवाळी में "पितेंण")। इसका संबंध पित्त रस (bile) से है। अग्न्याशय से पित्त का स्राव भोजन के निश्चित समय पर नियमित रूप से स्वतः होता है। उस समय नाश्ता, भोजन न मिलने पर स्वभाव में

"दंगा परिवार" के शब्द और मुहावरे

दंगा, बलवा, riot एक प्रकार का सामाजिक विकार है जिसमें सामान्यतः एक हिंसक समूह किसी मुद्दे को लेकर प्रशासन, निजी या सार्वजनिक संपत्ति या लोगों के खिलाफ अशांति पैदा कर देता है। यह विधि विरुद्ध जमाव और शांतिभंग का ही एक गंभीर रूप होता है जो दंगा नियंत्रण क़ानूनों के अंतर्गत दंडनीय अपराध है। दंगों में आम तौर पर उग्रता, बर्बरता, तर्कहीनता, विनाशकारिता देखने को मिलती है। हिंदी, उर्दू में प्रचलित "दंगा परिवार" के कुछ शब्दों, मुहावरों पर चर्चा की जाए। दंगाई < दंगा dangā ( जो फ़ारसी के दंगल से व्युत्पन्न है) बलवाई < बलवा balvā ( फ़ारसी मूल) फ़सादी < फ़साद fasād (अरबी) उपद्रवी < उपद्रव (संस्कृत) मवाली/वबाली < बवाल हत्यारा < हत्या उत्पाती < उत्पात उग्र/उग्रता पत्थरबाज़ी नारेबाज़ी हिंसा आगजनी, अग्निकांड मारपीट अशांति नृशंस, जघन्य, जमावड़ा सिरफिरा इस परिवार के अन्य सदस्य हैं : झगड़ा ,  बखेड़ा ,  विरोध ,  खटपट ,  रा ड़,  तकरार ,  कलह ,  मनमुटाव ,  टकराव ,  वाद-विवाद , दंगाई, बलवाई, फ़सादी, उपद्रवी मुहावरे जो दंगा परिवार में सम्मिलित हैं: - टक्कर लेना - द

स्रोत-श्रोत्र-श्रौत-स्तोत्र

स्रोत-श्रोत्र-श्रौत और स्तोत्र अवचेतन मन में कहीं संस्कृत के कुछ शब्दों के सादृश्य प्रभाव को अशुद्ध रूप में ग्रहण कर लेने से हिंदी में कुछ शब्दों की वर्तनी अशुद्ध लिखी जा रही है। 'स्रोत' ऐसा ही एक उदाहरण है। इसमें 'स्र' के स्थान पर 'स्त्र' का प्रयोग देखा जाता है - 'स्त्रोत'! स्रोत संस्कृत के 'स्रोतस्' से विकसित हुआ है किंतु हिंदी में आते-आते इसके अर्थ में विस्तार मिलता है। मूलतः स्रोत झरना, नदी, बहाव का वाचक है। अमरकोश के अनुसार "स्वतोऽम्बुसरणम् ।"  वेगेन जलवहनं स्रोतः ।  स्वतः स्वयमम्बुनः सरणं गमनं स्रोतः।  अब हम किसी वस्तु या तत्व के उद्गम या उत्पत्ति स्थान को या उस स्थान को भी जहाँ से कोई पदार्थ प्राप्त होता है,  स्रोत कहते हैं। "भागीरथी (स्रोत) का उद्गम गौमुख है" न कहकर हम कहते हैं- भागीरथी का स्रोत गौमुख है। अथवा, भागीरथी का उद्गम गौमुख है। स्रोत की ही भाँति सहस्र (हज़ार) को भी 'सहस्त्र' लिखा जा रहा है। कारण संभवतः संस्कृत के कुछ शब्दों के बिंबों को भ्रमात्मक स्थिति में ग्रहण किया गया है। हिंदी में तत्सम शब्द अस्त्

सृजन और सर्जन

शब्द विवेक:  सृजन और सर्जन यदि प्रत्येक हिंदी शब्द के लिए संस्कृत की ओर मुड़ना आवश्यक हो तो सृजन चाहे तत्सम प्रतीत होता हो, है नहीं। इस प्रकार कह सकते हैं कि भ्रामक व्युत्पत्ति का उदाहरण है! संस्कृत में √सृज् से सर्जन बनता है, सृजन नहीं। शतृ प्रत्यय जोड़ने पर कृदंत अव्यय 'सृजन्' बनता है, संज्ञा 'सृजन' नहीं। सर्जन (सृष्टि), विसर्जन ( मुक्ति, त्याग, छोड़ना), उत्सर्जन  (अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने की क्रिया)-- आदि शब्द इसी "शुद्ध" संस्कृत शब्द सर्जन से व्युत्पन्न हुए हैं। हिंदी में सृजन भी सर्जन के समानांतर ही प्रयुक्त होता आ रहा है, इसकी आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) सर्जन से अधिक है और इसे अशुद्ध नहीं मान सकते। निस्संदेह इसे पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध नहीं किया जा सकता किंतु यह प्रयोग से सिद्ध और स्वीकृत है। हिंदी में ऐसे अनेक शब्द हैं जो पाणिनि के बंधनों से मुक्त हैं और यह स्वाभाविक है। भाषा का प्रवाह अग्रगामी होता है, उसे पीछे की ओर मोड़ना संभव नहीं। सृजन से हिंदी में अनेक शब्द व्युत्पन्न हुए हैं। सृजनात्मक, सृजनात्मकता, सृजनशील, सृजनकर्म, सृजनकारी आदि आदि।

सृजन और सर्जन

शब्द विवेक:  सृजन और सर्जन यदि प्रत्येक हिंदी शब्द के लिए संस्कृत की ओर मुड़ना आवश्यक हो तो सृजन चाहे तत्सम प्रतीत होता हो, है नहीं। इस प्रकार कह सकते हैं कि सृजन भ्रामक व्युत्पत्ति का उदाहरण है! संस्कृत में √सृज् से सर्जन बनता है, सृजन नहीं। शतृ प्रत्यय जोड़ने पर कृदंत अव्यय 'सृजन्' बनता है, संज्ञा 'सृजन' नहीं। सर्जन (सृष्टि), विसर्जन ( मुक्ति, त्याग, छोड़ना), उत्सर्जन  (अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने की क्रिया)-- आदि शब्द इसी "शुद्ध" संस्कृत शब्द सर्जन से व्युत्पन्न हुए हैं। हिंदी में सृजन भी सर्जन के समानांतर ही प्रयुक्त होता आ रहा है, इसकी आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) सर्जन से अधिक है और इसे अशुद्ध नहीं मान सकते। निस्संदेह इसे पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध नहीं किया जा सकता किंतु यह प्रयोग से सिद्ध और स्वीकृत है। हिंदी में ऐसे अनेक शब्द हैं जो पाणिनि के बंधनों से मुक्त हैं और यह स्वाभाविक है। भाषा का प्रवाह अग्रगामी होता है, उसे पीछे की ओर मोड़ना संभव नहीं। सृजन से हिंदी में अनेक शब्द व्युत्पन्न हुए हैं। सृजनात्मक, सृजनात्मकता, सृजनशील, सृजनकर्म, सृजनकारी आदि