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रंग चर्चा : दो

फागुन के बहाने रंग चर्चा  फागुन की दस्तक सुनने के लिए कान नहीं , मन चाहिए | फागुन ही तो वह महीना है जो हमें रंगों की सुध दिलाता है और बाहर-भीतर से रंगकर हम सतरंगी सपनों में खो जाते हैं | रंग शब्द का मूल अर्थ ही है लाल रंग या लाल रंग से रंगना. इस लाल रंग में बहुत कुछ है. लाल है तो यौवन है , राग है , लगाव है , नशा है , काम है , क्रोध है , शौर्य है , पराक्रम है और ... और भी बहुत कुछ है... बस रंग ही रंग है. टेसू को वसंत के आगमन का सूचक इसीलिए माना गया होगा कि इसके लाल रंग में कितने संकेत हैं , कितनी व्यंजनाएं हैं. टेसू केवल लाली ही नहीं बिखेरता , टेसू के खिलने पर चारों ओर अपने आप ही लाली , काम , प्रसन्नता , मदमस्ती , रंगीनी भी बिखर जाती है. टेसू फूले तो होली आती है और होली गई तो टेसू की चमक भी धीरे-धीरे मद्धिम होने लगती है.  यौवन का रंग भी लाल माना गया है. बड़े-बूढ़े कहते हैं , जब आँखों में लाली आती है तो समझो जवानी दरवाजे पर खड़ी है. कादम्बरी में बाण भट्ट ने कहा है , “युवाओं की दृष्टि अपनी धवलता का त्याग न भी करे , तो भी “रागमय” तो होती ही है.” यहाँ वे राग

रंग चर्चा : एक

लाल स्याही रंगों की रंगत न्यारी है।  रंग हज़ारों वर्षों से हमारे जीवन में अपनी जगह बनाए हुए हैं। प्रारंभ में लोग प्राकृतिक रंगों को ही उपयोग में लाते थे। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में जो चीजें मिलीं उनमें ऐसे बर्तन और मूर्तियाँ भी थीं जिन पर रँगाई की गई थी। उनमें एक लाल रंग के कपड़े का टुकड़ा भी मिला। विशेषज्ञों के अनुसार इस पर मजीठ या मंजिष्‍ठा की जड़ से तैयार किया गया प्राकृतिक रंग चढ़ाया गया था। हजारों वर्षों तक मजीठ और बक्कम वृक्ष की छाल लाल रंग का मुख्‍य स्रोत थी। पीपल, गूलर और पाकड़ जैसे वृक्षों पर लगने वाली लाख की कृमियों की लाह से महावरी लाल रंग तैयार किया जाता था। पीला रंग और सिंदूर हल्दी से प्राप्‍त होता था। ऐसी बहुत सी प्राकृतिक वनस्पतियाँ थीं जो रंग बनाने के काम आती थीं। भारतीय समाज में तो रंग ही रंग छाए हुए हैं। त्योहारों में रंग, पर्वों-संस्कारों में रंग, खुशी के रंग, शृंगार के, क्रोध के। अब समाज में रंग हैं तो भाषा में क्यों न हों। हमारे  कुछ व्यवसाय भी रंग से जुड़े हैं जैसे रंगरेज़, रंगसाज़ और इधर एक नया व्यवसाय रंगदारी बन गया है, जिसमें कहा जाता है कि हर