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पाव रोटी, डबल रोटी और सैंडविच

किसी कवि ने रोटी को चंद्रमा माना था, ऐसा चंद्रमा जो बादलों के पार रहता है और यहाँ भूखे उसका इन्तज़ार कर रहे होते हैं पर वह उनके हाथ लगता नहीं है। यूं रोटियों की गिनती किसी न किसी संख्या में ही होती है किंतु कभी-कभी लाक्षणिकता में कह दिया जाता है- "एक-आध रोटी मिल जाती है"। एक-आध रोटी मिलना मुहावरा है जिसका तात्पर्य एक रोटी, आधी रोटी या एक और आधी अर्थात् डेढ़ रोटी से नहीं होता, 'कुछ' रोटियों से होता है। रोटी से जुड़े दो संख्यावाचक विशेषण बड़े लोकप्रिय हैं और जितने लोकप्रिय हैं उतने ही उलझाने वाले भी। वे हैं- "पाव" (1/4) और "डबल" (1+1)। रोटी, बड़ी छोटी जैसी भी हो, सिंकेगी तो पूरी ही। वह पाव या डबल कैसे हो सकती है!  यह तो हम जानते हैं कि पाव रोटी या डबल रोटी तवे या तंदूर में सिँकी भारतीय रोटियाँ नहीं हैं। ये रोटियाँ ख़मीर से फुलाए गए आटे से बनती हैं और 'लोफ़' या 'ब्रेड' नाम के साथ यूरोप से  यहाँ पहुँची हैं। हाँ, इनके साथ पाव या डबल विशेषण जोड़कर इन्हें संकर शब्द बनाने का श्रेय भारत को ही जाएगा। अब पहले पावरोटी। ईसाई धर्म में

लूट सके तो लूट

क्लाइव जब भारत से अकूत धन-संपदा, हीरे-जवाहरात लूट कर 1760 में लंदन पहुँचा तो उसके साथ अंग्रेजी भाषा को भी एक नया शब्द मिला 'लूट'(loot) जिसका पहला आधिकारिक उल्लेख चार्ल जेम्स की "Military Dictionary" (1802) में मिलता है। लूटना संस्कृत √लुण्ट् (चुराना, छीनना) से व्युत्पन्न लगता है। लुण्टति > प्रा. लुट्टइ, (ब्रज/अवधी लूटै) लूटता है। लूट, लुटेरा, लूटपाट, लुंठ, लुंठन इसी परिवार के शब्द हैं।√लुप् + त्रन् - लोप्त्र का अर्थसाम्य (stolen property, plunder, booty)  अधिक निकट लगता है। इसलिए चार्ल जेम्स और हॉब्सनजॉब्सन ने इसे लोप्त्र, लोप्त्रन से माना। किंतु मैक्ग्रेगर और टर्नर ने भी प्राकृत luṭṭaï [*luṭṭati] (to plunder, loot, rob) से माना है।

मटरगश्ती

माना मौसम मटर का आ गया, लेकिन बाज़ार में बिकने वाली या खेत में उगने वाली मटर से मटरगश्ती शब्द का कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध नहीं है। ऐसा कुछ नहीं है कि लोग मटर खाकर मटरगश्ती करते हों या मटर के खेतों में मटरगश्ती होती हो।  मटरगश्ती का पूर्व पद "मटर" सब्जी वाला मटर नहीं है। यह पश्तो से आगत शब्द माना जाता है, किंतु इसका मूल संस्कृत "मूत्र" से मालूम पड़ता है। पश्तो متړ (mataṛ / mutaṟṟ) का आशय है - महामूर्ख, डॉल्ट, बिस्तर पर मूत्र करने वाला, pissabed। पहाड़ी में कहें तो 'मुतुवा'।  दूसरा पद 'गश्ती' फ़ारसी की गश्तन क्रिया से बना है जिसका अर्थ है डोलना, घूमना फिरना, चक्कर लगाना, रखवाली करना। गश्त अर्थात सैर सपाटा, मनोरंजन के लिए घूमना फिरना, भ्रमण, चक्कर, टहलना , दंगा आदि को रोकने के लिए किसी अधिकारी का किसी क्षेत्र में अथवा उसके चारों ओर घूमना ।गश्ती (विशेषण) चारों ओर गश्त लगाने वाला। जगह-जगह घूमता-फिरता रहने वाला। जैसे-गश्ती पुलिस।मटर और गश्ती दोनों को मिलाकर बना मटरगश्ती अर्थात मटरगश्त होने की अवस्था या भाव। केवल मस्ती के लिए निरुद्देश्य घूमना। डोलते

गू, गुएन और पू 💩

गू, गुएन और पू ••• मानव मल के लिए संस्कृत में अनेक शब्द हैं - विष्ठा, पुरीष, गू, गूथ, उच्चार, अवस्कर, शमल, शकृत्, पुरीष, वर्चस्क, विश्, कर्पर, कीकस, कुल्य। इनमें से कुछ तो संस्कृत के संस्कृत बनने से भी पहले से प्रचलित मिट्टी के शब्द रहे होंगे या द्रविड़, ऑस्ट्रिक मूल के भी। जैसे कीकस के समान तमिल में शब्द है कक्कुसु। हिंदी, उर्दू में जो शब्द प्रचलित हैं उनमें एकमात्र मूल शब्द गू (संस्कृत गूथ, गू:) है, जिसे ग्रामीण मानकर इसके प्रयोग से बचा जाता है। अन्य हैं - टट्टी, झाड़ा, हग्गा, छिच्छी। इनमें टट्टी को भी अब ग्राम्य प्रयोग समझ कर शिष्ट भाषा में स्थान नहीं दिया जाता। लोक में झाड़ा भी है जो बहुत कम प्रचलित है, कहिए कि लुप्त हो चला है। हग्गा, छिच्छी बाल भाषा के शब्द हैं, आम भाषा के नहीं। टट्टी मल त्याग की क्रिया के लिए लक्षणा से बना अनुनाम (metonym) है। पहले टाट और बाँस की सहायता से बने एक बाड़े को टट्टी कहा जाता था जो मल त्याग के लिए निर्धारित स्थान पर लोकलाज से बचने के लिए एक प्रकार की आड़ का काम देता था। कालांतर में यही टट्टी गू का पर्याय बन गया और टट्टी जाना यौगिक क्रिया। जंगल जाना, शौ

भाड़, चूल्हा और तंदूर

आवेश या झुँझलाहट में आपने ऐसी कुछ उक्तियाँ सुनी होंगी: भाड़ में जाए तुम्हारी सलाह ... चूल्हे में जाय तुम्हारा तमाशा ... भाड़ में डालो अपनी सौगात ... भट्ठी से निकला भाड़ में पड़ा ... (छोटी विपत्ति से निकलकर बड़ी विपत्ति में फँसना)। भट्टी, भट्ठी, भज्जी, भुज्जी, भाजी और भाड़ ये सब संस्कृत की भ्रस्ज् (भूनना, पकाना) धातु से जन्मे हैं, इसलिए एक ही परिवार के सदस्य हैं। बस, परिस्थिति के मारे अलग-अलग कामों में फँसे और अलग-अलग नामों से पहचाने जाने लगे।  भट्ठी की व्युत्पत्ति संस्कृत √भ्रस्ज् > भ्राष्ट > प्राकृत भठ्ठ > हिंदी भट्टी/भट्ठी है। भट्ठी विशेष आकार-प्रकार का ईंट, मिट्टी आदि का बना हुआ चूल्हा है जिसके अनेक उपयोग हैं और उनके अनुसार ही भट्ठी का आकार-प्रकार होता है। पारंपरिक विधि से  रसादि दवाइयाँ बनाने वाले वैद्य, सुनार, लोहार सब की भट्ठियाँ अलग-अलग होती हैं। इत्र बनाने वाली भट्ठी भभका भट्ठी कहलाती है। चना, मक्का, मूँगफली आदि भूँजने वाले की भट्ठी को भाड़ कहा जाता है। भाड़ से ही शब्द बना है भड़भूँजिया। चूना फूँकने वाली, ईंट, खपरैल, मिट्टी के बर्तनों (सिरैमिक) को पकाने वाली बड़ी भट्ठी

कुमाउँनी में वर्षा से संबंधित अभिव्यक्तियाँ

हिंदी में 'बादल फटना' शब्द अंग्रेजी के Cloud burst का शाब्दिक अनुवाद है। बादल फटने के लिए कुमाउँनी में एक मौलिक शब्द है, "पन्यौ बान" पड़ना। बान (<वाण) का एक स्थानीय अर्थ है आकाशीय बिजली, वज्रपात। पन्यौ बान अर्थात् पानी वाला वज्रपात। इसमें अचानक किसी छोटे क्षेत्र में भीषण वर्षा होती है जो वज्रपात से कम विनाशक नहीं होती, जैसे 2013 की केदारनाथ त्रासदी। ऐसी धारासार वर्षा होती है कि लगता है जैसे बादलों के थैले का मुँह अचानक खुल पड़ा हो। सारी वर्षा एक ही जगह ऐसे गिरती है जैसे अनाज के बोरे को उलटा जा रहा है। इस विनाशकारी वर्षा के लिए लोक ने बहुत सार्थक, सटीक नाम चुना है : "पन्यौ बान" अर्थात् पानी वाला वज्रपात।  कुमाउँनी में वर्षा से संबंधित कुछ अन्य अभिव्यक्तियाँ इस प्रकार हैं-- बर्ख लागण (वर्षा प्रारंभ होना) द्यो लागण (द्यो< सं. देव:=वर्षा) झमझमाट हुण (हल्की वर्षा) झड़ पड़ण (कुछ दिन निरंतर वर्षा) तौड़ाट पड़ण (बड़ी बूँदों वाली तेज वर्षा) अनेश-मनेश हुण (वर्षा के बादलों से अंधकार होना) गाड़-खाड़ हुण (वर्षा से नदी नालों का भर जाना) भुम्क फुटण (वर्षा से भूमिगत जल

भाषाई या भाषायी

स्वरांतता हिंदी की स्वाभाविक प्रकृति है। गया/ गई में एक स्थान पर श्रुति के रूप में य् व्यंजन और दूसरे पर शुद्ध स्वर ई आने का एक विशेष कारण है, जिसकी चर्चा अन्यत्र की गई है। गई हुई को गयी हुयी लिखने वाले इस 'यी-संप्रदाय' का प्रभाव संक्रमित होकर अनेक स्थानों पर देखा जा सकता है; जैसे: स्थायी, अनुयायी, उत्तरदायी, विनयी, मितव्ययी जैसे शब्दों को स्थाई, अनुयाई, उत्तरदाई, विनई, मितव्यई आदि लिखा जा रहा है।  इधर कुछ हिंदी के लेखकों, शिक्षकों, भाषाविदों, वैयाकरणों को तक एक शब्द लिखते हुए पाया जा सकता है, "भाषायी"। यह अति सतर्कता का परिणाम है । इन्हें यह तो मालूम है कि स्थाई, उत्तरदाई जैसे शब्द अशुद्ध हैं, इनमें ई के स्थान पर यी आना चाहिए। तो इसका उपयोग करते हुए वे भाषाई को भाषायी लिख देते हैं, और बेचारी भाषा घुटकर रह जाती है। यह मान लिया जाना चाहिए कि जान-बूझकर अशुद्धि कोई नहीं करता, अशुद्धियों का भी अपना व्याकरण होता है। यहाँ भी मुख्य कारण यह है कि शब्द की मूल संरचना ज्ञात न होने से ई के स्थान पर यी और यी के स्थान पर ई आ रही है। जब यी मूल शब्द का ही घटक हो, अर्थात उसकी वर्तनी म

माजरा

मिर्ज़ा ग़ालिब की एक ग़ज़ल की पंक्ति है "या इलाही ये माजरा क्या है।"   मेरे एक मित्र माजरा डबास के हैं। हमेशा सूत्रों में बात करते हैं। पूछा तो उन्होंने बताया कि उनका माजरा वह माजरा नहीं है जो ग़ालिब साहब की समझ में नहीं आया। हम हैरान थे कि जब ग़ालिब साहब नहीं समझे तो हम क्या समझें। तभी ग़ालिब साहब की फुसफुसाहट सुनाई दी: "मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ  काश पूछो कि मुद्दआ' क्या है" ग़ालिब साहब, मुद्दआ तो माजरा है और आप पहले ही इलाही का वास्ता देकर फ़रमा चुके हैं कि माजरा क्या है? बहरहाल खोज जारी रही तो पाया कि माजरा नाम के अनेक गाँव हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब में विशेष रूप से मिलेंगे। कुछ उदाहरण हैं: लाखण माजरा, लावा माजरा, माजरा डबास, राणामाजरा, बामण माजरा, भोडवाल माजरा, खलीला माजरा, नैन माजरी, नूना माजरा, भैणी माजरा, मोहम्मदपुर माजरा, माजरा महताब, समसपुर माजरा, अड्डू माजरा इत्यादि।  माजरा शब्द भी ग्राम वाचक है और मूलतः अरबी "मज़रा" से है। नुक़्ता हट जाने पर रह गया ज । अरबी में मज़रा का अर्थ है : खेती की जगह, खेत, खेती, वह भूमि जो खेती के योग्

गिरना- ढहना

कुछ राज्यों में बुलडोज़र आंदोलन की अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के बाद एक पत्रकार मित्र ने पूछा है, "बुलडोज़र से मकान ढहाए गए या गिराए गए?" वे गिरना-गिराना और ढहना-ढहाना में अंतर जानना चाहते हैं। गिरना और ढहना में भेद करना इतना कठिन तो नहीं है, फिर भी इस बीच माध्यमों में छपी या बोली गई बातों से ऐसा अवश्य लगता है कि कहीं भ्रम की स्थिति है। गिरना (प्राकृत *गिरति > गिरइ या संस्कृत √गल् गलन से व्युत्पन्न अकर्मक क्रिया है और गिरने का काम स्वत: होता है (ओले गिरे)। गिराना सकर्मक है। यह काम किसी माध्यम से होता है। (तुमने चाबी कहाँ गिरा दी?)। इसी प्रकार ढहना (संस्कृत ध्वंस > ध्वंसन से व्युत्पन्न)अकर्मक क्रिया है (बाढ़ से दो मकान ढह गए) और ढहाना सकर्मक (नगर निगम ने दो मकान ढहा दिए) । यहाँ तक तो ठीक है। गिरना में गिरने वाली वस्तु ऊँचाई से धरातल की ओर या धरातल पर गिरती है, बिजली गिरती है और आँसू भी गिरते हैं। गिरने वाली वस्तु उसी रूप में रह सकती है, जैसे चाबी गिरी। आम गिरे। ढहना में ऐसा नहीं होता। ढहने वाली वस्तु नष्ट-भ्रष्ट हो सकती है, रूप और आकार में बिगड़ सकती है, मलबे में बदल सकती ह

विघ्न, बाधा और अड़चन

विघ्न, बाधा और अड़चन ये तीनों अब समानार्थी की भांति हिंदी में प्रयुक्त हो रहे हैं और एक दूसरे के स्थान पर वैकल्पिक रूप से इनका प्रयोग किया जाता है किंतु तीनों में न केवल रचना की दृष्टि से, अपितु अर्थ की दृष्टि से भी सूक्ष्म अंतर है।  विघ्न में 'घ्न' सबसे डरावना है। यह संस्कृत की √हन् धातु से बना है जिसका अर्थ है मारना। शत्रुघ्न (शत्रु को मारने वाला), कृतघ्न (किए हुए उपकार को न मानने वाला) शब्दों में यही घ्न है। घ्न से पहले वि उपसर्ग उसे और विशेष तथा डरावना बना देता है। विघ्न में तीव्रता अधिक है। यह ऐसी बाधा है जो किसी काम को संपन्न करने से पूरी तरह रोकने का प्रयास करती है। बाधा संस्कृत √बाध् धातु से है जिसका अर्थ है दबाना, सताना, पीड़ा पहुँचाना। अमरकोश बाधा को पीड़ा का ही पर्याय मानता है। यह पीड़ा मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार की हो सकती है। ऐसी मानसिक/शारीरिक पीड़ा जो रुकावट पैदा करे, वह बाधा है। हिंदी में अब विघ्न और बाधा में कोई अंतर नहीं किया जाता। दोनों को पर्याय की भाँति और शब्द युग्म के रूप में भी प्रयोग किया जाता है: विघ्न-बाधा। अड़चन विघ्न-बाधा से कुछ कम तीव्रता की

फन-फ़न, कफ-कफ़ और फ़ल-फ़ूल

फारसी, अरबी से हिंदी में आए कुछ शब्दों के लिए देवनागरी वर्तनी में नुक्ता लगाने न लगाने के बारे में बड़ी बहस है, जिसका समाधान हो नहीं पाता। दो पक्ष हैं। एक के अनुसार फ़ारसी, अरबी, तुर्की (FAT) के शब्दों का ही पूर्ण बहिष्कार किया जाए। ना रहेगा बाँस, ना बजेगी बाँसुरी। जब फ़ारसी, अरबी के शब्द ही नहीं होंगे तो हमें नुक़्ते की जरूरत क्यों पड़ेगी। वे लोग भूल जाते हैं कि हिंदी में प्रचलित फ़ारसी, अरबी के शब्द अब हिंदी कि शब्दावली की अपनी संपत्ति हैं। ठीक ऐसे ही जैसे हिंदी या भारतीय मूल के शब्द अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा की। नुक्ता फ़ारसी, अरबी के लिए ही नहीं, अंग्रेजी से आगत शब्दों के लिए भी ज़रूरी होता है। यह वर्ग FAT मूल के शब्दों का बहिष्कार तो करता है किंतु अंग्रेजी मोह के कारण अंग्रेजी शब्दों का बहिष्कार नहीं करता; हाँ, नुक्ते का बहिष्कार वहाँ भी करता है। दूसरा धड़ा कम से कम ज़ और फ़ वाले शब्दों में यथास्थान नुक्ता लगाए जाने का सुझाव देता है क्योंकि इन ध्वनियों के अनेक लघुतम व्यतिरेकी युग्म हिंदी में उपलब्ध हैं और नुक्ते के बिना अर्थ का अनर्थ हो जाने की पूरी संभावना रहती है।  आप साँप के फ

जातीय गालियाँ और अपशब्द

किसी भी भाषा में समाज भाषा-वैज्ञानिक नियंत्रण बड़े महत्वपूर्ण होते हैं। इनसे भाषिक नियमों में विचलन होता है, अर्थ विस्तार होता है, अपकर्ष होता है और सबसे बड़ी बात कि शब्द प्रयोग पर नियंत्रण या नियमन भी हो जाता है । हिंदी में भी अनेक समाज भाषा वैज्ञानिक विचलन देखे जा सकते हैं। भाषा विशेष के शब्द भंडार के सामान्य से लगने वाले शब्दों में भी वक्ता के उद्देश्य, टोन और उद्दिष्ट पात्र के प्रति वक्ता के दृष्टिकोण के अनुसार अर्थ में विशेष परिवर्तन आ जाता है। इसका एक आयाम है- जातीय गालियाँ और अपमानजनक शब्द। भारत चूँकि भौगोलिक विविधताओं, विविध भाषाओं और मानव समुदायों का देश है, इसलिए इस प्रकार के विविध शब्द प्रत्येक भारतीय भाषा में प्राप्त होते हैं। राज्यों और क्षेत्रों के अनुसार कुछ अपमानजनक भाषिक अपकर्ष इस प्रकार हैं। संपूर्ण हिंदी भाषी क्षेत्र के लिए जो अपमानजनक शब्द गढ़े गए हैं उनमें प्रमुख हैं - गौ पट्टी, गाय पट्टी, गोबर पट्टी और अंग्रेजी में काऊ बेल्ट। विडंबना यह है कि इन शब्दों को प्रचारित करने में इसी पट्टी के मीडिया ने भी कसर नहीं छोड़ी।  कथित गाय पट्टी के पूर्वी क्षेत्र के निवासियों के

स्वेद से पसीना वाया स्वेटर

बचपन में स्वेटर को अपनी उम्र के लोग 'स्वीटर' कहते थे। इसे हमने सीधे-सीधे अंग्रेजी के 'स्वीट' से जोड़ा (बच्चों को स्वीट शब्द से यों भी अधिक मोह होता है!)।‌ जो पहनने में अच्छा लगे, जाड़ों में जिसे पहनना मीठा लगे, वह स्वीटर। आगे चलकर स्वेटर शब्द भी जानकारी में आया तो हमने सोचा स्वीटर > स्वेटर। नाम ही तो बदला है, गुण स्वभाव तो मीठा ही है! जब शब्दों की व्युत्पत्ति खोजने का कीड़ा कुछ ज्यादा ही काटने लगा तो पता लगा कि हमारा स्वीट मीठा ना होकर कुछ और ही स्वाद का है। संस्कृत में एक धातु है √स्विद्  जिसका अर्थ है पसीना होना, गीला होना आदि। इसी शब्द से बना है स्वेद, अर्थात पसीना, श्रम जल। स्वेद के लिए लोक में अधिक प्रचलित पसीना शब्द की ओर चलें। कुछ लोग पसीना को फ़ारसी का मान लेते हैं जो ठीक नहीं है। यह पसीना तो सीधे-सीधे स्वेद से बना है। स्वेद से प्र उपसर्ग लगाकर प्रस्वेद, प्रस्वेदन से पसीना; या दूसरा मार्ग है - प्र+स्विद्+क्त = प्रस्विन्न > पसिन्नअ > पसीना। संस्कृत में जो स्वेद है, वही अवेस्ता भाषा में ह्वेद हो जाता है। अब थोड़ा स्वेटर की ओर मुड़ा जाए। आश्चर्य नहीं होना

बादाम कथा

बादाम, एक तरह का मेवा, भूमध्यसागरीय जलवायु का पेड़ है और मूलतः ईरान और उसके आसपास के देशों की वनस्पति है। यह जंगली वृक्ष था और सबसे पहले पालतू बना लिए जाने वाले पेड़ों में इसकी गिनती होती है। माना जाता है कि लगभग 3000 से 2000 ईस्वी पूर्व में इसे पालतू बनाकर उगाया जाने लगा था। जहाँ तक बादाम शब्द की व्युत्पत्ति का प्रश्न है, यह ईरान की पहलवी भाषा में वादाम wādām / वुदाम wudām (अर्थात बादाम का पेड़ या फल) से बताई गई है। यही वाताम फ़ारसी में बादाम बन गया। फ़ारसी में बादाम होने के कारण बहुत से लोग इसे /बा-/ उपसर्ग से बना शब्द मानते हैं, क्योंकि हिंदी-उर्दू में बा- उपसर्ग वाले बहुत से शब्द प्रचलित हैं, इसलिए बा+दाम अर्थात दाम (मूल्य) वाला, मूल्यवान फल। यह व्युत्पत्ति भ्रामक है।  संस्कृत में इसी वादाम से वाताम या वाताद शब्द आया जान पड़ता है। पहलवी वादाम से ध्वनि साम्य के कारण और वात रोगों में लाभदायक होने के कारण इसको वाताम कहा गया और वात रोग की चिकित्सा से जोड़कर वाताद (वाताय वातनिवृत्तये अद्यते इति, अद् + घञ्) । नहीं लगता कि संस्कृत वाताम से यह शब्द ईरान में जाकर वादाम बना गया होगा क्योंक

चंदन और अफीम की रिश्तेदारी

अजीब बात है ना! कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली। कहाँ चंदन-सा पवित्र काष्ठ और कहाँ अफीम-सा नशा। किंतु चोंकिएगा नहीं, इन दोनों का मूल एक ही है। और यह मैं किसी चंडू खाने में बैठकर नहीं लिख रहा हूँ। चंडूखाने से याद आया, आप चंडू का अर्थ तो जानते होंगे। चंडू है अफीम और चंडू शब्द का विकास हुआ है द्रविड़ मूल के चंटू शब्द से। चंटू का अर्थ है घिसना, लेप बनाना या सना हुआ लेप। एक विशेष काष्ठ के सुगंधित लेप के कारण ही यह चण्टू बना चण्डन > चन्दनम्> चन्दन। पश्चिम की ओर इसकी यात्रा संदल (फ़ारसी) और सैंडलवुड के रूप में हुई और पूर्व की ओर कोरिया, जापान तक यह चंटू > चंडू के रूप में पहुंचा। अंतर यह भी रहा की पश्चिम की ओर तो यह चंदन का ही पर्याय बना रहा और इसकी सुगंध बनी रही किंतु पूर्व की ओर नशीले पदार्थ अफीम के लेप के लिए प्रयुक्त हुआ, जो पीने के लिए प्रयुक्त होता है। गंध भी बदली, अर्थ भी। चीन से चंडू पुनः पश्चिम की ओर एक स्वतंत्र शब्द के रूप में पहुँचा और पश्चिम से फिर भारत लौटा। अब भारत के पास एक ही माता-पिता की दो संतानें हैं - चंदन और चंडू।  यह आप पर है कि आप इसे चंड़ूखाने की गप समझें या शब्

गृह-ग्रह, घर-मकान, अनुग्रह और अनुगृहीत

गृह तत्सम शब्द है, अर्थ है- घर, निवासस्थान, बसेरा। हिंदी में सामान्यत: देखा जाता है कि गृह अकेला बहुत कम प्रयुक्त होता है। मैं अपने गृह गया, गृह से आया ऐसा नहीं कहा जाता; कहा जाता है: मैं घर गया, घर से आया। गृह तो प्रायः समास के रूप में प्रयुक्त देखा जाता है, जैसे गृह कार्य, गृह मंत्री, गृह प्रवेश, गृह सचिव इत्यादि। इन स्थितियों में घर कार्य, घर मंत्री, घर सचिव, घर प्रवेश नहीं कहा जाएगा। गृहस्थ, गृही और गृहिणी इसी तरह से बने हैं। घर गृह से बना तद्भव शब्द है। इसका प्रयोग क्षेत्र गृह से अधिक विस्तृत है। घर  निवास, शरण, रहने-खाने की जगह या फिर निजी संपत्ति को सुरक्षित रखने का एक स्थान  है। घर या गृह किसी घर गृह के भीतर भी हो सकते हैं एक इकाई के भीतर की इकाइयाँ। जैसे गर्भगृह, पूजा गृह, पूजा घर, रसोईघर, स्नानघर, सामान घर। कुछ घरों में आप रहते नहीं, अधिक समय भी नहीं बिताते। बस, काम संपन्न होने पर निकल पड़ते हैं; जैसे - जलपान गृह, पूजा गृह, स्नान गृह, डाकघर, तारघर, टिकिटघर, बिजलीघर। घर अलग से स्वतंत्र शब्द के रूप में या यौगिक रूपों में प्रयुक्त हो सकता है। जैसे: मेरे घर आइए।  गाँव में कितने

भाव, मूल्य और दर

संस्कृत में √भू (सत्तायाम्) से घञ् प्रत्यय जोड़कर भाव बनता है जिसका अर्थ है: होना, अस्तित्व, स्थिति, सत्ता। हमारी प्रवृत्ति, स्वभाव और स्वरूप भी भाव के अंतर्गत आ जाते हैं। भाव किसी के मन में उठने वाले मूल विकार हैं जो प्यार, स्नेह, लालसा, सहानुभूति, संवेदना, सुख के भी हो सकते हैं और आश्चर्य, क्रोध, दुख, ईर्ष्या, वासना के भी।  साहित्य शास्त्र में रस निष्पत्ति के उपकरणों के रूप में स्थायीभाव, विभाव, अनुभाव, संचारी भाव, व्यभिचारी भाव आदि मानसिक संकल्पनाएँ हैं जो रस निष्पत्ति के हमारे मानसिक अनुभव में सहायक होती हैं और हम कवि-कलाकार के भावों से एकात्म हो पाते हैं। भावों का आधिक्य हमें द्रवित कर सकता है। प्रेमी-प्रेमिका के संयोग, वियोग से उत्पन्न होने वाले सुख-दुख जो अभिनय की मुद्राओं, नृत्य मुद्राओं या गीत-संगीत से प्रस्तुत किए जाएँ वे भी भाव हैं। सामान्य बोलचाल में नाज-नखरे या चोंचले करना भाव दिखाना है; कोई अधिक करे तो कहा जाता है भाव खा रहा है, कुछ करना पड़ेगा इसके लिए। दूसरे भाव का संबंध मन के अमूर्त अनुभवों से नहीं, मूर्त जगत की ठोस वस्तुओं के क्रय-विक्रय, मूल्य और दर से है । ये भाव

लगभग, प्रायः और बहुधा के आसपास

लगभग, प्रायः बहुधा और  आसपास ये सभी अव्यय अनिश्चितता के द्योतक हैं। लगभग में पूर्व पद लगना क्रिया से बना है और अगला उसी का पुनरुक्त शब्द है। इस प्रकार 'लगभग' एक द्विरुक्त शब्द है। जब हम किसी एक संख्या या क्रिया व्यापार को निश्चित रूप में नहीं बता सकते तो लगभग का प्रयोग करते हैं। ~ 'लगभग पचास लोग' का अर्थ है: पचास के आसपास, 2/4 कम या अधिक।  संकेतित इकाई (संज्ञा) के पूर्व यह लगभग संख्यावाची विशेषण के प्रविशेषण का प्रकार्य करता है और संकेतित संज्ञा के बाद आने पर लगभग से पूर्व कारक प्रत्यय 'के' आता है; जैसे:  ~लगभग 20 आम थे । ~बीस के लगभग आम थे।  ~लगभग सभी आम कच्चे थे। अर्थ समान होते हुए भी वाक्य संरचना में कुछ अंतर दिखाई पड़ता है। अब इन वाक्यों को देखें: ~पांडुलिपि लगभग पूरी हो गई । ~मकान लगभग तैयार है । ~तुम्हारा उत्तर लगभग सही है । ऐसी स्थिति में 'लगभग' शुद्ध रूप से क्रिया विशेषण का प्रकार्य करता है और इसकी अन्विति क्रिया के निकट बैठती है। लगभग पूरा होना या लगभग तैयार होना का आशय है, बस थोड़ी सी कसर रह गई है अन्यथा कार्य पूरा समझें। ऐसी स्थितियों में लगभ

बम पुलिस

आज़ादी से लगभग 150 वर्ष पहले के कालखंड में एक शब्द बहुत प्रचलित था "बम पुलिस"। आज लोग इसे बम निष्क्रिय करने वाला पुलिस दस्ता समझेंगे, किंतु तब इसका विशेष अर्थ में प्रयोग होता था।  भारत में परंपरा से लोटा लेकर खुले में शौच जाने की प्रथा थी। कुछ शहरों में अंग्रेजों ने खुले में शौच का चलन रोकने के लिए कुछ क्षेत्रों को घेराबंद कर दिया। उस घेरा बंद इलाके में सार्वजनिक शौचालय बनाए गए और उनकी व्यवस्था के लिए कुछ कर्मी रखे गए । घेराबंद शौचालयों को bound place कहा गया। परंपरा से खुले में शौच जाने के आदी लोगों पर नियंत्रण के लिए, उन्हें घेर-घार कर सार्वजनिक शौचालयों की ओर भेजने के लिए जिन कर्मचारियों की व्यवस्था की गई उन्हें बोंड प्लेस पुलिस कहा गया और यही शब्द लोक में बम पुलिस बन गया। यह शब्द आज भी सफाई कर्मियों के लिए प्रयोग में है। पुराने लोगों से सुना जाता है कि मल निकासी के अतिरिक्त लोगों को खुले में शौच के लिए जाने से बलपूर्वक रोकना, उन्हें दंडित करना भी उनका काम था। संभवतः इस काम को पुलिस वाले काम से जोड़कर बाउंड प्लेस बम पुलिस बन गया हो। पहाड़ में बम पुलिस की कहानी थोड़ा सा भिन

फ़्रिंज को फ़्रिंज ही रहने दें, कोई नाम न दें

~गुरुजी इंद्र का अर्थ? ~इंद्र का अर्थ- मघवा।  ~मघवा क्या? ~मघवा माने विडोजा। ~विडोजा? ~हाँ-हाँ, इंद्र। बेचारा शिष्य सिर न खुजाए तो क्या करे। इधर कुछ दिनों से "फ़्रिंज एलिमेंट्स" के हिंदी समानार्थक पर हो रही बहस से यह 'इंद्र- मघवा- विडोजा' प्रसंग याद आ गया। समय के साथ-साथ नए शब्द आते हैं और भाषा को संपन्न करते हैं। हाल की घटनाओं ने सभी भारतीय भाषाओं को एक शब्द दिया है: "फ़्रिंज एलिमेंट्स"। इसके हिंदी पर्यायों के बारे में विद्वानों में चर्चा हो रही है। अर्थ ढूँढने वालों के दो धड़े दिखाई पड़ रहे हैं। एक जो राजनीतिक तंज के रूप में इसे ले रहे हैं। वे लोग इसका अर्थ लंपट, धूर्त, बाहरी, महत्वहीन कह रहे हैं। दूसरे धड़े के लोग हैं जो अर्थ तो ईमानदारी से ढूँढ़ रहे हैं लेकिन तैरना न जानने से भाषा सागर में छटपटा रहे हैं। ऐसे लोग इसके अनुवाद में जो शब्द दे रहे हैं वे कुछ इस प्रकार हैं: आनुषंगिक तत्व, बाहरी तत्व, किनारे के लोग, अनधिकृत तत्व आदि। कुछ समझदार लोग सुरक्षित मार्ग के तौर पर इसे फ़्रिंज तत्व ही कह रहे हैं। ठीक भी है क्योंकि यह हिंदी में ही नहीं, अन्य भाषाओं में भ

मूर्ति और विग्रह

मूर्ति और विग्रह के अर्थ में सामान्यतः कोई अंतर नहीं है। दोनों का प्रयोग आकृति, स्वरूप, शक्ल-सूरत के अर्थ में किया जाता है। किसी की आकृति के सदृश गढ़ी हुई प्रतिमा भी मूर्ति ही है। मूर्ति और विग्रह शब्दों के प्रयोग में कहीं कुछ स्थितियों में अवश्य अंतर मिलता है। जैसे मूर्ति किसी जीवित/दिवंगत व्यक्ति या पशु-पक्षी की भी हो सकती है, विग्रह आराध्य का होता है। मूर्ति को घर , आँगन, चौराहे या किसी भी सार्वजनिक स्थान पर स्थापित किया देखा जा सकता है, विग्रह के लिए निर्धारित स्थान घर का पूजा स्थल या मंदिर का गर्भगृह ही हो सकता है। किसी देवता की मूर्ति, जब शास्त्रोक्त विधि से मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठित हो जाती है, तब वह अमुक देवता का विग्रह कहा जाता है। मूर्ति भगवान की होती है और विग्रह मानी जाने वाली मूर्ति में स्वयं भगवान ही माने जाते हैं। यह भक्त के ऊपर है कि वह किस भाव को ग्रहण करता है। 

हो गया बंटाढार

हम ज्यों-ज्यों गाँव देहात के लोक जीवन से कटकर शहरी होते जा रहे हैं त्यों-त्यों लोक से जुड़े अनेक भाषिक शिष्टाचार भी हमारे लिए अबूझ होते जा रहे हैं। मुहावरों की बात करें। सैकड़ों मुहावरे गाँव की मिट्टी से, वहाँ के जनजीवन से उत्पन्न हुए हैं। जिन्हें आज हम जानते भी हों तो भी नहीं कहा जा सकता कि आने वाली पीढ़ी उनके मूल को समझ सकेगी, उनकी सराहना कर सकेगी। ऐसा ही एक मुहावरा है बंटाढार हो जाना, बंटाढार कर देना। बंटा पीतल के बड़े बर्तन को कहा जाता है जो पानी लाने, उसे भंडारित करने तथा अन्य अनेक घरेलू या सामाजिक कामकाज में प्रयुक्त होता था। राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि में गांवों में अब भी कहीं-कहीं बंटा दिखाई पड़ता है। हरियाणा का एक प्रसिद्ध लोकगीत आज भी गाया जाता है मेरे सिर पै बंटा टोकणी, मेरे हाथ में नेज्जू डोल मैं पतळी सी कामणी, मेरे हाथ में नेज्जू डोल।" बंटा के ढलक जाने से (ढलना/ढालना > ढाल > ढार > धार), लुढ़क जाने से उसमें रखी हुई वस्तु, पेय या खाद्य पदार्थ बिखर जाएँगे। बंटाढार होने में अधिक और संभवतः अपूरणीय हानि की संभावना है। इसलिए मुहावरा बना बंटाढार (बंटाधार) कर

चोर, चोट्टा और उचक्का

चोर संस्कृत √चुर् (चोरी करना) से बना है चोर, चौर। चोर शब्द पालि, प्राकृत, अपभ्रंश से चलकर कोंकणी, मराठी गुजराती सहित उत्तर और पूर्व भारत की सभी आर्य भाषाओं में विद्यमान है। चोर वह है जो दूसरों की चीजें ऐसे उठा ले कि किसी को पता ही न लगे, छिपकर पराई वस्तु का अपहरण करे । स्वामी की अनुपस्थिति या अज्ञान में छिपकर कोई चीज ले जानेवाला। चोर परिवार में अनेक मुहावरे और लोकोक्तियाँ हैं। चोर की दाढ़ी में तिनका (चोर का सदा सशंकित रहना ), चोर के घर छिछोर, चोर के घर ढिंढोर (पक्के बदमाश से किसी नौसिखुए का उलझना)। चोर के घर में मोर पड़ना (धूर्त के साथ धूर्तता होना)। चोर के पाँव कितने (चोर की हिम्मत कम होती है)। कुछ लोग कामचोर, मुँहचोर तो होते ही हैं, चितचोर भी होते हैं और कन्हैया जैसे चितचोर लोगों के लाडले भी। चोट्टा हिंदी में -टा प्रत्यय किसी को कमतर बताने के लिए (हीनार्थ द्योतक) है; जैसे: रोम + टा - रोंगटा, काला + टा- कलूटा। इसी प्रकार चोर + टा- चोरटा। चोरटा से ही बनता है चोट्टा, छोटी-मोटी चोरियाँ करने वाला, उठाईगीर। स्त्रीलिंग चोरटी, चोट्टी। उचक्का भी चोर ही है, अपने करतब में अधिक फुर्तीला। ऐसा

पाजी प्यादा

पाजी   संस्कृत मूलक शब्द है। अर्थ है: दुष्ट, लुच्चा, ढीठ, बदमाश। पामर, अधम, नीच, धूर्त। इसे कुछ विद्वान संस्कृत पद्य (पैर संबंधी) से मानते हैं, इस तर्क पर कि पद्य/पदाति (पैदल सैनिक) पहले लूटपाट आदि से लोगों को कष्ट पहुंचाते थे। इसलिए पाजी का अर्थ दुष्ट हो गया। पद्य (पैदल) से पाजी लाक्षणिक अर्थ में लगता है, यह मानने पर कि पैदल सिपाही लूटपाट किया करते थे, जबकि संस्कृत में पाय्य का शाब्दिक अर्थ ही दुष्ट है। पुरानी कुमाउँनी में एक संज्ञा शब्द मिलता है - पाजा (=झगड़ा, बखेड़ा)। पाजा से विशेषण बनता है, पाजी (झगड़ालू, ठग)। नेपाली में भी यह शब्द है- 'पाजा गर्नु' (to cheat: Turner)।

टें , टेंट , टेंटुवा, टंटा •••

टें - (देशज) तोते की बोली , टें-टें मुहा. टेँ- टेँ करना = व्यर्थ की बकवाद। हुज्जत ।  टें होना या बोल जाना = चटपट मर जाना जिस प्रकार बिल्ली के पकड़ने पर तोता एक बार टें शब्द बोलकर मर जाता है । झट प्राण छोड़ देना ।  टेंट - (देशज) धोती की वह गाँठ जो कमर पर खोंसी जाती है और जिसमें लोग कभी रुपया-पैसा भी रखते हैं। अंटी, रुपये रखने की छोटी थैली जो कमर पर या अंतर्वस्त्र के नीचे छिपाकर रखी जाती है । मुहावरा: टेंट में कुछ होना = पास में कुछ रुपया पैसा होना । टेंट ढीली करना = रुपए निकालना। टेंट गरमाना = हाथ में रुपया आना। टेंटुवा - गले में सामने की ओर निकली हुई हड्डी, काकली। टेंटुवा दबाना = गला घोंटना । टंटा   (सं॰ तण्डा = आक्रमण) - हलचल, दंगा, बखेड़ा, उपद्रव। दंगा मचाना ।  आडंबर, प्रपंच, बखेड़ा, खटराग, लंबी चौड़ी प्रक्रिया । जैसे:, इस दवा के बनाने में तो बड़ा टंटा है । मुहावरा- टंटा खड़ा करना = उपद्रव करना । झगड़ा मचाना।

स्वादिष्ठ स्वादिष्ट

कुछ तत्सम शब्दों की वर्तनी के बारे में भ्रम होता है कि इन के अंत में ट है या ठ? मोटी पहचान यह है कि यदि विशेषण उत्तमावस्था (Superlative degree) में है तो '-ष्ठ'(स्वादिष्ठ, श्रेष्ठ, बलिष्ठ , गरिष्ठ, कनिष्ठ); अन्यथा '-ष्ट' (इष्ट, शिष्ट, अनिष्ट, अदिष्ट, अदृष्ट, क्लिष्ट, परिशिष्ट, निकृष्ट, स्वादिष्ट)। स्वादिष्ठ✓ठीक है, किंतु अधिक प्रचलन को देखते हुए स्वादिष्ट को तद्भव स्वीकारा जा सकता है। यहाँ यह ध्यान रखना होगा कि हिंदी में स्वादिष्ट शब्द स्वादिष्ठ की भाँति उत्तम अवस्था का विशेषण नहीं रह गया। अब स्वादिष्ट का अर्थ 'सबसे अधिक स्वाद वाला' नहीं, वरन् 'स्वाद वाला' ही रह गया है। तुलनात्मकता के लिए हम -से स्वादिष्ट, -की अपेक्षा स्वादिष्ट, -सबसे स्वादिष्ट कहेंगे।विशेषणों की तुलनावस्था (Comparative degree) या उत्तमावस्था के लिए यही हिंदी की अपनी व्यवस्था है:  विशेषण के पहले 'की अपेक्षा', 'से', 'तुलना में' या 'सबसे' जोड़कर। जैसे सुंदर (तुलनावस्था):- से सुंदर, -की अपेक्षा सुंदर, -की तुलना में सुंदर;  (उत्तमावस्था) -सबसे सुंदर, सर्व सुंद

मोद, मोदक और मोदी...

किसी शब्द की व्युत्पत्ति ढूँढना बड़ा कठिन काम है; विशेषकर भारत में जहाँ एक ओर सब भाषाएँ किसी न किसी रूप में संस्कृत, पालि, प्राकृत से जुड़ती हैं और दूसरी ओर सदियों से विदेशों से संपर्क के कारण विदेशी भाषाओं के शब्द भी भारतीय भाषाओं में घुलमिल गए हैं। साथ ही भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य भाषा परिवारों के शब्द भी व्युत्पत्ति को और कठिन बना देते हैं। मोदी शब्द को ही लीजिए। बड़ा सरल, लोक प्रचलित, सम्मानित उपनाम है, किंतु इसकी व्युत्पत्ति इतनी आसान नहीं, रोचक अवश्य है। संस्कृत कोशों के अनुसार यह √मुद् से है (प्रसन्न होना, आनंदित होना, सुगंध आदि के अर्थ में)। व्युत्पत्ति इस प्रकार है - √मुद् + भावे घञ् = मोद, मोद + णिनि = मोदिन् > मोदी (one who delights) मोद प्रदान करनेवाला, आनंदी, विदूषक, हँसोड़, jestor. मुद् धातु से 'मोदक' (लड्डू) भी बना है, जिसका नाम ही आनंददायक है! मोदक बनाने वाला मोदककार (हलवाई) और इसी मोदककार से मोदी भी जुड़ता है। कालांतर में मोदी शब्द में अर्थ विस्तार हुआ और गुजराती मारवाड़ी राजस्थानी में यह केवल हलवाई के लिए नहीं, वरन सभी तरह की चीजें बेचने वाले परचूनिये के लि

दृष्टि, दीठ और दीद

दृष्टि संस्कृत √दृश धातु से बना शब्द है जिसका अर्थ है देखने की शक्ति, नज़र, निगाह | दृष्टि प्राकृत में डिटठि/दिट्ठी हो गया और हिंदी में इस से बना डीठ/दीठ । शैली प्रयोग की दृष्टि से शिष्ट प्रयोगों में दृष्टि अधिक व्यवहृत है| दृष्टिगोचर होना, दृष्टिपात करना, दृष्टिगत होना, दृष्टि बाँधना आदि ऐसे ही यौगिक प्रयोग हैं | अन्य यौगिक शब्दों में अधिक प्रचलित हैं- दूरदृष्टि , अंतर्दृष्टि, कातर दृष्टि, दृष्टि हीन, दृष्टिकोण, दृष्टिभ्रम | मुहावरों में दृष्टि डाली जाती है, दृष्टि चुराई जाती है, दृष्टि फेर ली जाती है | कुदृष्टि से दृष्टिपात करने वाले की दृष्टि बाँध भी ली जा सकती है। दृश् > दृष्टि > दृष्ट से ही दृष्टांत भी बना है; अर्थ है उदाहरण, समानार्थक तुलना। तर्कशास्त्र और अलंकार शास्त्र में दृष्टांत के अपने स्वतंत्र अर्थ हैं। लोक में दृष्टि से अधिक प्रचलित हैं दृष्टि से बने तद्भव शब्द: डीठ, दीठ या दीठि| डीठ संस्कृत दृष्टि > प्राकृत दिट्ठि, डिट्ठि से व्युत्पन्न है। "दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमई, एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं।"  डीठ के कुछ मुहावरे लोक में प्रचलित हैं; जैसे

काल, कालीन और तत्कालीन

संस्कृत से आगत 'काल' शब्द अनेकार्थी है। यह समय, अवसर, अवधि, मौसम, मृत्यु, यमराज, शिव, शनि आदि अनेक अर्थों में है। समय के संदर्भ में दिक् और काल ब्रह्मांड के दो आयाम हैं। काल का आदि ज्ञात नहीं है और यह अनंत है। काल समय की ऐसी संकल्पना है जो दो वस्तुओं के संपर्क को क्रमिक रूप से व्यक्त करती है। 'मात्रा' काल की सबसे छोटी इकाई है जो एक स्वर के उच्चारण में लगने वाले समय की द्योतक है। काल गणना के भारतीय पैमाने क्रमशः क्षण, दण्ड, मुहूर्त, प्रहर, दिन, रात्रि, पक्ष, मास, अयन, वर्ष ... युग, मन्वंतर आदि हैं। अपने लौकिक संदर्भ में हम इसे भूत, भविष्यत् और भवत् (वर्तमान) के नाम से जानते हैं। काल निरंतर गतिशील है, इसे बाँधा नहीं जा सकता। काल के निर्बंध और असीम प्रवाह में वर्तमान तो एक क्षण मात्र है जो व्यक्त होने के तुरंत बाद अतीत (भूत) बन जाता है। जिसे हम नहीं जानते, वह भविष्य अनागत काल है।  यह तो हुई काल की गति। भाषिक संरचना की दृष्टि से काल ऐसा समय सापेक्ष शब्द है जिससे अनेक यौगिक शब्द निर्मित होते हैं। अधिकांश समस्त पदों में काल उत्तर पद होता है - वर्षा काल, ग्रीष्म काल, विनाश का

दाँत और दाढ़

मेंरे दाँत में जब दर्द हुआ तो मित्र ने परामर्श दिया, दाढ़ उखड़वा लो | अब यह समझ के परे की बात है कि दर्द तो दाँत में हो और आप दाढ़ उखड़वा लें। वस्तुतः तो जो दाँत हैं वे दाढ़ नहीं हैं, और जो दाढ़ हैं वे दाँत हैं भी और नहीं भी| दाँत संस्कृत दन्त से व्युत्पन्न है जब कि दाढ़ दंष्ट्र से (संस्कृत दंष्ट्र/दंष्ट्रा > प्राकृत दड्ढ/दड्डा > हिंदी दाढ़/दाड़)। हमारे मुँह के भीतर जीभ के चारों ओर ऊपर और नीचे के जबड़े से लगे जो औजार काटने, चबाने के लिए प्रकृति ने दिए हैं, वे सब दाँत की परिभाषा में आ जाते हैं किंतु उनमें स्थान भेद से नाम भेद भी है | सामान्यत: सामने की ओर के चार दाँत कर्तक कहलाते हैं। सौंदर्य वृद्धि में सहायक होते हैं और असल दाँत भी यही हैं | मुखड़े की सुंदरता बहुत कुछ दंत या दाँत पंक्ति पर निर्भर रहती है। मुँह खोलते ही 'वरदंत की पंगति कुंद कली' सी खिल जाती है, मानो 'दामिनि दमक गई हो' । उनके बाद "कुत्ते वाले" दाँतों (canine teeth) को कुछ लोग कुकुर दाढ़ कहते हैं , पर असल में दाढ़ शब्द सबसे अंत के 2 + 2 दाँतों के लिए है , जिन्हें चौभर भी कहा जाता है| इन्हीं म

जेठ में जेठ जी की बातें

महीना हो या रिश्ता, जेठ नाम यों ही तो पड़ा नहीं होगा। जेठ जी हर बात में बड़े हैं। ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः। लोक में ससुर की तुकतान पर इन्हें भसुर भी कहा जाता है, जिसकी तुक कुछ लोग असुर में ढूँढ़़ते हैं। जेठ जी के सामने घूँघट रखा जाता था। बोलना एकदम मना। जेठ मास में सिर पर पल्लू या गमछा लपेटना भी घूँघट काढ़ने जैसा ही है। प्यास से कंठ सूख जाए तो इस जेठ में बोलती भी  बंद हो जाती है, जैसे जेठ जी के सामने बहुओं की।  किसी युग में तो बिरहनों के लिए जेठ बड़ा दाहक माना जाता था। "बज्र-अगिनि बिरहिनि हिय जारा।  सुलुगि-सुलुगि दगधै होइ छारा॥ यह दुख-दगध न जानै कंतू। जोबन जनम करै भसमंतू॥" जेठ का एक और पक्ष भी दिखाई पड़ता है। भीषण गर्मी के ये दिन तो जन्मजात बैरी प्राणियों को भी एक कर देते हैं। वे अपना हिंसक स्वभाव भूल जाते हैं, शांतिपूर्वक रहते हैं तो लगता है संसार तपोवन हो गया। "कहलाने एकत बसत अहि-मयूर, मृग-बाघ। जगतु तपोवन सौ कियौ दीरघ दाघ निदाघ॥" अब इससे अधिक क्या कहा जा सकता है कि जेठ की दुपहरी में छाया भी स्वयं छाया तलाश करती हुई निकल पड़ती है कि दो घड़ी कहीं शीतल छाया में चै

दोहद का औरंगज़ेब कनेक्शन

दोहद का अर्थ है गर्भवती की लालसा या रुचि, गर्भवती स्त्री के मन में होनेवाली अनेक प्रकार की प्रबल इच्छाएँ, (the cravings of a pregnant woman)। लोक मान्यताओं और आयुर्वेदिक ग्रंथों के अनुसार गर्भवती स्त्री को कुछ खाने की विशेष इच्छा होती है जिसे दोहद कहा जाता है। संस्कृत 'दौर्हृद' (दो हृदय, गर्भवती का और होने वाली संतान का, जो अपनी इच्छा को माँ की इच्छा के रूप में अभिव्यक्त करती है)। दौर्हृद का प्राकृत रूप दोहद है, संस्कृत में दोनों शब्द हैं। दोहद की पूर्ति करना परिवार जनों का कर्तव्य माना गया है। उत्तररामचरित में उल्लेख है कि जब कौसल्या अपनी पुत्री शांता के घर गई थी तो वहीं से राम को संदेश भिजवाती है कि गर्भिणी सीता के दोहद का ध्यान अवश्य रखें ।  "य: कश्चिद् गर्भदोहदो भवत्यस्या: सोऽवश्यम् अचिरान् मानयितव्यः ।" (सीता को जो भी दोहद हो उसे अवश्य और तुरंत पूरा करें!) दोहद को गर्भस्थ शिशु का संभावित स्वभाव और उसकी प्रकृति जानने का साधन माना जाता है। यही नहीं, दोहद को गर्भ में पल रहे बालक की आकांक्षा समझकर उसकी पूर्ति को वरीयता दी जाती है। परिवार के सदस्य विशेषकर सास-ससुर, नन

हींग चली खोतान से

हींग हींग एक जंगली वनस्पति से प्राप्त लिसलिसा दूध या गोंद है जिसकी गंध बहुत तीव्र होती है। कल्पद्रुम के अनुसार हींग खुरासान, मुल्तान में पैदा होने वाले एक वृक्ष का रस (गोंद) है। बल्हीक के देश का होने के कारण इसे बाल्हीक भी कहा गया है। मध्य ईरानी वर्ग की खोतानी भाषा में यह अङ्गूष्ड था जो तिब्बती के शिङ्-कुं से बना। क्योंकि यह क्षेत्र बौद्ध धर्म का केंद्र रहा और बौद्ध प्रधान होने के कारण इसका भारत से गहरा संबंध था, इसलिए लगता है बौद्धों के साथ भारत आकर यह पालि में हिङ्गु बन गया। पालि, प्राकृत और संस्कृत में इसे हिङ्गु ही कहा गया है। अब भारत की प्रायः सभी भाषाओं में इसे हींग नाम से जाना जाता है।  इसका अंग्रेजी पर्याय asafoetida भी लैटिन के दो शब्दों से बना है: asa जो फ़ारसी aza (गोंद) से बना, और fetida अर्थात् तीखी गंध। अर्थ होगा तीखी गंध वाली गोंद। बंधानी हींग हींग अब भारत की प्रायः प्रत्येक रसोई में मिलती है और इसे विशेष मसालों में गिना जाता है। जिस हींग का हम उपयोग करते हैं उसे "बंधानी" हींग कहते हैं। यह "बंधानी" हींग क्या है? हींग की तीव्र गंध को कुछ हल्का करने के

दल के दल

#दल (बहु-अर्थी) शब्द ••• २.√दल् > दलन (दलना, दलवाना, मसलना, कुचलना) > दाल, दलहन, दलनी, दलिया, दलित २.(पंखड़ी, पत्ता) कमलदल, तुलसीदल, पुष्प दल  ३.(सेना, बल, फ़ौज) शत्रुदल, महिषादल, दलपति, दलबल ४. (झुंड, समूह) "नारी नर कई कोस पैदल आ रहे चले लो, दल के दल, गंगा दर्शन को पुण्योज्वल!" ~सुमित्रानंदन पंत ५. (टीम, गुट, गिरोह, समर्थक) सेवादल, रक्षा दल, राहत दल, रामदल, बजरंगदल ६. (पार्टी) राजनीतिक दल, जनता दल, प्रतिपक्षी दल, दल-बदल ७. (मोरपंख) "दल कहिए नृप को कटक, दल पत्रन को नाम। दल बरही¹ के चंद सिर धरे स्याम अभिराम।"      ------ ----- --------- ¹मोर 

खटराग

खटराग ••• यों तो खटराग का अर्थ है झंझट, झगड़ा, बखेड़ा, बेमेल वस्तुओं का जुड़ाव आदि, किंतु आमतौर पर खटराग (षट्‌राग) शब्द का प्रयोग एक मुहावरे की तरह किया जाता है। खटराग करना, खटराग फैलाना, खटराग मचाना, खटरागी होना आदि ऐसे ही मुहावरे हैं।  खटराग मूलत: भारतीय शास्त्रीय संगीतशास्त्र की एक अवधारणा है , जिसमें छह प्रमुख रागों की गणना हो जाती है। वे हैं दीपक, भैरव, मालकोश, मेघमल्हार, श्री और हिंडोल। ब्रजभाषा के द्विवेदी युगीन कवि राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' ने खटराग को लेकर एक रोचक सवैया लिखा था जिसमें उक्त सभी छह रागों का एकत्र प्रभाव दिखाया गया है। "उर प्रेम की जोति जगाय रही¹, गति कों बिनु यास घुमाय रही² । रस की बरसा बरसाय रही³, हिय पाहन कों पिघलाय रही⁴। हरियाले बनाय कें सूखे हिये⁵ , उतसाह की पेंग झुलाय रही⁶। इक राग अलाप के भाव भरी, खटराग प्रभाव दिखाय रही।" भाव भरी नायिका ने एक 'खटरागी' रागिनी छेड दी है । उस रागिनी के प्रभाव से हृदय में प्रेम का दीप जल उठा¹ , बिना प्रयास के ही कोल्हू चलने लगे², पत्थर जैसे कठोर हृदय भी पिघल गए³, रस की वर्षा होने लगी⁴ , सूखे हृदय हरे हो ग

पत्र, पत्ता, पत्तल और पतला

पत्र का अर्थ है पत्ता| पत्ता वाले पत्र से ही चिट्ठी वाला पत्र भी बनता है| पौराणिक कहानियाँ हमें बताती हैं कि शकुंतला ने दुष्यंत को कमल पत्र (पत्ते) पर पत्र लिखा था | कहा जाता है कि भोज ने भी अपने चाचा मुंज को किसी पत्ते पर अपने रक्त से पत्र लिखा था| फिर ये पत्र भोज पत्र पर, पतले कपड़े पर , ताँबे के पत्तर (ताम्रपत्र) पर लिखे जाने लगे| जन्मपत्री या पंडित जी का पातड़ा भी पत्र से ही बने हैं| पत्र से ही पत्ता > पात > और पत्तल शब्द भी बने हैं | पत्ता पतला होता है और जो व्यक्ति पत्ते के समान हल्का-दुबला होता है वह भी पतला कहलाएगा | उधर पत्तों से बनी थाली पत्तल है| संस्कृत पत्राल > प्राकृत पत्तला > हिन्दी पत्तल , पतला | यह शब्द प्रायः सभी आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में किसी न किसी रूप में विद्यमान है|  हिंदी में दुबला विशेषण संस्कृत के दुर्बल से है| दोनों से शब्दयुग्म बनता है दुबला-पतला| इसी वर्ग का एक और शब्द है निर्बल, किंतु दुर्बल से दुबला हो सकता है निर्बल से निबला नहीं| दुबला मोटा का विलोम है, अर्थ है: कमजोर, क्षीणकाय, अशक्त, जो मोटा नहीं है| इसका प्रयोग केवल सजीव के लिए होता

कुलथी और रस भात

कुलथी और रसभात कुलथी को अंग्रेजी में horse gram कहा जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम macrotyloma uniflorum है। संस्कृत में इसे कुलत्थी या कुलत्थिका कहा गया है। ओड़िया में कुलोथ/कुलुथ; तमिल में यह कोल्लु, कन्नड़ में हुरळि और तेलुगु  में उलवलु आलम में हुदिरा है। कुलथी को हिमाचल प्रदेश में गैथ, गहत; कुमाऊँ में गहत, गौत; नेपाल में गहत और गढ़वाल में गौथ कहा जाता है। पूर्व और पूर्वोत्तर में कुर्थी भी है। मराठी में कुळीथ, हुलगा; कोंकणी में कुळितु। गहत के प्रायः सभी नाम कुलत्थ से व्युत्पन्न हैं और कुलत्थ की व्युत्पत्ति यों बताई गई है - "कुलं भूमिलग्नं सन् तिष्ठति।" जो कुल अर्थात भूमि से सटा हुआ, वह कुलत्थ। इसकी खेती के लिए अधिक देखभाल नहीं करनी पड़ती और बंजर सी लगने वाली भूमि में भी पैदा हो जाता है। उत्तर भारत के मैदानी भागों में कुलथी को कम लोग जानते हैं क्योंकि यहाँ इसे उगाया नहीं जाता। शेष भारत में यह बहुत प्रचलित है और इसके अनेक स्वादिष्ट व्यंजन प्रसिद्ध हैं। यह और बात है कि इसे मोटा अनाज माना जाता है, इसलिए संभ्रांत लोग इसे देखकर नाक भौंह सिकोड़ते हैं। भात के साथ इसका रस (रस-भात) कुम

मथानी मंथन

मथानी मंथन ••• दही मथने की मथनी/मथानी के लिए संस्कृत में √मन्थ् धातु से मन्था, मन्थान, मंथानक, मंथदंड शब्द हैं। शिव का एक नाम मन्थान: भी है।  लोक में इसके अनेक नाम हैं। रई, रवी, रहई; बिलोनी, मथानी, कन्नी; मराठी में रवी, घुसळणी; मारवाड़ी में झेरणी, कोंकणी में खवलो, गुजराती में वलोणु, नेपाली में मदानी और पंजाबी में मधाणी। हरयाणवी में दही मथने के पात्र को बिलोनी और मथने वाले डंडे को मथानी या रवी कहते हैं। ब्रज क्षेत्र में पात्र का नाम मथनी है और बिलोने वाले दंड को मथानी कहा जाता है। इसका एक छोटा संस्करण है जो लस्सी बनाने और दाल घोटने के काम आता है। उसके लिए प्रायः सारे हिंदी क्षेत्र में दलघोटनी शब्द है। पूर्वांचल में खैलर भी कहा जाता है। मथानी के लिए कुमाउँनी में "फिर्को" नेपाली में "फिर्के" शब्द हैं। व्युत्पत्ति है: फिरना > फिरकना > फिरकी > फिर्को (=मथानी, कुमाउँनी में) > फिर्के ( नेपाली में दलघोटनी को कहा जाता है)। कुमाउँनी में कहीं इसे रौली, रौल भी कहा जाता है। मथने के लिए जिस पात्र में दही रखा जाता है उसे कुमाउँनी में बिंड या नलिया/नइया कहा जाता है। गढ़व

आप "ढ" तो नहीं हैं ना

आप ढ तो नहीं हैं ना! ••• पिछले कुछ दिनों से मैंने देश की उर्वरा माटी में जन्मे, प्रायः अज्ञात व्युत्पत्तिक लोक शब्दों का संग्रह प्रारंभ किया जो मूर्ख/मंदबुद्धि के पर्यायवाची शब्द हैं। आश्चर्य हुआ कि हिंदी क्षेत्र की और उससे लगी हुई कुछ भाषाओं की लोक शब्दावली में 100 से अधिक ऐसे शब्द हैं! इस संग्रह में से अभी केवल एक शब्द की चर्चा करूँगा जो एकाक्षरी है और मुख्यतः मराठी में और गौणत: गुजराती, कोंकणी, कन्नडा तथा राजस्थान की एक-दो बोलियों में उपस्थित है। शब्द है "ढ"। ढ का अर्थ है मूर्ख,‌बौड़म, मूर्खतापूर्ण हठ करने वाला। ("ढ" नाम से गुजराती में एक फिल्म भी है जो विशेषकर स्कूली बच्चों को लेकर बनी है।) प्रश्न यह है कि यह एकाक्षरी शब्द इस अर्थ में कैसे रूढ़ हो गया! बड़ी रोचक कहानी है। देवनागरी वर्णमाला में यह अकेला वर्ण है जो 5000 ईसा पूर्व ब्राह्मी लिपि से लेकर आज की देवनागरी लिपि तक उसी रूप में विद्यमान है, जबकि अन्य सभी वर्ण ब्राह्मी से देवनागरी तक पहुँचते-पहुँचते अनेक बार अपना रूप-आकार बदल चुके हैं।  तो निष्कर्ष यह कि जैसे "ढ" के स्वरूप में पिछले 7 हजार वर्ष क

मूर्ख चर्चा

अपने देश की माटी अन्न और वनस्पतियों के लिए ही नहीं भाषा के लिए भी उर्वर है; व्युत्पादक और पोषक। गाँव- देहात में जन्मे हजारों देशज शब्दों की व्यंजना बहुत गहरी है। एक उदाहरण लें। मूर्ख या मंदबुद्धि के लिए लोक में अनेक शब्द लोक व्यवहार से जन्मे और प्रचलित हुए हैं जिनमें अधिकांश अज्ञात व्युत्पत्तिक हैं । नागर सभ्यता के आवरण में इनमें बहुत से शब्द संभवतः धीरे-धीरे दो-चार दशकों में या उससे पूर्व ही विलुप्त हो जाएँगे। ऐसे कुछ शब्द आगे दिए जा रहे हैं। ध्यान देने की बात है कि ये वृहत्तर हिंदी क्षेत्र से हैं, और इसे मूर्ख-वर्ग की पूरी शब्द सूची नहीं माना जा सकता। गाउदी, मोघू (<मुग्ध), सूधा, सोंढर, अदानियाँ (<अज्ञानी?), ठोठ, ठूँठ, ठस, अड़ियल, आड़ू, गैला, गैलचप्पा,बावळी बूच, बावळी पिरड़, बावळी तरेड, बावळी झालर,पूण पागल, बूच, ठस, डगल, ढीम, ढोल, बावळा, बावरा, बइलट, बौलेट, बोकवा, बुड़बक, बकलोल, बौड़म, अड़कचूट, भौंदू, टट्टू, टाट, लडचट्टा, बैधा, पगलेट, पगलटेट , बकटेट, बकलेल, गेगल, बजरबोंग, सुधबोंग, घोंघा, घोंघाबसन्त बग्गड़, बौड़म, बौझक, बौचट, लौधर, बौरहा, भुच्च, भकुआ, बउराह, बाउर, लल्लू, पप्पू, झंड

ग्रेशम का नियम और टट्टी

अर्थशास्त्र में थॉमस ग्रेशम का एक बहुत पुराना नियम है "बुरा सिक्का अच्छे सिक्के को प्रचलन से निकाल बाहर कर देता है पर अच्छा सिक्का कभी भी बुरे को प्रचलन से निकाल बाहर नहीं कर पाता।" यह नियम है तो अर्थशास्त्र का किंतु यह भाषा शास्त्र में भी बिल्कुल सटीक बैठता है। इसे एलन- बरीज का 'अर्थ परिवर्तन का नियम' कहा जाता है: "किसी शब्द का बुरा अर्थ प्रचलन में हो तो उस शब्द के अच्छे अर्थ को भी चलन से बाहर कर देता है।" इसके उदाहरण सभी भाषाओं में मिल जाएँगे। अंग्रेजी में prick, ass, cock, booty जैसे शब्द उदाहरण हैं जिनका कथित भद्दा अर्थ आज पारंपरिक अर्थ पर हावी हो गया है और इन्हें अशिष्ट भाषा की श्रेणी में डाल दिया गया है।  बचपन में एक कहावत सुनी थी, 'अरहर की टट्टी में गुजराती ताला।' एक तथाकथित ग्रामीण-से लगने वाले शब्द के कारण सुनने पढ़ने में कुछ अटपटा-सा लगता था। यद्यपि कहावत का अर्थ जान लेने पर। सामान्य और स्वाभाविक शब्द हो गया किंतु जो मूल अर्थ से परिचित नहीं है, विशेषकर आज की पीढ़ी में, उन्हें यह हास्यास्पद लगता है। बाँस की फट्टियों, सरकंडों, फूस, खस आदि

रेफ, आशीर्वाद और बिगऱ्यो

हिंदी में रेफ को लेकर कुछ लोगों में भ्रम है, परिणामस्वरूप वर्तनी में बहुधा अशुद्धियाँ दिखाई पड़ती हैं। जैसे: आर्शीवाद (आशीर्वाद) , र्गवोक्ति (गर्वोक्ति ) कुछ वर्णों के साथ संयुक्त होते हुए रेफ के कुछ मुख्य रूप हैं: 1. दो स्वरों के बीच शिरोरेखा पर लगने वाला (र् ), जो पहले अक्षर के बाद बोला जाता है किंतु अगले अक्षर के सिरपर मुकुट जैसा विराजमान होता है ; जैसे कर्म (=कर्/म), कार्य (=कार्/य), स्पोर्ट (=स्पोर्/ट)। शिरोरेखा रेफ के विषय में कुछ अन्य सावधानियाँ हैं ~यह स्वर वर्ण पर नहीं लगता।  ~किसी अर्ध व्यंजन या हलंत व्यंजन के माथे पर भी नहीं लगाया जाता। ~मात्रा वाले वर्ण पर पहले मात्रा और उसके बाद रेफ लगेगा। ~यदि व्यंजन गुच्छ हो तो यह अंतिम व्यंजन के माथे पर जा विराजेगा; जैसे: ईर्ष्या, वर्त्स्य, निर्द्वंद्व। 2. दूसरा प्रकार शिरोरेखा रेफ की तरह स्वर रहित नहीं है। स्वर सहित पूरा 'र' जब किसी हलंत व्यंजन से संयुक्त होता है तो उसकी आकृति दो प्रकार की हो सकती है : - क्, प् जैसे पाई वाले वर्णों से और 'द्', 'ह्' से जुड़ने पर रकार अपनी पूरी आकृति बदल लेता है और एक टेढ़े डैश

तरबूज़ का हिंदू कनेक्शन

तरबूज़ विश्व में सबसे अधिक उगाया जाने वाला फल है और इसकी 1000 से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती हैं।भारत में तरबूज़ ग्रीष्म ऋतु का फल है। ये बाहर से हरे रंग के होते हैं, परन्तु अंदर से लाल। पानी से भरपूर और मीठे होते हैं।  तरबूज़ के लिए संस्कृत में एक शब्द कालिन्द है। इसकी व्युत्पत्ति दो प्रकार से की गई है। कलिंद पर्वत या कालिंदी (यमुना) नदी से प्राप्त। कलिंद पर्वत से तो इसका संबंध नहीं बैठ पाता क्योंकि इतने शीत में यह उगता नहीं। हाँ, यमुना-गंगा के तटीय क्षेत्रों में यह बहुत उगाया जाता है। कालिन्द को वाचस्पत्यम् में इस प्रकार समझाया गया है - कालिं जलराशिं ददाति अर्थात् जो फल बहुत पानी देता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, बुंदेलखंड, मध्यप्रदेश का कलिंदा, कलिंदर नाम इसी कालिंद से माना जा सकता है। संस्कृत में एक अन्य नाम कालिङ्ग भी प्राप्त होता है जिसका अर्थ है - कलिंग का, कलिंग क्षेत्र में उत्पन्न होने वाला। मराठी, कोंकणी आदि में कलिंगड़ नाम इसी कालिङ्ग से विकसित लगता है। पंजाबी में तरबूज़ को हदवाणा और हरयाणवी में हदवाना भी कहा जाता है। बहुत संभव है यह फ़ारसी के हेंदवाने ( هندوانه "h

राम और आराम

शब्द प्रायः उलझन में भी डाल देते हैं; जैसे जब आप आराम फ़रमा रहे हों या आराम कर रहे हों तो यह आराम शब्द फ़ारसी से है या संस्कृत से? एक श्लोक याद आता है राम के बारे में कि राम कल्पवृक्षों के आराम हैं , सारी आपत्तियों के विराम हैं, तीनों लोकों में अभिराम हैं आदि आदि। अब यदि आराम राम से जुड़ा हुआ है तो यह भला फ़ारसी से कैसे हो सकता है! संस्कृत में एक धातु है √रम्, जिसका अर्थ है रमण करना, अच्छा समय बिताना, सुख उपभोग करना, इसी रम् से भगवान राम का नाम बना है और रम्य, रमणीय, रमण, आराम, विराम, अभिराम, अविराम जैसे शब्द बने हैं। संस्कृत के आराम का अर्थ है उपवन, उद्यान, बगीचा। अमरकोश आराम को कृत्रिम वन मानता है।  जब हम आराम कर रहे होते हैं तो इस आराम का संबंध संस्कृत रम् धातु के आराम से नहीं है, चाहे हम रमण ही कर रहे हों । यह आराम फ़ारसी से आया है। यह बात दूसरी है कि दोनों आराम एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। भाषाविदों का मानना है कि आराम का मूल प्राचीन भारत ईरानी या भारोपीय भाषा परिवार में है। शब्द यात्रा के साथ अर्थ यात्रा बदल गई। उसमें कुछ नया अर्थ आ जुड़ा जिसे हम अर्थ विस्तार कहते हैं। फ़ारसी में व

जीव, जंतु और प्राणी

जीव - जिसमें जीवनी नाम की प्राकृतिक चेतना शक्ति है। प्राणियों का चेतन तत्व जीव है। इस प्रकार जीव का अर्थ बहुत व्यापक है। मनुष्य, पशु- पक्षी, कीड़े - मकोड़े, सूक्ष्म जीवाणु आदि सभी प्रकार के जीवधारी जीव हैं। जंतु - √जन् धातु (जन्म लेना) से बना है, (जायते उद्भवतीति )। वह जीव जिसने माता के गर्भ से किसी भी रूप में इस संसार में जन्म ग्रहण किया हो। अर्थ की दृष्टि से यह शब्द जीव या प्राणी के ही समकक्ष है, फिर भी प्रयोग में यह अपेक्षाकृत बड़े या मँझले आकार वाले जीव धारियों के लिए है। जहाँ सभी प्रकार के प्राणियों का संकेत करना हो वहाँ पर प्रायः द्विरुक्त शब्द जीव-जंतु का प्रयोग किया जाता है। सूक्ष्मजीव होते हैं, सूक्ष्म प्राणी नहीं। प्राणी वह जिसमें प्राण शक्ति है, साँस लेने की क्षमता है। जिस में पाँचों प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान) निवास करते हैं। खाता-पीता, चलता-फिरता, वंशवृद्धि में सक्षम प्राणी। वैज्ञानिक परिभाषा के अनुसार एक बहुकोशिकीय जीव। व्यवहार में प्राणी का प्रयोग मनुष्य के संदर्भ में अधिक मिलता है। इसका एक अर्थ जन भी है। जैसे  ~परिवार में पाँच प्राणी हैं। ( पाँच जन) ~हम

घर्म, गर्मी और ग्रीष्म

गर्म फ़ारसी से आया है, इसे संस्कृत "घर्म" (घाम) से भी जोड़ा जाता है। उच्चारण की दृष्टि से गर्मी, गरमी एक ही हैं, वर्तनी अलग-अलग है। गरमी में र का अ-लोप (schwa deletion) हो जाने से गर्मी बचेगा। गर्म का उच्चारण गरम नहीं है । पदांत अ-लोप से गर्म को 'गर्म्' बोला जाएगा और गरम को 'गरम्'; अर्थात् दोनों का उच्चारण भी भिन्न है। इसलिए गर्मी /गरमी का मूल (तत्सम) विशेषण गर्म मानना अधिक तर्कसंगत लगता है। जो बिना अ-लोप के 'गरमी' उच्चारण कर सकते हैं, वे गरम मान सकते हैं! बदरीनाथ कपूर मानते हैं कि गर्म और गर्मी फ़ारसी तत्सम शब्द हैं और गरम और गरमी उनके तद्भव रूप हैं। परन्तु गरमागरम, गरमाना, गरमाहट जैसे शब्द तद्भव रूपों से ही बने हैं। गर्मी का मौसम ग्रीष्म ऋतु है। ग्रीष्म संस्कृत की √ग्रस् धातु (निगलना, नष्ट करना) से बना है । हिंदी में ग्रीष्म की अपेक्षा गरमी और गर्म शब्द का प्रयोग व्यापक है। ग्रीष्म का स्वभाव गर्मी या ताप है, किंतु ग्रीष्म का अर्थ सर्वत्र गरम नहीं है। धूप, आग, पानी, राख, चिंगारी - यहाँ तक कि स्वभाव में भी गर्मी हो सकती है ग्रीष्म नहीं।  घाम  घाम संस्

हाल, हालात और हलचल

हाल, हाल-चाल और हलचल हाल (पु) और हालत (स्त्री) अरबी से आए हुए शब्द हैं। दोनों का अर्थ है स्थिति, दशा, संवाद, अवस्था, परिस्थिति, वर्तमान, समाचार आदि।कभी-कभी बुरी दशा हो जाने पर कहा जाता है हाल बेहाल हो गए। दोनों का बहुवचन रूप उर्दू में हालात है। चूँकि आगत शब्दों पर व्याकरणिक नियम हिंदी के लागू होंगे, इसलिए हिंदी में तिर्यक बहुवचन होगा हालों, हालतों। अनेक बार "हालातों" प्रयोग देखा जाता है जो दोहरा बहुवचन होने से ठीक नहीं है।  अरबी हाल में हिंदी चाल मिला दी जाती है तो शब्द बनता है हाल-चाल, अर्थात् वर्तमान स्थिति या दशा, कुशल-क्षेम, खैरियत। हाल-चाल और हलचल में देखने में चाहे केवल आ की मात्रा का अंतर हो किंतु दोनों भिन्न शब्द हैं। हलचल हिंदी की दो क्रियाओं - हिलना और चलना से बना है। लोगों के बीच किन्हीं तात्कालिक कारणों से फैली हुई अधीरता, घबराहट, बेचैनी वाली गतिविधि हलचल के अंतर्गत आती है। लोग अपनी सामान्य चाल से आगे कुछ अधिक तत्परता पूर्वक आने-जाने लगते हैं, हड़बड़ी में होते हैं या व्यस्त दिखाई पड़ते हैं तो हलचल होती है। बारात के आने से, प्रतीक्षित विशिष्ट मेहमान के पधारने पर,

और की और-और अर्थ-छबियाँ

और की और-और अर्थ छबियाँ हिंदी में 'और' एक बहु प्रचलित शब्द है और बहु अर्थी भी। सामान्यतः इसे समुच्चयबोधक या योजक माना जाता है जो दो पदों या उपवाक्यों को जोड़ता है। जैसे ~घोड़े और गधे। (दो पदों का योजक) ~वह आया और चला भी गया। (दो उपवाक्यों का योजक) औरै भांति कुंजन में गुंजरत भौंर-भीर,  औरै डौर झौंरन में बौरन के ह्वै गये।  ट कहै पद्माकर, सु औरै भाँति गलियान,  छलिया छबीले छैल औरै छवि छ्वै गयै॥  औरै भाँति बिहंग-समाज में आवाज़ होति,  ऐसे ऋतुराज के न आज दिन द्वै गये।  औरै रस औरै रीति औरै राग औरै रंग,  औरै तन औरै मन औरै वन ह्वै गयै॥  अर्थ के अनुसार और को समुच्चयबोधक ही नहीं, अन्य व्याकरणिक कोटियों तथा अर्थ छबियों में भी देखा जा सकता है ; जैसे : ~अभी और लोग आएँगे। (विशेषण) ~कुछ और दीजिए। (क्रियाविशेषण) ~काम भी करो और ताने भी सुनो। (परिणाम) ~मैं और चुपचाप सुनता रहूँ! (विपरीतता या विलक्षणता) ~एक मैं, और एक तुम! (विपरीतता, विरोध) ~और क्या तुम उसे कंधे पर बिठाते! (जो हुआ उससे अधिक की चाहत) ~और मुँह लगाओ मूर्खों को। (दुष्परिणाम) ~अगर कुछ और परिश्रम करते तो सफल हो जाते। (विशेषण) ~और कोई इस झग

सेराना सेलाण

लोक में चाय ठंडी नहीं होती, सिराती या सेराती है। सेराना के लिए कहीं-कहीं सियराना/सियरा जाना भी है। सेराना शब्द शीतल से व्युत्पन्न है इसलिए ठंडा होने का भाव इसमें है। किसी अत्यधिक गर्म वस्तु को ठंडा करके अर्थात "सेरा" कर सेवन करते हैं। गुनगुना या कुनकुना आधा या थोड़ा गर्म हो सकता है जबकि सेराई हुई वस्तु पूर्णतः ठंडी भी हो सकती है। कहीं जूड़ (जूड़ी, कँपकँपी) से जुड़ाना/जुड़वाना क्रियाएँ हैं। जुड़ाइ गऽ (बा)। ठण्डा हो गया है।  कहीं 'सिराना' खाली होना, काम को निपटा लेना भी है। अइसन सिराइके बइठा हयऽ जइसे कवनो कामइ नाइँ बा।  पूजा सामग्री को विसर्जित करने के लिए भी सिराना क्रिया है। पूजा के बाद सामग्री एकत्र कर नदी, बावड़ी, पीपल तले या तुलसी के वृंदावन में सिराया जाता है। भाव है जल में डुबाकर शीतल करना, या शीतल और शांत स्थान पर पधराना, जैसे मौर सिराना। कुमाउँनी में सेलाण/सेलै जाण रूप हैं। सेराना, सेलूणो, सेलाण, सेलै जाण आदि की व्युत्पत्ति टर्नर और दास के अनुसार शीतल / शैतल्य से मानी गई है। यह सही भी लगता है। "नैन सेराने, भूखि गइ, देखे दरस तुम्हार" —जायसी

मुट्ठी , पौश और अंजुरी

हरियाणवी और कोंकणी में अँजुरी से छोटी माप पस्सा/पस्सो हैं। इसे प्रसृत, प्रसृति से बतलाया गया है। संस्कृत में प्रसृत - हाथ की फैली हुई खाली हथेली, मुट्ठीभर, हथेली भर का मान, दो पलों के मान को कहा जाता है (कहीं "आरोग्यदीपिका" में 2 प्रसति = 1 अँजुली, पस्सा, क्रुडव कहा है।) रोचक लगा, इसलिए भी कि कुमाउँनी में इससे मिलता-जुलता एक शब्द है "पौश"। पौश ओक के समान अनाज आदि के लिए अंगुलियों और हथेली की सहायता से बना एक साँचा है। मुड़ी अंगुलियों वाली हथेली  में अन्न भरकर यदि मुट्ठी बंद हो जाए तो मुट्ठी भर;  खुली मुट्ठी मैं भर कर दिया जाए तो पौश भर। इसकी समाई मुट्ठी से अधिक हो जाती है। कुमाउँनी का पौश मुट्ठी से बड़ी माप है । क्रम इस तरह है - चुट्की , मुट्ठी, पौश और अँचोली। इन सभी में व्यक्ति की मुट्ठी, हथेली, अंगुलियों के आकार के अनुसार समाई में थोड़ा-बहुत अंतर हो सकता है।

देवर और ननद

देवर बोले तो..🌷 वस्तुतः देवर संस्कृत के 'देवृ' शब्द से बना है। उत्तर भारत की प्राय: सभी भाषाओं में यह थोड़ा बहुत रूप बदलकर प्राप्त होता है। यह जानना रोचक होगा कि देवर भारोपीय भाषा का बहुत पुराना शब्द है।  इसके सजातीय शब्द (कॉग्नेट्स) लिथुआनियाई , रूसी,  हिब्रू आदि भाषाओं में इसी अर्थ में मिलते हैं। प्रवचन शैली में देवर की व्युत्पत्ति प्रायः इस प्रकार की जाती है,  "द्वितीयः वरः"। कुछ लोग इसका हल्का अर्थ क ७रते हैं- वर का अर्थ केवल पति (हस्बैंड, स्वामी, रखवाला) मानकर। वर ३*का वास्तविक अर्थ है श्रेष्ठ। पति भी केवल इसीलिए वर है कि वह पत्नी के लिए अन्य से श्रेष्ठ है। इसलिए यह प्रथम वर है और देवर उसके बाद का, दूसरे नंबर का वर अर्थात् श्रेष्ठ है,‌ पति नहीं। एक और व्युत्पत्ति √दिव् (चमकना) से देवर शब्द को 0vvqb,66,j जोड़ती है "दीव्यते अनेन इति", अर्थात् जिसे देखकर चेहरे पर चमक आ जाए, जिसके साथ मन खिल उठे, वह देवर। ससुराल में नई आई बहू से उम्र में छोटा होने के कारण बहू इसके स्नेह से खिल उठती है। इसलिए वह देवर है। ननद अब बारी ननद की। संस्कृत में एक धातु है √नन