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एकाबखत और हबीक

कुमाऊँ में श्राद्ध कर्म से संबंधित दो शब्द लोक प्रचलित हैं- 'एकाबखत' और 'हबीख'। परंपरानुसार श्राद्ध से पहले दिन श्राद्धकर्ता और उसकी पत्नी एक बार ही भोजन करते हैं। उस दिन के लिए लोकप्रसिद्ध नाम है- 'एकाबखत'। व्युत्पत्ति इस प्रकार होगी- एक + अभुक्त > एकाभुक्त > एकाबखत ( = एक समय भोजन न करना)। अथवा एक भुक्त (एक बार भोजन करना)। एकाबखत का 'बखत' फ़ारसी से आया हुआ अरबी मूल का 'वक़्त' भी हो सकता है- एक वक़्त > एक बखत> एकाबखत ( = एकबार)। इस उत्पत्ति पर भी शंका नहीं की जानी चाहिए क्योंकि कुमाउँनी में सैकड़ों शब्द फ़ारसी मूल के हैं और आम व्यवहार में हैं। लोक व्यवहार में भी एकाबखत का प्रयोग फ़ारसी मूल को ही संकेतित करता है। कुमाउँनी में कहा जाएगा- "एकाबखताक् दिन खाण् एक्कै बखत खानी, बखत बखत नि खान्।" (एकाबखत के दिन खाना एक ही बखत खाते हैं, बखत बखत नहीं खाते।)! 'हबीक' शब्द वैदिक काल का है और उस भोजन से संबंधित है जो एकाबखत के दिन किया जाता है। हबीक बना है 'हविष्य' से। 'हवि' अर्थात हवनीयद्रव्य, घृत, घी-भात, कोई पव

कुमाउँनी के लिए कुछ लिपि संकेत

जब कभी मेरे कुछ मित्र कुमाउँनी के लिए मानक लिपि बनाने की बात करते हैं तो मैं असहमति व्यक्त करता हूँ और मेरे ऐसा करने में उन्हें बुरा लगता है। मैं प्रायः यह कहता रहा हूँ कि यदि उत्तराखंडी भाषाओं को विलुप्त होने से बचाना चाहते हैं तो कम से कम इन दो कामों से शुरूआत कीजिए। यह हुआ तो भाषाएँ जिएँगी, वरना तो भविष्य डरावना है ही। 1. अपने घरों में, परस्पर व्यवहार में अपनी भाषा का प्रयोग कीजिए । 2. प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय में, पब्लिक हो या सरकारी, शिक्षा का माध्यम अपनी भाषा को बनवाइए और उसे किसी न किसी रूप में, किसी न किसी प्रकार रोज़गार से जोड़िए। मानकीकरण की बात भी तभी उठती है जब भाषा का मौखिक और लिखित रूप में पर्याप्त प्रयोग हो रहा हो। बच्चा जिएगा, बड़ा होगा तो डिज़ाइनर सूट पहन लेगा। इसी प्रकार कुमाऊँनी भाषा को अभी लोगों को बोलने-लिखने दीजिए। वह जीवित रहेगी, उसका प्रवाह होगा तो कूल - किनारे स्वतः तय होते जाएँगे । ऊपर उल्लिखित सुझावों में पहला तो शायद इसलिए गले न उतरा हो कि जिस प्रकार हिंदी भाषी के लिए अंग्रेजी में बोलना संभ्रांतता का लक्षण है, उसी प्रकार कुमाउँनी भाषी के लिए हिंदी में बोलन