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अगस्त, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बात मुहल्ले की

मोहल्ला/मुहल्ला/महल्ला के बारे में मेरे मित्रों की राय अलग-अलग है। शर्मा जी कहते है जहाँ मोहग्रस्त लोग हल्ला मचाएँ वह मोहल्ला! जावेद मियां बोले जहाँ मारे हल्ले के दो घड़ी शांति मिलना मुहाल हो वह मुहल्ला। इनकी पीड़ा मैं समझ सकता हूँ, आख़िर हूँ तो उसी मुहल्ले का। लेकिन शब्द है तो उसका कोई स्रोत, कोई अर्थ होना चाहिए। इतना सतही अर्थ तो नहीँ हो सकता इतने गुलज़ार मोहल्ले का! मुझे याद आया प्रो.चतुर्वेदी बड़ी शान से बताते हैं कि वे मथुरा के बड़े महाल के चौबे हैं! मुझे लगा महाल और महल में आपस में भाईचारा तो नहीं। महल अर्थात भव्यता और शानोशौकत वाला विशाल भवन। पर इस महल शब्द के ईंट-गारे का स्रोत क्या है? संस्कृत में एक शब्द है महालय जो दो शब्दों से बना है महा आलय (विशाल भवन)। तो यह व्युत्पत्ति आसान है महा+आलय > महालय > महाल > महल और महलों वाली बस्ती महल्ला। लेकिन संस्कृत कोष खोला तो लगा फिर बड़े इमामबाड़े की भूलभुलैया में फँस गए। आप्टे ने "महल्ल" को संस्कृत महत् +ल से सिद्ध तो किया है लेकिन इसे अरबी मूल का बताया। "महल्ल:" का अर्थ दिया है महल, रनिवास और "महल्लक:"

जी की बात है जी

जब मुग़ल वंश ही उजड़ने के कगार पर हो तब बहादुर शाह ज़फ़र का "जी" उजड़े दयार में क्या लगता। ईमानदारी से क़बूल कर दिया, लेकिन कुछ का तो लहलहाते चमन या भरी पूरी बस्ती में भी नहीं लगता। कुछ हैं कि हर गली मोहल्ले में अपना दिल ही बाँटते फिरते हैं। कहीं टूटा तो कहीं और जोड़ लेते हैं। आज यही "जी" मेरे जी का भी जंजाल बना हुआ है।   सुना तो यह था कि यह "जी" बड़ों और सम्माननीयों के साथ लगाया जाता है पर उस दिन भ्रमित हो गए जब देखा कोई माँ अपने बेटे को बुलाती हुई कह रही थी, "बेटा जी, मास्टर आ गया है। खेलना छोड़ो, घर आओ।" बेटा जी अच्छा कहकर लौट तो आया पर उसका जी खेल में ही रहा और मास्टर जी कहते रहे, "जी लगाकर पढ़ा करो।" बहरहाल परंपरा है कि कुछ बड़े नामों, रिश्तों या पदवियों के साथ जी लगाना शिष्टता की माँग है। जैसे राम जी, दादी जी, मंत्री जी ... इसी क्रम में गांधी, नेहरू के साथ लगाने में चूक भी जाएँ पर किसी नेता के साथ लगाना आपकी विवशता है। लगाएँगे कैसे नहीं जी! ज़रूरी नहीं कि हर बड़े के साथ जी लगाया जाए, जी लगाने लायक होगा तभी तो। एकबार एक बड़े नेता

हिंदी की बिंदी

हिंदी की बिंदी और गांधी ******************************  हिंदी में बिंदी औऱ चाँद बिंदी की महिमा न्यारी रही है! दोनों ही किसी अक्षर के माथे पर बिराजकर उसकी शोभा बढ़ाती हैं लेकिन एक दूसरे के क्षेत्र में घुसपैठ भी बहुत करती हैं। मीडिया में तो चाँदबिंदी का प्रयोग प्रायः नहीं होता। समझ सकते हैं कि पत्रकार समदर्शिता का कर्तव्य निभा रहे हैं। वे दोनों के लिए एक बिंदी अपनाकर हमारी समझ पर भी पूर्ण विश्वास जता रहे हैं कि हम खुद समझें कि शब्द और उसका उच्चारण क्या होगा। व्याकरण वाले आदर्शवादी यह घालमेल सहन नहीं कर पाते। कहते हैं इन दोनों का कुल, गोत्र, रिश्तेदारियाँ अलग-अलग हैं तो इन्हें एक ही सूत्र में कैसे बाँधा जा सकता है।एक ओर यह चाँदबिंदी अनुनासिक है, स्वरों की विशेषता है तो दूसरा है अनुस्वार यानी खानदानी व्यंजन। अब तो मानक हिंदी वर्तनी ने इसके सरकारी अधिकार बढ़ा दिए हैं। पूरे पाँच व्यंजनों के लिए इसी रूप को मान लिया गया है ! इनका एक तर्क यह भी है कि हिंदी सीखने वाले को भी असुविधा होगी। लिपि चिह्न एक हो गया तो दोनों का अंतर वह सीखेगा समझेगा कैसे! यहाँ यह याद रखना होगा कि हिंदी हम हिं

शब्दों के बारे में

वहाँ क्यों खड़े हो भाई  शब्दों के अर्थ, वाक्यों के आशय वहाँ कहाँ तलाश रहे हो ? ये बड़बोले शब्द  जब मंच से उछलते हैं तो बड़े आबदार,  बड़े लुभावने लगते हैं बिछ जाते हैं रास्ते में फूलों-से बिखर जाते हैं चारों ओर गंध-से और अगले ही क्षण चुभने लगते हैं ये फूल फैलने लगती है इनकी दुर्गंध उतर जाता है इनका पानी |  ये शब्द  कभी फ़िकरों में बदल जाते हैं  कभी फ़िरकों में कभी  जाति-धर्म या भाषा की झोली में बटोरकर उछाले जाते हैं गुलेल से तीखे पत्थर की तरह लहूलुहान कर देते हैं दिलों को ठुक जाते हैं मेखों की तरह सलीब पर  ये नुकीले शब्द  तार-तार कर देते हैं तन-वसन | कोई बताए  इनसे कैसे रचेंगे शील के वाक्य कैसे लिखी जा सकेगी  निर्माण की इबारत सृजन के स्वप्न की सिहरन प्रलय के मेघ की गरज...! ओस की चमक हो  या कली की लाज कैसे बचा पाएँगे ये शब्द ! वहाँ क्यों खड़े हो भाई ? बटोर लो इन्हें वापिस दो इनके अर्थ ! लौटा दो इनकी शक्ति बचालो इन्हें ‘अनर्थक’ होने से क्षमताओं के वेद, उपलब्धियों के पुराण इन्हीं से लिखे जाने हैं इतने पराये तो नहीं हैं ये शब्द ! . . #सुरेश पंत

“गुमानी” की नाम-पहेली

पहले अपने नाम को एक पहेली-सा बनाकर प्रस्तुत करना भी विद्वत्ता का परिचायक माना जाता था. लोकरत्न पन्त ‘गुमानी’ (१७९१ – १८४६) हिंदी, कुमाईं और संस्कृत के सुविज्ञ कवि थे. कुछ विद्वान उन्हें नेपाली का भी प्रथम कवि मानते हैं, यद्यपि नेपाली की अधिक रचनाएँ प्राप्त नहीं हैं. गुमानी जी ने संस्कृत में ही सब से अधिक लिखा है.  कहा जाता है कि वे एक बार अपने समकालीन टिहरी-नरेश “श्री ५, सुदर्शन शाह महाराज” की राजसभा में पहुँच गए. प्रत्येक राजा के दरबार में विद्वानों की एक मंडली होती थी, जो प्रायः नवागंतुक को नीचा दिखाने के प्रयास में रहती थी. सो एक सभा-पंडित ने गुमानी जी से उनका नाम पूछा. कहा जाता है कि उत्तर में गुमानी जी ने यह श्लोक सुनाया : कोर्मध्यमो (ग्) हृस्व तृतीयकेन (उ) स्वरेण दीर्घप्रथमेन (आ) युक्तः |  पोरन्तिम: (म्) तोश्चरमस्तु वर्णो (न्) दीर्घद्वितीयेन (ई) ममाभिधानम् || ‘”कवर्ग का मध्यम वर्ण तीसरे ह्रस्व स्वर के साथ (ग् + उ = गु), पहले दीर्घ स्वर के साथ पवर्ग का अंतिम वर्ण (म् = आ = मा), और तवर्ग का अंतिम वर्ण दूसरे दीर्घ स्वर के साथ (न् + ई = नी) : इन सबको मिलाकर मेरा नाम गुमानी (