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चुनावी भाषा की कुछ अभिव्यक्तियाँ

अपने देश की व्युत्पादक लोक-बुद्धि का कमाल है कि जब भी चुनाव आते हैं तो शब्दभंडार में कुछ नए शब्द और पदबंध जुड़ जाते हैं। चाहें तो इसे लोकतंत्र में प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आनुषंगिक लाभ भी कह सकते हैं| यह बात और है| अभी तीन अभिव्यक्तियों पर ध्यान जा रहा है। सूपड़ा साफ होना   कोश के  अनुसार सूप शब्द संस्कृत के शूर्प का तद्भव है। शूर्पनखा (सूप जैसे नखों वाली) या शूर्पकर्ण (सूप जैसे कान वाला) जैसे पौराणिक नामों में यही शूर्प है जो प्रायः अन्न को पछारने , उसमें से कंकड़-पत्थर या भूसी जैसी गंदगी अलग करने वाला एक उपकरण है। इसे छाज भी कहा जाता है। यह सूप हिंदी में ही नहीं , उसके परिवार की अन्य भाषाओं-बोलियों के अतिरिक्त मराठी , गुजराती में भी इसी अर्थ में है। कबीर ने तो साधु स्वभाव की तुलना ही सूप से कर डाली :     साधू ऐसा चाहिए , जैसा सूप सुभाय , सार-सार को गहि रहै , थोथा देइ उड़ाय॥ इसी सूप से जुड़ा है हीनार्थक प्रत्यय “-ड़ा”, जो मूल अर्थ में कुछ नकारात्मकता या हीनता भर देता है। तो शब्द बन गया "सूपड़ा"। हीनार्थक हो या उन्नतार्थक , सूपड़ा भी सूप की भांति