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कांड, घोटाला से घूस तक

कांड संस्कृत शब्द है इसका अर्थ है खंड। दूब, गन्ना, बांस, नरकट आदि घास वर्ग में दो गाँठों के बीच के भाग को कांड या  पर्व (पोर)   कहा जाता है। हमारी अंगुलियों में भी कांड होते हैं। कांड की विशेषता है कि नया पौधा गाँठ से ही जनमता बढ़ता है। दूब के बारे में यजुर्वेद में कहा गया है कि वह कांड से सैकड़ों-हजारों शाखाओं में पनपती है। काण्डात्-काण्डात् प्ररोहन्ती परुषः-परुषस् परि । एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्रेण शतेन च ... कांड उपासना मार्ग के सोपान और विषय विभाजन भी हैं- कर्मकांड, ज्ञानकांड, उपासना कांड। प्राचीन साहित्य में प्रायः रामकथा कांडों  में विभक्त है, एक कांड से दूसरे कांड की ओर बढ़ती हुई। महाभारत मैं कांड नहीं, पर्व हैं।अर्थ दोनों का एक ही है। आज जिसे हम अध्याय या खंड कहते हैं वे ही कांड या पर्व हैं। इन पर्वों और कांडों को उनके प्रधान विषय के अनुसार नाम दे दिए जाते हैं। रामकथा के कांडों में लंका कांड का संबंध आज कांड शब्द के अर्थापकर्ष के कारण से जोड़ा जा सकता है। जब कभी छोटा-मोटा संघर्ष होता है तो कह दिया जाता है लंका कांड हो रहा है अर्थात मारपीट फसाद हो रहा है। इस तरह कांड का दायरा ब

विज्ञ, अभिज्ञ और 'भिज्ञ'

विज्ञ, अभिज्ञ और 'भिज्ञ' अभिज्ञ (जानकार), अनभिज्ञ (न जानने वाला) में अ- और अन- को निषेधार्थक उपसर्ग मानकर कुछ विज्ञ (ज्ञानी) जन ज्ञानी के लिए 'भिज्ञ' शब्द का प्रयोग करते हैं। उनके लिए अविज्ञ वह है जो जानता कुछ नहीं। उनका सीधा तर्क है- जैसे अज्ञानी में से अ हटा देने पर ज्ञानी बचता है, ठीक उसी प्रकार अ, अन हटा देने से 'भिज्ञ' भी बनेगा। वस्तुतः हिंदी में 'भिज्ञ' कोई शब्द ही नहीं है। संस्कृत में शब्द है 'ज्ञ'। उससे पहले अभि- और अन्-  उपसर्ग जोड़ दिए गए हैं। 'अनभिज्ञ' में भी अन + भिज्ञ नहीं, अन् + अभिज्ञ है। √ज्ञा (जानना) धातु से जानने वाला के अर्थ में 'ज्ञ' शब्द बनता है जिसका अर्थ है ज्ञानी, जानकार। वि- उपसर्ग जोड़ने से 'विज्ञ' बनेगा जिसका अर्थ है विशेष जानकार, विशेषज्ञ।  विशेष बात यह है कि 'ज्ञ' का हिंदी में स्वतंत्र प्रयोग नहीं है। 'ज्ञ' से अनेक यौगिक शब्द बनते हैं जो संस्कृत से ज्यों-के-त्यों ले लिए गए (तत्सम) हैं; जैसे: सर्वज्ञ, अज्ञ, अल्पज्ञ, तत्वज्ञ, रसज्ञ, शास्त्रज्ञ, मर्मज्ञ, सुविज्ञ आदि। ऐसे सुविज्ञों से

यथा-तथा

शब्द-विवेक : यथा-तथा हिंदी में यथा (अव्यय) का प्रयोग स्वतंत्र रूप में कम होता है। केवल उदाहरण देने के लिए 'जैसे' के अर्थ में तत्सम प्रधान शैली में साहित्यिक प्रयोग दिखाई देता है। यथा से निर्मित संयुक्त शब्द बहुत से प्रचलित हैं; जैसे: यथायोग्य, यथासंभव, यथोचित, यथा स्थान, यथा निर्देश, यथावत आदि। तथा का यथा के विपरीतार्थक के रूप में स्वतंत्र प्रयोग केवल कुछ कहावतों में मिलता है जैसे - यथा राजा तथा प्रजा। अन्यत्र तथा का प्रयोग योजक के रूप में स्वतंत्र रूप से कम, 'और' के विकल्प के रूप में अधिक दिखाई पड़ता है; वह भी तब, जब एक वाक्य में और का प्रयोग करने के बाद कुछ जोड़ना शेष रह जाए तो यह और की पुनरुक्ति से बचाता है।  तथा से एक शब्द निर्मित होता है तथ्य, जैसा है वैसा होने का भाव, अर्थात सत्य। यथा से यथ्य नहीं बनेगा। यथार्थत्व, याथार्थ्य,  बन सकते हैं जिनका अर्थ भी तथ्य के निकट है।