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अप्रैल, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ग्रेशम का नियम और टट्टी

अर्थशास्त्र में थॉमस ग्रेशम का एक बहुत पुराना नियम है "बुरा सिक्का अच्छे सिक्के को प्रचलन से निकाल बाहर कर देता है पर अच्छा सिक्का कभी भी बुरे को प्रचलन से निकाल बाहर नहीं कर पाता।" यह नियम है तो अर्थशास्त्र का किंतु यह भाषा शास्त्र में भी बिल्कुल सटीक बैठता है। इसे एलन- बरीज का 'अर्थ परिवर्तन का नियम' कहा जाता है: "किसी शब्द का बुरा अर्थ प्रचलन में हो तो उस शब्द के अच्छे अर्थ को भी चलन से बाहर कर देता है।" इसके उदाहरण सभी भाषाओं में मिल जाएँगे। अंग्रेजी में prick, ass, cock, booty जैसे शब्द उदाहरण हैं जिनका कथित भद्दा अर्थ आज पारंपरिक अर्थ पर हावी हो गया है और इन्हें अशिष्ट भाषा की श्रेणी में डाल दिया गया है।  बचपन में एक कहावत सुनी थी, 'अरहर की टट्टी में गुजराती ताला।' एक तथाकथित ग्रामीण-से लगने वाले शब्द के कारण सुनने पढ़ने में कुछ अटपटा-सा लगता था। यद्यपि कहावत का अर्थ जान लेने पर। सामान्य और स्वाभाविक शब्द हो गया किंतु जो मूल अर्थ से परिचित नहीं है, विशेषकर आज की पीढ़ी में, उन्हें यह हास्यास्पद लगता है। बाँस की फट्टियों, सरकंडों, फूस, खस आदि

रेफ, आशीर्वाद और बिगऱ्यो

हिंदी में रेफ को लेकर कुछ लोगों में भ्रम है, परिणामस्वरूप वर्तनी में बहुधा अशुद्धियाँ दिखाई पड़ती हैं। जैसे: आर्शीवाद (आशीर्वाद) , र्गवोक्ति (गर्वोक्ति ) कुछ वर्णों के साथ संयुक्त होते हुए रेफ के कुछ मुख्य रूप हैं: 1. दो स्वरों के बीच शिरोरेखा पर लगने वाला (र् ), जो पहले अक्षर के बाद बोला जाता है किंतु अगले अक्षर के सिरपर मुकुट जैसा विराजमान होता है ; जैसे कर्म (=कर्/म), कार्य (=कार्/य), स्पोर्ट (=स्पोर्/ट)। शिरोरेखा रेफ के विषय में कुछ अन्य सावधानियाँ हैं ~यह स्वर वर्ण पर नहीं लगता।  ~किसी अर्ध व्यंजन या हलंत व्यंजन के माथे पर भी नहीं लगाया जाता। ~मात्रा वाले वर्ण पर पहले मात्रा और उसके बाद रेफ लगेगा। ~यदि व्यंजन गुच्छ हो तो यह अंतिम व्यंजन के माथे पर जा विराजेगा; जैसे: ईर्ष्या, वर्त्स्य, निर्द्वंद्व। 2. दूसरा प्रकार शिरोरेखा रेफ की तरह स्वर रहित नहीं है। स्वर सहित पूरा 'र' जब किसी हलंत व्यंजन से संयुक्त होता है तो उसकी आकृति दो प्रकार की हो सकती है : - क्, प् जैसे पाई वाले वर्णों से और 'द्', 'ह्' से जुड़ने पर रकार अपनी पूरी आकृति बदल लेता है और एक टेढ़े डैश

तरबूज़ का हिंदू कनेक्शन

तरबूज़ विश्व में सबसे अधिक उगाया जाने वाला फल है और इसकी 1000 से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती हैं।भारत में तरबूज़ ग्रीष्म ऋतु का फल है। ये बाहर से हरे रंग के होते हैं, परन्तु अंदर से लाल। पानी से भरपूर और मीठे होते हैं।  तरबूज़ के लिए संस्कृत में एक शब्द कालिन्द है। इसकी व्युत्पत्ति दो प्रकार से की गई है। कलिंद पर्वत या कालिंदी (यमुना) नदी से प्राप्त। कलिंद पर्वत से तो इसका संबंध नहीं बैठ पाता क्योंकि इतने शीत में यह उगता नहीं। हाँ, यमुना-गंगा के तटीय क्षेत्रों में यह बहुत उगाया जाता है। कालिन्द को वाचस्पत्यम् में इस प्रकार समझाया गया है - कालिं जलराशिं ददाति अर्थात् जो फल बहुत पानी देता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, बुंदेलखंड, मध्यप्रदेश का कलिंदा, कलिंदर नाम इसी कालिंद से माना जा सकता है। संस्कृत में एक अन्य नाम कालिङ्ग भी प्राप्त होता है जिसका अर्थ है - कलिंग का, कलिंग क्षेत्र में उत्पन्न होने वाला। मराठी, कोंकणी आदि में कलिंगड़ नाम इसी कालिङ्ग से विकसित लगता है। पंजाबी में तरबूज़ को हदवाणा और हरयाणवी में हदवाना भी कहा जाता है। बहुत संभव है यह फ़ारसी के हेंदवाने ( هندوانه "h

राम और आराम

शब्द प्रायः उलझन में भी डाल देते हैं; जैसे जब आप आराम फ़रमा रहे हों या आराम कर रहे हों तो यह आराम शब्द फ़ारसी से है या संस्कृत से? एक श्लोक याद आता है राम के बारे में कि राम कल्पवृक्षों के आराम हैं , सारी आपत्तियों के विराम हैं, तीनों लोकों में अभिराम हैं आदि आदि। अब यदि आराम राम से जुड़ा हुआ है तो यह भला फ़ारसी से कैसे हो सकता है! संस्कृत में एक धातु है √रम्, जिसका अर्थ है रमण करना, अच्छा समय बिताना, सुख उपभोग करना, इसी रम् से भगवान राम का नाम बना है और रम्य, रमणीय, रमण, आराम, विराम, अभिराम, अविराम जैसे शब्द बने हैं। संस्कृत के आराम का अर्थ है उपवन, उद्यान, बगीचा। अमरकोश आराम को कृत्रिम वन मानता है।  जब हम आराम कर रहे होते हैं तो इस आराम का संबंध संस्कृत रम् धातु के आराम से नहीं है, चाहे हम रमण ही कर रहे हों । यह आराम फ़ारसी से आया है। यह बात दूसरी है कि दोनों आराम एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। भाषाविदों का मानना है कि आराम का मूल प्राचीन भारत ईरानी या भारोपीय भाषा परिवार में है। शब्द यात्रा के साथ अर्थ यात्रा बदल गई। उसमें कुछ नया अर्थ आ जुड़ा जिसे हम अर्थ विस्तार कहते हैं। फ़ारसी में व

जीव, जंतु और प्राणी

जीव - जिसमें जीवनी नाम की प्राकृतिक चेतना शक्ति है। प्राणियों का चेतन तत्व जीव है। इस प्रकार जीव का अर्थ बहुत व्यापक है। मनुष्य, पशु- पक्षी, कीड़े - मकोड़े, सूक्ष्म जीवाणु आदि सभी प्रकार के जीवधारी जीव हैं। जंतु - √जन् धातु (जन्म लेना) से बना है, (जायते उद्भवतीति )। वह जीव जिसने माता के गर्भ से किसी भी रूप में इस संसार में जन्म ग्रहण किया हो। अर्थ की दृष्टि से यह शब्द जीव या प्राणी के ही समकक्ष है, फिर भी प्रयोग में यह अपेक्षाकृत बड़े या मँझले आकार वाले जीव धारियों के लिए है। जहाँ सभी प्रकार के प्राणियों का संकेत करना हो वहाँ पर प्रायः द्विरुक्त शब्द जीव-जंतु का प्रयोग किया जाता है। सूक्ष्मजीव होते हैं, सूक्ष्म प्राणी नहीं। प्राणी वह जिसमें प्राण शक्ति है, साँस लेने की क्षमता है। जिस में पाँचों प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान) निवास करते हैं। खाता-पीता, चलता-फिरता, वंशवृद्धि में सक्षम प्राणी। वैज्ञानिक परिभाषा के अनुसार एक बहुकोशिकीय जीव। व्यवहार में प्राणी का प्रयोग मनुष्य के संदर्भ में अधिक मिलता है। इसका एक अर्थ जन भी है। जैसे  ~परिवार में पाँच प्राणी हैं। ( पाँच जन) ~हम

घर्म, गर्मी और ग्रीष्म

गर्म फ़ारसी से आया है, इसे संस्कृत "घर्म" (घाम) से भी जोड़ा जाता है। उच्चारण की दृष्टि से गर्मी, गरमी एक ही हैं, वर्तनी अलग-अलग है। गरमी में र का अ-लोप (schwa deletion) हो जाने से गर्मी बचेगा। गर्म का उच्चारण गरम नहीं है । पदांत अ-लोप से गर्म को 'गर्म्' बोला जाएगा और गरम को 'गरम्'; अर्थात् दोनों का उच्चारण भी भिन्न है। इसलिए गर्मी /गरमी का मूल (तत्सम) विशेषण गर्म मानना अधिक तर्कसंगत लगता है। जो बिना अ-लोप के 'गरमी' उच्चारण कर सकते हैं, वे गरम मान सकते हैं! बदरीनाथ कपूर मानते हैं कि गर्म और गर्मी फ़ारसी तत्सम शब्द हैं और गरम और गरमी उनके तद्भव रूप हैं। परन्तु गरमागरम, गरमाना, गरमाहट जैसे शब्द तद्भव रूपों से ही बने हैं। गर्मी का मौसम ग्रीष्म ऋतु है। ग्रीष्म संस्कृत की √ग्रस् धातु (निगलना, नष्ट करना) से बना है । हिंदी में ग्रीष्म की अपेक्षा गरमी और गर्म शब्द का प्रयोग व्यापक है। ग्रीष्म का स्वभाव गर्मी या ताप है, किंतु ग्रीष्म का अर्थ सर्वत्र गरम नहीं है। धूप, आग, पानी, राख, चिंगारी - यहाँ तक कि स्वभाव में भी गर्मी हो सकती है ग्रीष्म नहीं।  घाम  घाम संस्

हाल, हालात और हलचल

हाल, हाल-चाल और हलचल हाल (पु) और हालत (स्त्री) अरबी से आए हुए शब्द हैं। दोनों का अर्थ है स्थिति, दशा, संवाद, अवस्था, परिस्थिति, वर्तमान, समाचार आदि।कभी-कभी बुरी दशा हो जाने पर कहा जाता है हाल बेहाल हो गए। दोनों का बहुवचन रूप उर्दू में हालात है। चूँकि आगत शब्दों पर व्याकरणिक नियम हिंदी के लागू होंगे, इसलिए हिंदी में तिर्यक बहुवचन होगा हालों, हालतों। अनेक बार "हालातों" प्रयोग देखा जाता है जो दोहरा बहुवचन होने से ठीक नहीं है।  अरबी हाल में हिंदी चाल मिला दी जाती है तो शब्द बनता है हाल-चाल, अर्थात् वर्तमान स्थिति या दशा, कुशल-क्षेम, खैरियत। हाल-चाल और हलचल में देखने में चाहे केवल आ की मात्रा का अंतर हो किंतु दोनों भिन्न शब्द हैं। हलचल हिंदी की दो क्रियाओं - हिलना और चलना से बना है। लोगों के बीच किन्हीं तात्कालिक कारणों से फैली हुई अधीरता, घबराहट, बेचैनी वाली गतिविधि हलचल के अंतर्गत आती है। लोग अपनी सामान्य चाल से आगे कुछ अधिक तत्परता पूर्वक आने-जाने लगते हैं, हड़बड़ी में होते हैं या व्यस्त दिखाई पड़ते हैं तो हलचल होती है। बारात के आने से, प्रतीक्षित विशिष्ट मेहमान के पधारने पर,

और की और-और अर्थ-छबियाँ

और की और-और अर्थ छबियाँ हिंदी में 'और' एक बहु प्रचलित शब्द है और बहु अर्थी भी। सामान्यतः इसे समुच्चयबोधक या योजक माना जाता है जो दो पदों या उपवाक्यों को जोड़ता है। जैसे ~घोड़े और गधे। (दो पदों का योजक) ~वह आया और चला भी गया। (दो उपवाक्यों का योजक) औरै भांति कुंजन में गुंजरत भौंर-भीर,  औरै डौर झौंरन में बौरन के ह्वै गये।  ट कहै पद्माकर, सु औरै भाँति गलियान,  छलिया छबीले छैल औरै छवि छ्वै गयै॥  औरै भाँति बिहंग-समाज में आवाज़ होति,  ऐसे ऋतुराज के न आज दिन द्वै गये।  औरै रस औरै रीति औरै राग औरै रंग,  औरै तन औरै मन औरै वन ह्वै गयै॥  अर्थ के अनुसार और को समुच्चयबोधक ही नहीं, अन्य व्याकरणिक कोटियों तथा अर्थ छबियों में भी देखा जा सकता है ; जैसे : ~अभी और लोग आएँगे। (विशेषण) ~कुछ और दीजिए। (क्रियाविशेषण) ~काम भी करो और ताने भी सुनो। (परिणाम) ~मैं और चुपचाप सुनता रहूँ! (विपरीतता या विलक्षणता) ~एक मैं, और एक तुम! (विपरीतता, विरोध) ~और क्या तुम उसे कंधे पर बिठाते! (जो हुआ उससे अधिक की चाहत) ~और मुँह लगाओ मूर्खों को। (दुष्परिणाम) ~अगर कुछ और परिश्रम करते तो सफल हो जाते। (विशेषण) ~और कोई इस झग