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जुलाई, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ही संधि : हिंदी की अपनी संधि

संधि से तात्पर्य किन्हीं दो निकटस्थ ध्वनियों के मेल से उनमें आने वाला स्वनिमिक परिवर्तन है। हिंदी में संधि के नाम पर वस्तुतः संस्कृत की ही संधियाँ पढ़ाई जा रही हैं। स्वर, व्यंजन, विसर्ग के नाम से जिन संधियों की चर्चा हिंदी में की जाती है उनके सारे के सारे उदाहरण संस्कृत से हिंदी में आए तत्सम शब्दों के उदाहरण हैं। संधि के नाम पर सिखाई जाने वाली संधियाँ हिंदी की नहीं, संस्कृत की हैं और केवल कुछ तत्सम शब्दों में होती हैं, सभी में नहीं। हिंदी में दंडाधिकारी होता है, वितरणाधिकारी नहीं। महोदय संभव है, पदोदय नहीं। सदैव बनता है, सदैक नहीं बनता। असल में हिंदी की प्रवृत्ति वियोगात्मक है, संधि करने की नहीं। कुछ स्थितियों में हिंदी की अपनी संधियाँ विकसित हुई हैं किंतु उन पर ध्यान नहीं दिया गया और वैयाकरण उनकी अनदेखी करते हैं।  उदाहरण के लिए कुछ विशेष स्थितियों में निपात "ही" के संपर्क में आने पर हिंदी के कुछ शब्दों में रूपस्वनिमिक परिवर्तन दिखाई पड़ता है। इसे "ही-संधि" कहा जा सकता है जो हिंदी की अपनी संधि है क्योंकि अब  इसके अपने नियम बन गए हैं। इस "ही-संधि" में पास-प

समीप : जल से निकट तक

" समीप " शब्द का संस्कृत में व्युत्पत्तिपरक अर्थ है- जहाँ जल अच्छी प्रकार से गति करे;  (सङ्गता आपोऽत्र, सम्+आप्) परन्तु आज हिंदी कोशो में और हिंदी के व्यवहार में समीप जल का नहीं, सर्वत्र निकटता का द्योतक है। सहज प्रश्न उठता है कि "समीप" शब्द जल को छोड़कर  निकट के अर्थ में क्यों चल पड़ा? कोई शब्द भाषा में किसी विशेष अर्थ में रूढ़, प्रधान हो जाता है। रूढ़ हो जाने पर उसकी व्युत्पत्ति या व्याकरणिक दृष्टि गौण हो जाती है और लोक प्रमाण प्रमुख। जल के साथ समीप का संबंध भी लोक व्यवहार से ही जुड़ा प्रतीत होता है। "अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः । सावित्रीमप्यधीयीत गत्वारण्यं समाहितः ॥" मनुः ।  २ ।  १०४ । नित्य नैमित्तिक कर्म करने, संध्या-वंदन, गायत्री जप आदि के लिए नदी या जल के निकट जाने की लोक परंपरा थी। कालांतर में संध्यादि कर्म के लिए नदी या सरोवर तक जाना आवश्यक नहीं रहा; अर्थात् 'समीप' आवश्यक नहीं रहा। समीप के साथ 'निकटता' का अर्थ जुड़ गया। इसे अर्थ विस्तार भी कहा जाता है। हजारों वर्षों से लोक प्रयोग में यह समीप निकटता के लिए रूढ़ हो गया।

बोलबाला "इसलिए" का

" इसलिए " हिंदी का सर्वाधिक बारंबारता वाला क्रियाविशेषण अव्यय है जो प्रायः दो स्वतंत्र उपवाक्यों को जोड़ता है। यह यद्यपि स्वतंत्र शब्द है किंतु गठन की दृष्टि से सर्वनाम यह और √लेना के कृदंत तथा परसर्ग का अव्यय रूप है जो इस प्रकार दिखाया जा सकता है -- यह > इस (तिर्यक) + लिए । इसी के समकक्ष किसलिए, जिसलिए (कम प्रयुक्त) रचनाएँ क्रमशः कौन और जो सर्वनामों से निर्मित हैं। संस्कृत में "अस्य कृते" इसलिए के अर्थ में है किंतु इसलिए की व्युत्पत्ति "अस्य कृते" से होना संदिग्ध लगती है। इसके समानान्तर हिंदी की  बोलियों में 'लिए' के लागि, लगि, लगे, लाग रूप मिलते हैं जो √लग से बने हैं। "सबु परिवारु मेरी याहि लागि, राजा जू, हौं दीन बित्तहीन, कैसें दूसरी गढ़ाइहौं॥" ~तुलसी जहाँ तक प्रकार्य का संबंध है, हिंदी में "इसलिए" दो स्वतंत्र उपवाक्यों को जोड़ता है और उनमें कार्य - कारण संबंध बताता है। जैसे: वर्षा हो रही थी, इसलिए मैं नहीं आ सका । आपने बुलाया, इसलिए आया हूँ। उक्त वाक्यों के प्रारंभ में कुछ लोग 'क्योंकि' अथवा 'चूँकि

कौनो ठगवा नगरिया लूटल हो ।—कबीर

हिंदी उर्दू में एक शब्द है ठग,  जो अब अंग्रेजी में भी अपना स्थान बना चुका है। ठग शब्द को संस्कृत की √स्थग् धातु से निष्पन्न माना जाता है। √स्थग् से विशेषण बनता है स्थग, जिसका अर्थ है जालसाज, धूर्त, बेईमान, छली निर्लज्ज Fraudulent, dishonest, a rogue, a cheat। ठग शब्द सुनते ही लोगों के दिमाग़ में चालाक और मक्कार आदमी की तस्वीर उभरती है जो झाँसा देकर कुछ कीमती सामान ठग लेता है। शब्द रत्नावली के अनुसार “धूर्तो स्थगश्च निर्लज्जः पटुः पाटविकोऽपि च ॥ ” व्युत्पत्ति की दृष्टि से स्थगन, स्थगित शब्द भी इसी 'ठग, के भाई-बंधु हैं। ठगी, धोखाधड़ी, लूटपाट, हत्या जैसे काम करना ही ठगों का पारंपरिक व्यवसाय रहा है। इनकी विशेष कार्य स्थली गंगा-यमुना का दोआबा माना जाता था, किन्तु अन्यत्र भी इनकी धूम रही है। अंग्रेजों के ज़माने में भी इनको जरायमपेशा (अपराध वृत्ति के) माना जाता था। भारत में 19-वीं सदी में जिन ठगों से अंग्रेज़ों का पाला पड़ा था, वे कोई मामूली लोग नहीं थे। ठगों के बारे में सबसे दिलचस्प और प्रामाणिक जानकारी 1839 में छपी  पुलिस सुपरिटेंडेंट फ़िलिप मीडो टेलर की पुस्तक 'कनफ़ेशंस ऑफ़ ए ठग

"जी" अव्यय: व्युत्पत्ति और प्रयोग

जी :   جی ‎ व्युत्पत्ति: संस्कृत "जीव" (√जीव् + क) ( जीवति वाला) <> जिव्व, जिव (प्राकृत) > जी (हिंदी) > जीउ, जियू, जू (राजस्थानी) > ज्यू (कुमाउँनी)। असमी জীউ  । १. आदरसूचक अव्यय लिंग, वचन निरपेक्ष ~ नाम, उपनाम के साथ  स्वतंत्र -- नरेश जी, मोदी जी,【माता जी, पिता जी (संबोधन में)】, लाला जी, मुंशी जी, नेता जी ~ कुछ रिश्तों के साथ (संदर्भ देते हुए) जोड़कर -- मेरे पिताजी, जया की माताजी ~ कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों के साथ जुड़कर (विकल्प से) -- गांधीजी, रामजी ~किसी के नाम का अंग उसी के साथ जुड़कर -- किशनजी दुबे, रामजी वर्मा २. स्वीकृति, अस्वीकृति, निषेध, प्रश्न सूचक अव्यय ~ जी, जी!, हाँ जी, नहीं जी, जी नहीं ~ जी? क्यों जी? जी, क्या कहा?

नुक़्ते की बात

'नुक़्ता' अरबी भाषा का शब्द है और इसका अर्थ 'बिंदु' होता है, कुछ आगत शब्दों में अक्षर के विशिष्ट उच्चारण को दिखाने के लिए लगाया जाने वाला संकेत। नुक़्ता लम्बे समय से हिंदी विद्वानों के बीच विमर्श का विषय रहा है। किशोरीदास वाजपेयी जैसे व्याकरण के विद्वान हिंदी लेखन में नुक़्ता लगाने के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है कि ये सब शब्द अब हिंदी के अपने हो गए हैं और हिंदी भाषी इन शब्दों का उच्चारण ऐसे ही करते हैं जैसे उनमें नुक़्ता नहीं लगा हो। बहुत कम लोगों को उर्दू के नुक़्ते वाले सही उच्चारण का ज्ञान है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा जारी मानक हिन्दी वर्तनी के अनुसार भी उर्दू से आए अरबी-फ़ारसी मूलक वे शब्द जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतरण हो चुका है, नुक्ता रहित हिंदी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं। जैसे :– कलम, किला, दाग आदि ( क़लम, क़िला, दाग़ नहीं )। पर जहाँ उनका शुद्‍ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो अथवा उच्चारणगत भेद बताना आवश्‍यक हो (जैसे उर्दू कविता को मूल रूप में उद्धृत करते समय) , वहाँ उनके हिंदी में प्रचलित र

ठुल्ला चर्चा

एक राजनीति-कर्मी ने पुलिस-कर्मी को ठुल्ला कह दिया तो बड़ा बवाल मचा था। माननीय न्यायालय को भी कहना पड़ा था कि ठुल्ला शब्द किसी शब्दकोश में नहीं है। बाद में नेता जी ने इसके लिए माफ़ी माँगी थी और कहा था कि ये शब्द उन्होंने उन पुलिस कर्मियों के लिए इस्तेमाल किया था जो  ग़रीबों को परेशान करते हैं। शब्दकोश में चाहे अभी न हो, व्यवहार में यह आज से नहीं सैकड़ों वर्षों से, शायद हज़ारों वर्षों से अधिक पुराना है। ठुल्ला शब्द संस्कृत स्थूल, स्थूलक, स्थूर (मोटा, विशाल) से है। पालि और शौरसेनी प्राकृत में भी ठुल्ला, ठुल्लो इसी अर्थ में दोनों शब्द विद्यमान हैं जो अपभ्रंश में ठलिअ हो गया है। सिंधी, पहाड़ी, कुमाउँनी, गढ़वाली, नेपाली आदि अनेक भारतीय भाषाओं में ठुल्लो, ठुलो, ठुला के रूप में मौजूद है। पंजाबी में यह टुल्ला है। उपमहाद्वीप से बाहर रोमानी भाषा में ठुलो, ठुली, ठुले तीनों मिलते हैं। पुरा-भारत-ईरानी Proto-Indo-Aryan के कल्पित रूप :  *stʰuHrás से संस्कृत में स्थूर, स्थूल; प्राचीन दरद, खोवारी में स्थूर, ठुल, जर्मन में स्तूर stur हठी, मूर्ख (stubborn) के लिए है। भारत में आमतौर पर पुलिस के तोंदिल, मो

आना क्रिया की कुछ अर्थ छटाएँ

 आना क्रिया के कारनामे  हिंदी में "आना" क्रिया के प्रयोग अनेक अर्थ छटाओं में प्राप्त होते हैं। यहाँ हम उनमें से कुछ छटाओं के कुछ आयामों की चर्चा करेंगे । आना गत्यर्थक अकर्मक क्रिया है जिससे वक्ता या उल्लिखित संदर्भित व्यक्ति के प्रति कर्ता की गति का बोध होता है। चलने के स्थान का उल्लेख 'से' प्रत्यय से तथा उद्दिष्ट स्थान, आने, पहुँचने के स्थान का बोध प्रायः 'तक' से हो सकता है या इसके लिए कोई कारक प्रत्यय नहीं भी हो सकता। ~जीजा जी घर आए। ~नेताजी दिल्ली से आगरा आए । ~मैं कानपुर से लखनऊ तक आपके साथ आ रहा हूँ। एक विचित्र स्थिति तब आती है जब गतिशील कर्ता उद्दिष्ट स्थान के साथ आना क्रिया लगाता है जो स्थिर है और क्रिया का वास्तविक कर्ता भी नहीं है। तब मन के अर्थ बिंब के अनुसार अर्थ ग्रहण करते हैं। जैसे: ~स्टेशन आया, मैं उतर गया (स्टेशन नहीं, गाड़ी स्टेशन पर आई) ~अब आगरा आएगा (अब आगरा पहुँचेंगे) किसी कौशल या विद्या की जानकारी होने के लिए भी आना किया प्रयुक्त होती है। ऐसी स्थिति में कर्ता के साथ 'को' विभक्ति लगती है। क्रिया प्रायः अपूर्ण पक्ष में होती है और इ