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मई, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मोद, मोदक और मोदी...

किसी शब्द की व्युत्पत्ति ढूँढना बड़ा कठिन काम है; विशेषकर भारत में जहाँ एक ओर सब भाषाएँ किसी न किसी रूप में संस्कृत, पालि, प्राकृत से जुड़ती हैं और दूसरी ओर सदियों से विदेशों से संपर्क के कारण विदेशी भाषाओं के शब्द भी भारतीय भाषाओं में घुलमिल गए हैं। साथ ही भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य भाषा परिवारों के शब्द भी व्युत्पत्ति को और कठिन बना देते हैं। मोदी शब्द को ही लीजिए। बड़ा सरल, लोक प्रचलित, सम्मानित उपनाम है, किंतु इसकी व्युत्पत्ति इतनी आसान नहीं, रोचक अवश्य है। संस्कृत कोशों के अनुसार यह √मुद् से है (प्रसन्न होना, आनंदित होना, सुगंध आदि के अर्थ में)। व्युत्पत्ति इस प्रकार है - √मुद् + भावे घञ् = मोद, मोद + णिनि = मोदिन् > मोदी (one who delights) मोद प्रदान करनेवाला, आनंदी, विदूषक, हँसोड़, jestor. मुद् धातु से 'मोदक' (लड्डू) भी बना है, जिसका नाम ही आनंददायक है! मोदक बनाने वाला मोदककार (हलवाई) और इसी मोदककार से मोदी भी जुड़ता है। कालांतर में मोदी शब्द में अर्थ विस्तार हुआ और गुजराती मारवाड़ी राजस्थानी में यह केवल हलवाई के लिए नहीं, वरन सभी तरह की चीजें बेचने वाले परचूनिये के लि

दृष्टि, दीठ और दीद

दृष्टि संस्कृत √दृश धातु से बना शब्द है जिसका अर्थ है देखने की शक्ति, नज़र, निगाह | दृष्टि प्राकृत में डिटठि/दिट्ठी हो गया और हिंदी में इस से बना डीठ/दीठ । शैली प्रयोग की दृष्टि से शिष्ट प्रयोगों में दृष्टि अधिक व्यवहृत है| दृष्टिगोचर होना, दृष्टिपात करना, दृष्टिगत होना, दृष्टि बाँधना आदि ऐसे ही यौगिक प्रयोग हैं | अन्य यौगिक शब्दों में अधिक प्रचलित हैं- दूरदृष्टि , अंतर्दृष्टि, कातर दृष्टि, दृष्टि हीन, दृष्टिकोण, दृष्टिभ्रम | मुहावरों में दृष्टि डाली जाती है, दृष्टि चुराई जाती है, दृष्टि फेर ली जाती है | कुदृष्टि से दृष्टिपात करने वाले की दृष्टि बाँध भी ली जा सकती है। दृश् > दृष्टि > दृष्ट से ही दृष्टांत भी बना है; अर्थ है उदाहरण, समानार्थक तुलना। तर्कशास्त्र और अलंकार शास्त्र में दृष्टांत के अपने स्वतंत्र अर्थ हैं। लोक में दृष्टि से अधिक प्रचलित हैं दृष्टि से बने तद्भव शब्द: डीठ, दीठ या दीठि| डीठ संस्कृत दृष्टि > प्राकृत दिट्ठि, डिट्ठि से व्युत्पन्न है। "दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमई, एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं।"  डीठ के कुछ मुहावरे लोक में प्रचलित हैं; जैसे

काल, कालीन और तत्कालीन

संस्कृत से आगत 'काल' शब्द अनेकार्थी है। यह समय, अवसर, अवधि, मौसम, मृत्यु, यमराज, शिव, शनि आदि अनेक अर्थों में है। समय के संदर्भ में दिक् और काल ब्रह्मांड के दो आयाम हैं। काल का आदि ज्ञात नहीं है और यह अनंत है। काल समय की ऐसी संकल्पना है जो दो वस्तुओं के संपर्क को क्रमिक रूप से व्यक्त करती है। 'मात्रा' काल की सबसे छोटी इकाई है जो एक स्वर के उच्चारण में लगने वाले समय की द्योतक है। काल गणना के भारतीय पैमाने क्रमशः क्षण, दण्ड, मुहूर्त, प्रहर, दिन, रात्रि, पक्ष, मास, अयन, वर्ष ... युग, मन्वंतर आदि हैं। अपने लौकिक संदर्भ में हम इसे भूत, भविष्यत् और भवत् (वर्तमान) के नाम से जानते हैं। काल निरंतर गतिशील है, इसे बाँधा नहीं जा सकता। काल के निर्बंध और असीम प्रवाह में वर्तमान तो एक क्षण मात्र है जो व्यक्त होने के तुरंत बाद अतीत (भूत) बन जाता है। जिसे हम नहीं जानते, वह भविष्य अनागत काल है।  यह तो हुई काल की गति। भाषिक संरचना की दृष्टि से काल ऐसा समय सापेक्ष शब्द है जिससे अनेक यौगिक शब्द निर्मित होते हैं। अधिकांश समस्त पदों में काल उत्तर पद होता है - वर्षा काल, ग्रीष्म काल, विनाश का

दाँत और दाढ़

मेंरे दाँत में जब दर्द हुआ तो मित्र ने परामर्श दिया, दाढ़ उखड़वा लो | अब यह समझ के परे की बात है कि दर्द तो दाँत में हो और आप दाढ़ उखड़वा लें। वस्तुतः तो जो दाँत हैं वे दाढ़ नहीं हैं, और जो दाढ़ हैं वे दाँत हैं भी और नहीं भी| दाँत संस्कृत दन्त से व्युत्पन्न है जब कि दाढ़ दंष्ट्र से (संस्कृत दंष्ट्र/दंष्ट्रा > प्राकृत दड्ढ/दड्डा > हिंदी दाढ़/दाड़)। हमारे मुँह के भीतर जीभ के चारों ओर ऊपर और नीचे के जबड़े से लगे जो औजार काटने, चबाने के लिए प्रकृति ने दिए हैं, वे सब दाँत की परिभाषा में आ जाते हैं किंतु उनमें स्थान भेद से नाम भेद भी है | सामान्यत: सामने की ओर के चार दाँत कर्तक कहलाते हैं। सौंदर्य वृद्धि में सहायक होते हैं और असल दाँत भी यही हैं | मुखड़े की सुंदरता बहुत कुछ दंत या दाँत पंक्ति पर निर्भर रहती है। मुँह खोलते ही 'वरदंत की पंगति कुंद कली' सी खिल जाती है, मानो 'दामिनि दमक गई हो' । उनके बाद "कुत्ते वाले" दाँतों (canine teeth) को कुछ लोग कुकुर दाढ़ कहते हैं , पर असल में दाढ़ शब्द सबसे अंत के 2 + 2 दाँतों के लिए है , जिन्हें चौभर भी कहा जाता है| इन्हीं म

जेठ में जेठ जी की बातें

महीना हो या रिश्ता, जेठ नाम यों ही तो पड़ा नहीं होगा। जेठ जी हर बात में बड़े हैं। ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः। लोक में ससुर की तुकतान पर इन्हें भसुर भी कहा जाता है, जिसकी तुक कुछ लोग असुर में ढूँढ़़ते हैं। जेठ जी के सामने घूँघट रखा जाता था। बोलना एकदम मना। जेठ मास में सिर पर पल्लू या गमछा लपेटना भी घूँघट काढ़ने जैसा ही है। प्यास से कंठ सूख जाए तो इस जेठ में बोलती भी  बंद हो जाती है, जैसे जेठ जी के सामने बहुओं की।  किसी युग में तो बिरहनों के लिए जेठ बड़ा दाहक माना जाता था। "बज्र-अगिनि बिरहिनि हिय जारा।  सुलुगि-सुलुगि दगधै होइ छारा॥ यह दुख-दगध न जानै कंतू। जोबन जनम करै भसमंतू॥" जेठ का एक और पक्ष भी दिखाई पड़ता है। भीषण गर्मी के ये दिन तो जन्मजात बैरी प्राणियों को भी एक कर देते हैं। वे अपना हिंसक स्वभाव भूल जाते हैं, शांतिपूर्वक रहते हैं तो लगता है संसार तपोवन हो गया। "कहलाने एकत बसत अहि-मयूर, मृग-बाघ। जगतु तपोवन सौ कियौ दीरघ दाघ निदाघ॥" अब इससे अधिक क्या कहा जा सकता है कि जेठ की दुपहरी में छाया भी स्वयं छाया तलाश करती हुई निकल पड़ती है कि दो घड़ी कहीं शीतल छाया में चै

दोहद का औरंगज़ेब कनेक्शन

दोहद का अर्थ है गर्भवती की लालसा या रुचि, गर्भवती स्त्री के मन में होनेवाली अनेक प्रकार की प्रबल इच्छाएँ, (the cravings of a pregnant woman)। लोक मान्यताओं और आयुर्वेदिक ग्रंथों के अनुसार गर्भवती स्त्री को कुछ खाने की विशेष इच्छा होती है जिसे दोहद कहा जाता है। संस्कृत 'दौर्हृद' (दो हृदय, गर्भवती का और होने वाली संतान का, जो अपनी इच्छा को माँ की इच्छा के रूप में अभिव्यक्त करती है)। दौर्हृद का प्राकृत रूप दोहद है, संस्कृत में दोनों शब्द हैं। दोहद की पूर्ति करना परिवार जनों का कर्तव्य माना गया है। उत्तररामचरित में उल्लेख है कि जब कौसल्या अपनी पुत्री शांता के घर गई थी तो वहीं से राम को संदेश भिजवाती है कि गर्भिणी सीता के दोहद का ध्यान अवश्य रखें ।  "य: कश्चिद् गर्भदोहदो भवत्यस्या: सोऽवश्यम् अचिरान् मानयितव्यः ।" (सीता को जो भी दोहद हो उसे अवश्य और तुरंत पूरा करें!) दोहद को गर्भस्थ शिशु का संभावित स्वभाव और उसकी प्रकृति जानने का साधन माना जाता है। यही नहीं, दोहद को गर्भ में पल रहे बालक की आकांक्षा समझकर उसकी पूर्ति को वरीयता दी जाती है। परिवार के सदस्य विशेषकर सास-ससुर, नन

हींग चली खोतान से

हींग हींग एक जंगली वनस्पति से प्राप्त लिसलिसा दूध या गोंद है जिसकी गंध बहुत तीव्र होती है। कल्पद्रुम के अनुसार हींग खुरासान, मुल्तान में पैदा होने वाले एक वृक्ष का रस (गोंद) है। बल्हीक के देश का होने के कारण इसे बाल्हीक भी कहा गया है। मध्य ईरानी वर्ग की खोतानी भाषा में यह अङ्गूष्ड था जो तिब्बती के शिङ्-कुं से बना। क्योंकि यह क्षेत्र बौद्ध धर्म का केंद्र रहा और बौद्ध प्रधान होने के कारण इसका भारत से गहरा संबंध था, इसलिए लगता है बौद्धों के साथ भारत आकर यह पालि में हिङ्गु बन गया। पालि, प्राकृत और संस्कृत में इसे हिङ्गु ही कहा गया है। अब भारत की प्रायः सभी भाषाओं में इसे हींग नाम से जाना जाता है।  इसका अंग्रेजी पर्याय asafoetida भी लैटिन के दो शब्दों से बना है: asa जो फ़ारसी aza (गोंद) से बना, और fetida अर्थात् तीखी गंध। अर्थ होगा तीखी गंध वाली गोंद। बंधानी हींग हींग अब भारत की प्रायः प्रत्येक रसोई में मिलती है और इसे विशेष मसालों में गिना जाता है। जिस हींग का हम उपयोग करते हैं उसे "बंधानी" हींग कहते हैं। यह "बंधानी" हींग क्या है? हींग की तीव्र गंध को कुछ हल्का करने के

दल के दल

#दल (बहु-अर्थी) शब्द ••• २.√दल् > दलन (दलना, दलवाना, मसलना, कुचलना) > दाल, दलहन, दलनी, दलिया, दलित २.(पंखड़ी, पत्ता) कमलदल, तुलसीदल, पुष्प दल  ३.(सेना, बल, फ़ौज) शत्रुदल, महिषादल, दलपति, दलबल ४. (झुंड, समूह) "नारी नर कई कोस पैदल आ रहे चले लो, दल के दल, गंगा दर्शन को पुण्योज्वल!" ~सुमित्रानंदन पंत ५. (टीम, गुट, गिरोह, समर्थक) सेवादल, रक्षा दल, राहत दल, रामदल, बजरंगदल ६. (पार्टी) राजनीतिक दल, जनता दल, प्रतिपक्षी दल, दल-बदल ७. (मोरपंख) "दल कहिए नृप को कटक, दल पत्रन को नाम। दल बरही¹ के चंद सिर धरे स्याम अभिराम।"      ------ ----- --------- ¹मोर 

खटराग

खटराग ••• यों तो खटराग का अर्थ है झंझट, झगड़ा, बखेड़ा, बेमेल वस्तुओं का जुड़ाव आदि, किंतु आमतौर पर खटराग (षट्‌राग) शब्द का प्रयोग एक मुहावरे की तरह किया जाता है। खटराग करना, खटराग फैलाना, खटराग मचाना, खटरागी होना आदि ऐसे ही मुहावरे हैं।  खटराग मूलत: भारतीय शास्त्रीय संगीतशास्त्र की एक अवधारणा है , जिसमें छह प्रमुख रागों की गणना हो जाती है। वे हैं दीपक, भैरव, मालकोश, मेघमल्हार, श्री और हिंडोल। ब्रजभाषा के द्विवेदी युगीन कवि राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' ने खटराग को लेकर एक रोचक सवैया लिखा था जिसमें उक्त सभी छह रागों का एकत्र प्रभाव दिखाया गया है। "उर प्रेम की जोति जगाय रही¹, गति कों बिनु यास घुमाय रही² । रस की बरसा बरसाय रही³, हिय पाहन कों पिघलाय रही⁴। हरियाले बनाय कें सूखे हिये⁵ , उतसाह की पेंग झुलाय रही⁶। इक राग अलाप के भाव भरी, खटराग प्रभाव दिखाय रही।" भाव भरी नायिका ने एक 'खटरागी' रागिनी छेड दी है । उस रागिनी के प्रभाव से हृदय में प्रेम का दीप जल उठा¹ , बिना प्रयास के ही कोल्हू चलने लगे², पत्थर जैसे कठोर हृदय भी पिघल गए³, रस की वर्षा होने लगी⁴ , सूखे हृदय हरे हो ग

पत्र, पत्ता, पत्तल और पतला

पत्र का अर्थ है पत्ता| पत्ता वाले पत्र से ही चिट्ठी वाला पत्र भी बनता है| पौराणिक कहानियाँ हमें बताती हैं कि शकुंतला ने दुष्यंत को कमल पत्र (पत्ते) पर पत्र लिखा था | कहा जाता है कि भोज ने भी अपने चाचा मुंज को किसी पत्ते पर अपने रक्त से पत्र लिखा था| फिर ये पत्र भोज पत्र पर, पतले कपड़े पर , ताँबे के पत्तर (ताम्रपत्र) पर लिखे जाने लगे| जन्मपत्री या पंडित जी का पातड़ा भी पत्र से ही बने हैं| पत्र से ही पत्ता > पात > और पत्तल शब्द भी बने हैं | पत्ता पतला होता है और जो व्यक्ति पत्ते के समान हल्का-दुबला होता है वह भी पतला कहलाएगा | उधर पत्तों से बनी थाली पत्तल है| संस्कृत पत्राल > प्राकृत पत्तला > हिन्दी पत्तल , पतला | यह शब्द प्रायः सभी आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में किसी न किसी रूप में विद्यमान है|  हिंदी में दुबला विशेषण संस्कृत के दुर्बल से है| दोनों से शब्दयुग्म बनता है दुबला-पतला| इसी वर्ग का एक और शब्द है निर्बल, किंतु दुर्बल से दुबला हो सकता है निर्बल से निबला नहीं| दुबला मोटा का विलोम है, अर्थ है: कमजोर, क्षीणकाय, अशक्त, जो मोटा नहीं है| इसका प्रयोग केवल सजीव के लिए होता

कुलथी और रस भात

कुलथी और रसभात कुलथी को अंग्रेजी में horse gram कहा जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम macrotyloma uniflorum है। संस्कृत में इसे कुलत्थी या कुलत्थिका कहा गया है। ओड़िया में कुलोथ/कुलुथ; तमिल में यह कोल्लु, कन्नड़ में हुरळि और तेलुगु  में उलवलु आलम में हुदिरा है। कुलथी को हिमाचल प्रदेश में गैथ, गहत; कुमाऊँ में गहत, गौत; नेपाल में गहत और गढ़वाल में गौथ कहा जाता है। पूर्व और पूर्वोत्तर में कुर्थी भी है। मराठी में कुळीथ, हुलगा; कोंकणी में कुळितु। गहत के प्रायः सभी नाम कुलत्थ से व्युत्पन्न हैं और कुलत्थ की व्युत्पत्ति यों बताई गई है - "कुलं भूमिलग्नं सन् तिष्ठति।" जो कुल अर्थात भूमि से सटा हुआ, वह कुलत्थ। इसकी खेती के लिए अधिक देखभाल नहीं करनी पड़ती और बंजर सी लगने वाली भूमि में भी पैदा हो जाता है। उत्तर भारत के मैदानी भागों में कुलथी को कम लोग जानते हैं क्योंकि यहाँ इसे उगाया नहीं जाता। शेष भारत में यह बहुत प्रचलित है और इसके अनेक स्वादिष्ट व्यंजन प्रसिद्ध हैं। यह और बात है कि इसे मोटा अनाज माना जाता है, इसलिए संभ्रांत लोग इसे देखकर नाक भौंह सिकोड़ते हैं। भात के साथ इसका रस (रस-भात) कुम

मथानी मंथन

मथानी मंथन ••• दही मथने की मथनी/मथानी के लिए संस्कृत में √मन्थ् धातु से मन्था, मन्थान, मंथानक, मंथदंड शब्द हैं। शिव का एक नाम मन्थान: भी है।  लोक में इसके अनेक नाम हैं। रई, रवी, रहई; बिलोनी, मथानी, कन्नी; मराठी में रवी, घुसळणी; मारवाड़ी में झेरणी, कोंकणी में खवलो, गुजराती में वलोणु, नेपाली में मदानी और पंजाबी में मधाणी। हरयाणवी में दही मथने के पात्र को बिलोनी और मथने वाले डंडे को मथानी या रवी कहते हैं। ब्रज क्षेत्र में पात्र का नाम मथनी है और बिलोने वाले दंड को मथानी कहा जाता है। इसका एक छोटा संस्करण है जो लस्सी बनाने और दाल घोटने के काम आता है। उसके लिए प्रायः सारे हिंदी क्षेत्र में दलघोटनी शब्द है। पूर्वांचल में खैलर भी कहा जाता है। मथानी के लिए कुमाउँनी में "फिर्को" नेपाली में "फिर्के" शब्द हैं। व्युत्पत्ति है: फिरना > फिरकना > फिरकी > फिर्को (=मथानी, कुमाउँनी में) > फिर्के ( नेपाली में दलघोटनी को कहा जाता है)। कुमाउँनी में कहीं इसे रौली, रौल भी कहा जाता है। मथने के लिए जिस पात्र में दही रखा जाता है उसे कुमाउँनी में बिंड या नलिया/नइया कहा जाता है। गढ़व

आप "ढ" तो नहीं हैं ना

आप ढ तो नहीं हैं ना! ••• पिछले कुछ दिनों से मैंने देश की उर्वरा माटी में जन्मे, प्रायः अज्ञात व्युत्पत्तिक लोक शब्दों का संग्रह प्रारंभ किया जो मूर्ख/मंदबुद्धि के पर्यायवाची शब्द हैं। आश्चर्य हुआ कि हिंदी क्षेत्र की और उससे लगी हुई कुछ भाषाओं की लोक शब्दावली में 100 से अधिक ऐसे शब्द हैं! इस संग्रह में से अभी केवल एक शब्द की चर्चा करूँगा जो एकाक्षरी है और मुख्यतः मराठी में और गौणत: गुजराती, कोंकणी, कन्नडा तथा राजस्थान की एक-दो बोलियों में उपस्थित है। शब्द है "ढ"। ढ का अर्थ है मूर्ख,‌बौड़म, मूर्खतापूर्ण हठ करने वाला। ("ढ" नाम से गुजराती में एक फिल्म भी है जो विशेषकर स्कूली बच्चों को लेकर बनी है।) प्रश्न यह है कि यह एकाक्षरी शब्द इस अर्थ में कैसे रूढ़ हो गया! बड़ी रोचक कहानी है। देवनागरी वर्णमाला में यह अकेला वर्ण है जो 5000 ईसा पूर्व ब्राह्मी लिपि से लेकर आज की देवनागरी लिपि तक उसी रूप में विद्यमान है, जबकि अन्य सभी वर्ण ब्राह्मी से देवनागरी तक पहुँचते-पहुँचते अनेक बार अपना रूप-आकार बदल चुके हैं।  तो निष्कर्ष यह कि जैसे "ढ" के स्वरूप में पिछले 7 हजार वर्ष क

मूर्ख चर्चा

अपने देश की माटी अन्न और वनस्पतियों के लिए ही नहीं भाषा के लिए भी उर्वर है; व्युत्पादक और पोषक। गाँव- देहात में जन्मे हजारों देशज शब्दों की व्यंजना बहुत गहरी है। एक उदाहरण लें। मूर्ख या मंदबुद्धि के लिए लोक में अनेक शब्द लोक व्यवहार से जन्मे और प्रचलित हुए हैं जिनमें अधिकांश अज्ञात व्युत्पत्तिक हैं । नागर सभ्यता के आवरण में इनमें बहुत से शब्द संभवतः धीरे-धीरे दो-चार दशकों में या उससे पूर्व ही विलुप्त हो जाएँगे। ऐसे कुछ शब्द आगे दिए जा रहे हैं। ध्यान देने की बात है कि ये वृहत्तर हिंदी क्षेत्र से हैं, और इसे मूर्ख-वर्ग की पूरी शब्द सूची नहीं माना जा सकता। गाउदी, मोघू (<मुग्ध), सूधा, सोंढर, अदानियाँ (<अज्ञानी?), ठोठ, ठूँठ, ठस, अड़ियल, आड़ू, गैला, गैलचप्पा,बावळी बूच, बावळी पिरड़, बावळी तरेड, बावळी झालर,पूण पागल, बूच, ठस, डगल, ढीम, ढोल, बावळा, बावरा, बइलट, बौलेट, बोकवा, बुड़बक, बकलोल, बौड़म, अड़कचूट, भौंदू, टट्टू, टाट, लडचट्टा, बैधा, पगलेट, पगलटेट , बकटेट, बकलेल, गेगल, बजरबोंग, सुधबोंग, घोंघा, घोंघाबसन्त बग्गड़, बौड़म, बौझक, बौचट, लौधर, बौरहा, भुच्च, भकुआ, बउराह, बाउर, लल्लू, पप्पू, झंड